संविधान ने प्राकृतिक संसाधन एवं उनकी विविधता बचाने के निर्देश दिए हैं – मेधा पाटकर

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13 अप्रैल। जल-जंगल-जमीन देश के आमलोगों के जीने का आधार हैं। इसीलिए ये देश के जीने का अधिकार भी हैं। आज इन्हें नहीं बचाया गया तो कल मानव जीवन के अस्तित्व का खतरा खड़ा हो जाएगा। अमरीका और यूरोप में प्राकृतिक वातावरण बचाने के लिए एक हजार आठ सौ छोटे-बड़े बाँध तोड़ दिये गये हैं। क्योंकि प्रकृति बचेगी तो जन-जीवन भी बचेगा।

इस प्रस्तावना के साथ मेधा पाटकर ने मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले में नर्मदा और तवा नदी के संगम स्थल बान्द्राभान में जन आन्दोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (एनपीएम) के राष्ट्रीय सम्मेलन की शुरुआत की। 1 और 2 अप्रैल को संपन्न हुए इस राष्ट्रीय सम्मेलन में बारह राज्यों से आए प्रतिभागियों ने अपने अपने राज्य में गहरा रहे पर्यावरणीय संकटों की चर्चा की और वहाँ चल रहे जन आंदोलनों की रूपरेखा प्रस्तुत की।

एनएपीएम के इस राष्ट्रीय सम्मेलन के प्रथम दिन जल, जमीन, जंगल, कानूनी संघर्ष, मैदानी संघर्ष, समन्वय की प्रक्रिया तथा आंदोलन और दलीय राजनीति पर इनके क्षेत्र के वक्ताओं ने अपने अपने विचार रखे। इन वक्तव्यों के बाद समूह चर्चा चली।

सम्मेलन के दूसरे दिन जलवायु परिवर्तन और प्रकृति : चुनौती और रणनीति तथा जन आंदोलनों की आगे की दिशा और कार्यक्रम पर मंथन हुआ। इसके बाद अलग अलग समूहों की भविष्य की तैयारी तय की गयी। अंत में पत्रकार वार्ता और जनसभा हुई।
इस सम्मेलन में मध्य प्रदेश, राजस्थान. महाराष्ट्र, गुजरात, बिहार, उत्तर प्रदेश, असम, केरल, ओड़िशा, छत्तीसगढ़, झारखंड व तेलंगाना आदि राज्यों के प्रतिनिधि आए थे। प्रोफेसर कश्मीर उप्पल ने अपने प्रारंभिक उद्बोधन में कहा कि हमारे देश के 90 करोड़ लोगों का जीवन प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर है, इन संसाधनों के ध्वस्त होने से देश के आमलोगों की जीवन शैली भी ध्वस्त होती जा रही है। एक नदी और पहाड़ पर जितने लोगों का जीवन निर्भर करता है उन्हें संसार का कोई उद्योग रोजगार नहीं दे सकता है। संसार की कोई सरकार इ लोगों को घर बैठे भोजन-पानी भी नहीं दे सकती है।

मेधा पाटकर ने अपनी प्रस्तावना में कहा कि नदियों से जो खिलवाड़ हो रहा है उससे समाज सीधे तौर पर प्रभावित हो रहा है। समुद्र किनारे की भूमि, समुद्र में नदियों का पानी न मिलने से खारी हो रही है। गुजरात में समुद्र किनारे की 80 किलोमीटर की भूमि और भूमिगत जल लवणयुक्त हो चुका है। इधर लाखों एकड़ भूमि और वन बाँधों के डूब क्षेत्र में आ गए हैं। कई जगह खेती की भूमि और ग्रामीण सभ्यताएँ जल में समा गयी हैं।

