— रामचंद्र प्रधान —
मुझे पता नहीं कि मधु जी इतिहास में स्वयं किस रूप में प्रतिष्ठित होना चाहते थे। इस बात को जानने योग्य मेरी उनसे अंतरंगता थी नहीं यद्यपि हर बार मिलने पर मेरे मन में आदर का और उनके मन में स्नेह का भावोद्रेक होता था। इससे आगे बात कभी बनी नहीं, उनके साथ मेरी कभी छनी नहीं। जो भी हो, हमारी पीढ़ी के समाजवादी लोगों ने अपने जीवन के कुछ सर्वोत्तम वर्षों को उस आंदोलन में लगाया जिसके एक नेता मधु लिमये भी थे। इसलिए हमारे मन में यह प्रश्न बार-बार उठ रहा है कि जिस मधु लिमये के नेतृत्व में हमने अपनी जवानी के कुछ वर्ष लगाये, वे लोकस्मृति में किस रूप में और किन परिस्थितियों में याद किये जाएंगे? मधु जी को अगली पीढ़ियाँ किस रूप में याद करेंगी?
मधु जी के कामों का आकलन समाजवादी आंदोलन की उपलब्धियों के आकलन के बिना नहीं किया जा सकता। इसलिए समाजवादी आंदोलन के काम पर हम एक सरसरी निगाह डालें। आखिर समाजवादी आंदोलन को किन बातों के लिए याद किया जाएगा। मेरी अपनी समझ में समाजवादी आंदोलन को तीन बातों के लिए याद किया जाएगा। सर्वप्रथम तो राष्ट्रीय आंदोलन को धारदार बनाने, उसके धारा-प्रवाह को वंचितों के बीच फैलाने और विस्तृत करने के लिए। भारत छोड़ो आंदोलन उनके 36000 कंधों पर चला कि नहीं, यह विवादास्पद हो सकता है, लेकिन उस दौर में समाजवादियों के ‘चमत्कारिक’ एवं चौंधिया देनेवाले ‘दुस्साहस’ को नहीं भुलाया जा सकता। हजारीबाग जेल से जयप्रकाश नारायण, सूरजनारायण सिंह, रामनंदन मिश्र आदि का 17 फीट ऊँची दीवाल कूदकर, ब्रिटिश राज को धता बताकर निकल जानेवाली बात लोकमानस में बनी रहेगी। उस दौर में डॉ लोहिया, अरुणा आसफ अली, अच्युत पटवर्धन, उषा मेहता आदि की आजादी के लिए लोगों को ललकारने की याद जातीय स्मृति में टिकी रहेगी। जयप्रकाश नारायण, डॉ लोहिया एवं रामनंदन बचानी मिश्र की लाहौर किले की यंत्रणा को भी लोग याद करते रहेंगे। इसलिए राष्ट्रीय संकट के क्षणों में इन सभी पुण्यकर्मियों का परमपुरुषार्थ भारत के राजनीतिक इतिहास के आकाश में तारों की तरह चमकता रहेगा।
एक दूसरे काम के लिए भी समाजवादियों को याद किया जाएगा। वह है गांधी के अमोघ अस्त्र को, आजादी के बाद न सिर्फ जंग लगने से बचाने के लिए बल्कि उसे ज्यादा धारदार बनाकर आम आदमी के दरवाजे तक ले जाने के प्रयास के लिए। समाजवादी कार्यकर्ताओं के अंतर्मन में नागरिक आजादी के लिए प्रतिबद्धता कितनी गहरी थी, उसका सबूत तो आपातकाल के दौर में मिला। जब बड़े संगठन ढहने लगे, बड़े-बड़े बुद्धिजीवी नतमस्तक हो उसके भाष्य-कार बनने लगे तो असंगठित समाजवादी नागरिक अधिकार के लिए चल रही लड़ाई के मैदान में डटे रहे। जार्ज फर्नांडीज का ‘बड़ौदा डाइनामइट षड्यंत्र’ इसका चरमोत्कर्ष था। शायद वह ज्यादा प्रभावकारी नहीं होता, उनका रास्ता भी गलत था, लेकिन ‘डिफायंस’ के रूप में उसकी स्मृति बनी रहेगी।
एक तीसरी बात के लिए भी समाजवादी आंदोलन याद किया जाएगा। विंध्य के उत्तर में जब कभी जन-जागृति, विशेषकर पिछड़ों, वंचितों की जन-जागृति की चर्चा चलेगी तो उसमें डॉ. लोहिया, राजनारायण, कर्पूरी ठाकुर के काम को याद रखा जाएगा। इसके नतीजे क्या हुए, क्यों हुए, जातीय विद्वेष क्यों फैला, इसपर विवाद चलेंगे, लेकिन यह वंचितों की ही व्यथा-कथा थी, इसे नकारना इतिहास को झुठलाना होगा। चरणसिंह का प्रधानमंत्री बनना, लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव एव मायावती का मुख्यमंत्री बनना, उसी जन-जागृति की परिणति थी।
इसी संदर्भ में ‘मधु जी की याद’ की बात को देखना चाहिए। मेरी अपनी समझ में आगामी पीढ़ियाँ मधु जी को चार बातों के लिए याद करेंगी। एक तो यही कि वे समाजवादी आंदोलन की अगली पंक्ति के योद्धा थे। भले ही उसमें उनकी भूमिका विवादास्पद रही हो। 1955 की टूट अथवा आगे के वर्षों में समाजवादी आंदोलन की टूट-फूट के लिए कुछ लोग उनको जिम्मेवार ठहराते रहेंगे। इतना ही नहीं, समाजवादी आंदोलन को नयी दिशा देने में उनकी अशक्यता को भी माना जा सकता है। लेकिन इन सारी बातों के बावजूद समाजवादी आंदोलन में उनकी महत्ता को कौन नकारेगा!
