हत्यारी व्यवस्था

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— विवेक मेहता —

मय बदलता है। बदलाव के साथ चीजें देखने, समझने का नजरिया भी बदलता है। जो नहीं बदलते, वे बतंगड़ खड़ा करते रहते हैं।

एक समय था जब किसी की हत्या, आपदा में मौत विचलित करती थी। लोग इसे इंसानियत कहते थे। कानून, व्यवस्था, प्रशासन, सरकार और समाज पर जिम्मेदारी बढ़ जाती थी। सोच होती थी जिन्होंने कानून व्यवस्था को हाथ में लिया उन पर कार्रवाई हो। आगे ऐसी घटनाएं घटित नहीं हों।

अब समय बदल गया है। जब चाहे जहां मशीनी हाथी से रौंद देते हैं। भीड़, जिसे चाहे उसे ऊपर पहुंचा देती है। कचरागाड़ी वाले से भी बाताबाती हो जाए तो बंदूकें खुलेआम चल जाती हैं।

बताते हैं कि पहले यमदूत भैंसें पर बैठ कर आते थे। लोग सावधान हो जाते। अब तो पत्रकार के वेश में, वकील के भेष में, बंदूक ले सामने आ जाते हैं।

किसी की हत्या हो जाए तो उसकी हत्या की खबर की भी हत्या आसानी से हो जाती है। जो हत्यारी व्यवस्था पर सवाल उठाएगा उसकी हत्या होने का हमेशा अंदेशा रहेगा। ऐसा नहीं भी हुआ तो पूछताछ तो की ही जा सकती है कि उसने हत्या से संबंधित सवाल क्यों उछाला?

भयंकर तपती गर्मी में भीड़ जुटाकर चुनावी फायदा उठाने के प्रयास में कुछ लोग मर भी जाएं तो आजकल फर्क नहीं पड़ता। न लोगों को, न समाज को, न सरकार को। सरकार होगी तो भीड़ फिर इकठ्ठा हो जाएगी। लोगों के जीवन से सरकारें नहीं चलतीं, सरकारों से जीवन चलता है। बतंगड़ करने से क्या फायदा? जमाना बदल रहा है। जिंदगी से ज्यादा उन लोगों की भावनाएं आहत हो जाना ज्यादा महत्त्व रखता है जिनमें शायद भावनाएं होतीं ही नहीं। दंगाई या बलात्कारी वैसे तो पकड़े नहीं जाएंगे। मजबूरी में पकड़े भी गए तो अदालतों से छूट जाएंगे। चोरी होगी, रिपोर्ट दर्ज कराने में पसीने आ जाएंगे। मगर कोई स्टेटस डाले- ‘जंजीर से बंधे शेरों पर….. का हमला’ तो दोस्त की भावना ही आहत हो जाती है। रिपोर्ट दर्ज हो जाती है। हो सकता है जल्दी सजा भी हो जाए।

बदलते समय में बदलाव के साथ नहीं चलेंगे तो परेशान रहेंगे। बतंगड़ खड़ा मत कीजिए। अपनी भावनाओं को आहत कीजिए।

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