मेधा जी ने कहा, हमारे संविधान में प्राकृतिक संसाधन एवं उनकी विविधता बचाने के निर्देश हैं। सबसे बड़ा सवाल है कि प्राकृतिक संसाधनों पर किसका अधिकार होना चाहिए- ग्राम सभाओं का या पूँजीपितों का? विकास का नियोजन कैसा होगा? नीचे से ऊपर, या ऊपर से नीचे? हमारे देश में चुनावी राजनीति पर्यावरण के मुद्दों को चुनौती देती रहती है।

मेधा जी ने नर्मदा का उदाहरण देते हुए बताया कि प्रदूषण से नर्मदा अजैविक नदी हो गयी है। इसके किनारे पानी से सिंचाई से जैविक उत्पादन नहीं होता। सरकार के विभाग फसलों में अजैविक अंश मिलने से जैविक खेती का प्रमाणपत्र नहीं देते हैं। नदी के जीव-जंतु भी समाप्त होते जा रहे हैं। उच्चतम न्यायालय एव एनजीटी ने नदी में खनन पर प्रतिबंध लगाया हुआ है पर इसके लिए कोई चेकपोस्ट स्थापित नहीं की गयी है। रेत खनन रोकने के लिए म.प्र. के मुख्य सचिव को आदेश दिये गये हैं। यदि खनन होता है तो उस जिले के कलेक्टर की सीधी जिम्मेदारी होगी।

नर्मदा पर आवश्यकता से अधिक ऊँचा बाँध बनाने के बाद भी गुजरात के कच्छे तक पानी नहीं पहुँचा है क्योंकि सरकार ने वहाँ छोटी नहरों का निर्माण ही नहीं किया है। यह इसलिए कि अडानी के कारखानों और बंदरगाह तक पानी पहुँचाया जा सके।

इस दो दिवसीय सम्मेलन में पूरे देश में फैलता जा रहा पर्यावरणीय संकट का भयावह चित्र बना है। एक साथी ने बताया कि आबादी शब्द आब अर्थात पानी से बना है। पानी से ही जन-जीवन आबाद रहता है। पानी के संकट के कारण देश की आबादी अपने मूलस्थान को छोड़कर विस्थापित होने को विवश हो गयी है। इससे नदी घाटी की स्थानीय सभ्यता और संस्कृति भी नष्ट होती जा रही है।

राजकुमार सिन्हा ने कहा कि नर्मदा नदी पर अनेक छोटे-बड़े बाँधों के अलावा 18 बिजली बनाने के प्लांट और 29 लिप्ट योजनाओं से नर्मदा का पानी बड़े शहरों में पेयजल के रूप में पहुँचाया जा रहा है। इस अवसर पर नर्मदा नदी पर चुटका गाँव में परमाणु ऊर्जा से बिजली परियोजना विरोधी संघर्ष समिति के सदस्यों ने भी अपनी बात रखी। इस संघर्ष समिति के सदस्यों ने कहा कि जहाँ विश्व में इस तरह की घातक परियोजनाओं को बंद किया जा रहा है वहीं नर्मदा में परमाणु से बिजली बनाने की परियोजना आकार ले रही है। जापान का फुकुशिमा परमाणु संयंत्र सुनामी से ध्वस्त हो गया था। इसके बहुत बड़े इलाके में रेडियोधर्मी विकिरण फैलने से लगभग 19 हजार लोगों की मौत हो गयी थी। जापान सरकार को करोड़ों रुपये विकिरण से बचाव के लिए खर्च करने पड़े थे। इसके बावजूद परमाणु विकिरण का प्रभाव आगामी तीस वर्षों तक अपना घातक असर दिखाता रहेगा। चुटका परमाणु संयंत्र में जलाशय के पानी का उपयोग कर पुनः जलाशय में छोड़ा जाएगा। यह जल नर्मदा नदी में बहता हुआ उसके किनारे की आबादी और नदी के जीव-जंतुओं के लिए घातक सिद्ध होगा।