दूसरी बात जिसके लिए उनको याद किया जाएगा, वह है गोवा मुक्ति आंदोलन में उनकी अहम भूमिका। यह बात कौन भुला सकता है कि उनको गोवा मुक्ति आंदोलन के दौर में बारह वर्ष की सजा हुई थी। गोवा मुक्ति आंदोलन भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का ही बचा हुआ काम था, उसकी पूर्णाहुति थी। इसमें शिरकत कर, कष्ट झेल, सजा काट, उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन में अपनी भूमिका को पूरा कर दिया था। इस प्रकार गोवा मुक्ति आंदोलन से उनका नाम जुड़ा रहेगा।
एक और बात के लिए वे याद किये जाएंगे। वह है नागरिक स्वतंत्रता और समाजवाद, दोनों के लिए उनकी प्रतिबद्धता तथा आपातकाल-विरोध की लड़ाई में उनका अदम्य साहस। शायद ज्येष्ठ श्रेष्ठ सांसदों में वे अकेले थे जिसने आपातकाल में संसद की सदस्यता त्यागकर सांसदों के ‘विशेषाधिकार’ रूपी कवच को उतारकर रख दिया था। यह भी याद रखने की बात है कि दानवीर कर्ण की तरह उनका यह कवच-कुंडल किसी इंद्र ने छल-छद्म से नहीं उतरवा लिया था। उन्होंने स्वतः प्रेरणा से इसे उतार फेंका था। यह आत्मबल द्वारा पशुबल का सामना करने का उच्चतम शिखर था। ‘सवा लाख से एक लड़ाऊँ’, गुरु गोविंद सिंह के इस वचन को वह सच्चा साबित कर रहे थे। आपातकाल के दौर में लोकसभा अध्यक्ष के नाम लिखा मधु लिमये का वह पत्र ऐतिहासिक था जिसमें उन्होंने भारत की ‘स्वतंत्र संसद’ को ‘रखैल संसद’ में परिवर्तित करने के प्रयास के बाद उसका सदस्य बने रहने से इनकार कर दिया था। जब लोग सिर छिपाने और बचाने के लिए ‘चूहा बिल’ की तलाश कर रहे थे, तो मधु लिमये अपने बचाव के लिए सभी हथियार रखकर निहत्थे होकर नागरिक स्वतंत्रता की लड़ाई के मैदान में आ डटे थे। जब कभी नागरिक स्वतंत्रता पर काली घटा छाएगी तो मधु जी का यह अलौकिक दुस्साहसी कार्य लोक-स्मृति को झकझोरेगा, संकट के क्षणों में लोग इससे प्रेरणा लेंगे।
एक और पराक्रम के लिए मधु जी याद किये जाएंगे। सांसद की अद्भुत क्षमता और प्रतिभा के लिए। यह बात भी याद रखने लायक है कि डॉ. लोहिया, राजनारायण, नाथ पाई, एचवी कामथ, हेम बरुआ, मधु लिमये के सांसद बनने के पहले संसद और सड़क में अलगाव-बिलगाव था। तब सड़क पर शोर था किंतु संसद में सन्नाटा। मधु लिमये, उन चुनिंदा सांसदों में थे जिन्होंने संसद और सड़क को राजमार्ग से जोड़ा। उनके प्रयास से एक की गूँज दूसरे में अनुगूँज के रूप में प्रतिध्वनित होने लगी।
आगे चलकर सांसदी गिरावट के दिनों में यह पुरुषार्थ मर्यादाविहीनता में परिणत हो गया, इससे मधु लिमये जैसे सांसदों के पराक्रम की कीमत कम नहीं होती। आगे जब कभी सत्तासीन लोगों के विरुद्ध भीषण लड़ाई की बात उठेगी, तो मधु लिमये का पराक्रम याद आएगा। उनकी हिम्मत की बात लोगों को उत्प्रेरित करेगी। लड़ाई चाहे जवाहरलाल, इंदिरा गांधी के विरुद्ध हो चाहे मोरारजी भाई के विरुद्ध, सत्ता प्रतिष्ठानों पर हल्ला बोलनेवालों की अगली कतार में मधु लिमये खड़े मिलते थे। सत्ता प्रतिष्ठान के सामने नतमस्तक एव मन-मलिन होने की बात वे सोच भी नहीं सकते थे। उनके चरित्र का एक दूसरा पक्ष भी इसी बात से जुड़ा था, उनमें सत्ता-सुंदरी के मोहजाल को तोड़कर निर्मोही हो जाने की अद्भुत क्षमता थी। अपने हित की संभावनाओं की तिलांजलि देने का उनमें अदम्य साहस था। वस्तुतः वे दूसरों द्वारा निर्मित अति सुरक्षित दुर्ग को भी तोड़ने की क्षमता रखते थे, स्वयं सुरक्षित दुर्ग बनाकर उसमें रहना उनके वीतरागी, अपरिग्रही स्वभाव के विरुद्ध था।
(यह मधु लिमये के बारे में लिखे एक लंबे लेख का अंश है – संपा.)