बंगाल किसान संघर्ष समिति के बिद्युत सैकिया ने बताया कि असम में पीड़ित लोग सरकार के दमन के कारण संघर्ष नहीं कर पाते हैं। असम में सामाजिक कार्यकर्ताओं को पर्यावरण पर पोस्ट लिखने मात्र से पुलिस गिरफ्तार कर रही है। चीन ब्रह्मपुत्र नदी पर बहुत बड़ा बाँध बना रहा है जो बम की तरह असम के जन-जीवन को नष्ट कर सकता है।

केरल के शरत ने बताया कि औद्योगिक कचरे और पर्यटन की बड़ी-बड़ी नावों से पेरियार नदी प्रदूषित होकर सूख रही है। इससे नदी पर निर्भर आबादी के जीवन का संकट भी गहरा रहा है। केरल में प्रदूषण की बात पर कश्मीर उप्पल ने टिप्पणी की कि हम अभी तक प्रदूषण का कारण निरक्षरता और जानकारी तथा जागरूकता नहीं होने को मानते रहे हैं। केरल में शत-प्रतिशत साक्षरता के बाद भी यदि वहाँ की नदी प्रदूषित हो रही है और कोई बड़ा विरोध आंदोलन नहीं हो रहा है तो यह बहुत चिंताजनक है।

बिहार के महेन्द्र भाई ने कहा कि बिहार में नदियों के तटबंध जीवनयापन में संकट के सबब बन गये हैं। बिहार के उत्तर में बाढ़ और दक्षिण बिहार में सूखा पड़ता है। बिहार की नदियों के तटबंध अकसर टूटते रहते हैं। इससे खेती और समाज छिन्न-भिन्न हो जाता है। बाढ़ के बाग गाँव नयी भूमि पर बसा दिये जाते हैं। इस कारण लोगों के पते अकसर बदलते रहते हैं। क्योंकि पूरा गाँव नये स्थान पर बसा दिया जाता है।

पूरे देश में नदी विस्थापित लोगों की संख्या करोड़ों में है। इसे लेकर एक व्यापक नीति बननी चाहिए।

राजस्थान के कैलाश मीणा ने बताया कि अरावली पर्वतमाला की तलहटी के गाँवों में नदी किनारे एक सुंदर सभ्यता विकसित हुई है। यहाँ पानी के उपयोग का महत्त्व सबसे अधिक समझा गया है। परन्तु सरकार की अदूरदर्शी नीति के चलते सीमेंट का बड़ा कारखाना दो गाँव की तीन फसली भूमि पर लगा दिया गया। इस कारखाने से दोनों गाँव के केवल बारह लोगों को रोजगार मिला। उस क्षेत्र की नदियों से पानी खींच लेने से नदियाँ सूख गयीं और भूमिगत जल खत्म हो गया। अरावली पर्वतमाला में पत्थरों के खनन से हवा जहरीली हो गयी, फलस्वरूप सिलोसिस की बीमारी से कई लोगों की मृत्यु होने लगी। पानी खत्म होने से चारा नहीं बचा जिससे दूध उत्पादक पशुपालक क्षेत्र में दूध का उत्पादन बहुत कम हो गया। जल के प्रदूषित होने से पशुधन की मृत्यु दर भी बढ़ गयी है।

गुजरात से पधारी निकिता जी के अनुसार अहमदाबाद में साबरमती नदी के दोनों किनारों पर आठ किलोमीटर लंबा पत्थरों का रिवर फ्रंट बनाया गया। नर्मदा नदी का पानी लाकर केवल अहमदाबाद शहर में नदी पानी से भरी रखी गयी है। उसके आगे बाँध बनाकर पानी रोका गया है। इसके बाद साबरमती में प्रदूषित पानी और केमिकलयुक्त पानी छोड़ा जाता है। कारखानों और शहर के प्रदूषित पानी में साबरमती का पानी काले रंग का हो गया है। इसके किनारे का भूमिगत जल भी प्रदूषित हो गया है। इसकी सिंचाई से नदी के आसपास के गाँवों में गेहूँ भी काले रंग का पैदा होता है। यह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक सिद्ध हुआ है।

इसी तरह की नदियों, पहाड़ों, जंगलों और भूमिगत जल की कहानियाँ अत्यंत भयावह हैं। देश के जल, जंगल और जमीन के प्राकृतिक संसाधन अंधे औद्योगीकरण से खंडित हो रहे हैं। इन पर आश्रित करोड़ों किसानों और आदिवासियों का जीवन भी खंडित हो बिखरने को मजबूर है। इतनी बड़ी आबादी को संसार का कोई उद्योग-धंधा रोजगार नहीं दे सकता है।

यह वैज्ञानिक तथ्य है कि नदियों के 25 प्रतिशत से अधिक पानी का उपभोग नहीं होना चाहिए। जबकि नदियों का 75 प्रतिशत से अधिक पानी का वर्तमान में उपभोग किया जा रहा है। बाँधों के अलावा लिफ्ट पानी योजनाओं से, बढ़ते शहरीकऱम से पानी का उपभोग बढ़ा है। नदियों को सीवेज का मल और शहरी औद्योगिक कचरा ढोने वाली मालगाड़ी बना दिया गया है।

नदीघाटी से जंगल डूब में आते हैं और इस क्षेत्रके विस्थापितों को बसाने के लिए पुनः जंगल काटे जाते हैं। तवा बाँध परियोजना के विस्थापितों को सरकारी योजनाओं, अभयारण्य आदि के कारण दो से तीन बार विस्थापित होना पड़ा है। नए विस्थापितों के लिए भूमि नए वनक्षेत्र को काटकर ही प्राप्त की जाती है।

आज का व्यापार जगत पेट्रोल की तरह पानी को भी उपभोग की वस्तु बनाने में जुटा हुआ है। संयुक्त राष्ट्रसंघ की एक रिपोर्ट के अनुसार, संसार में अंतरराष्ट्रीय सीमा पार करने वाली 263 नदियाँ हैं जिसमें 258 नदियों पर विवाद की स्थिति है, जैसे भारत और पाकिस्तान में सतलुज और भारत व चीन के मध्य ब्रह्मपुत्र के पानी के इस्तेमाल को लेकर विवाद है। इस रिपोर्ट के अनुसार, देश के भीतर की नदियों का पानी कम हो जाने पर देशों की अंतरराष्ट्रीय नदियों के पानी के इस्तेमाल से दो देशों में युद्ध की स्थिति भी बन सकती है।

जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय में हुई चर्चा और भविष्य की रूपरेखा से स्पष्ट होता है कि सरकारों को ऐसे सम्मेलनों से प्राप्त निष्कर्षों पर सकारात्मक रुख अपनाना चाहिए। सरकारी एजेंसियों से ऐसी दूरदराज की गंभीर रिपोर्ट की आशा भी नहीं करनी चाहिए। इस तरह नर्मदा बचाओ आंदोलन वास्तव में संविधान का चौथा स्तंभ माने गये मीडिया का ही विस्तार है। यह पत्रकारों की सीमा से आगे की संभावनाओं की खोज करने वाला आंदोलन है जो देश को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करता है। यह भी स्मरण रखा जाना चाहिए कि पूरे देश में अपने सीमित संसाधनों से ये संगठन भविष्य के संकटों की चेतावनी देते हैं। इनकी तरफ ध्यान नहीं देने से जोशीमठ जैसी भयावह प्राकृतिक दुर्घटनाएँ घटित होती हैं। नर्मदा बचाओ आंदोलन ने प्रौद्योगिकी प्रधान विकास मॉडल को चुनौती दी है और यह दिखाया है कि गाँवों में किस तरह बड़े बाँधों के विकल्पों के माध्यम विकास हो सकता है।

– डॉ कश्मीर उप्पल

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