— रामशरण —
भारत जैसे विशाल लोकतंत्र में प्रेस (मीडिया) ही जनता और सत्ता के बीच संपर्क सूत्र होता है। इसीलिए इसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है। प्रेस की भूमिका तीन प्रकार की होती है।
पहले वे जो सिर्फ किसी सामाजिक उद्देश्य के लिए छापे और प्रसारित किये जाते हैं। इन्हें बिक्री या विज्ञापन की चिंता नहीं होती है। आमतौर पर ऐसे प्रकाशन आर्थिक कारणों से सीमित मात्रा में प्रकाशित होते हैं और अल्पजीवी होते हैं। लेकिन ये वैचारिक रूप से महत्त्वपूर्ण होते हैं।
दूसरे प्रकाशन वे होते हैं जो मुख्य रूप से आर्थिक उपार्जन के लिए निकाले जाते हैं। इन्हें सिर्फ विज्ञापन आदि से मतलब रहता है। ये जानबूझ कर सीमित प्रसार रखते हैं। इनमें से कुछ आदर्शवादी भी होते हैं। पर अधिकांश में सिर्फ कचरा ही भरा हुआ होता है।
तीसरे प्रकाशन बड़े उद्योगों का दर्जा रखते हैं। ये अपने भारी-भरकम ढांचे को चलाने के लिए ज्यादा से ज्यादा प्रसारण और विज्ञापन पर निर्भर करते हैं। इनका स्वामित्व बड़े उद्योगपतियों के पास होता है और संपादकीय विभाग में विशेषज्ञ लोग होते हैं। यही समूह वास्तव में जनता और सत्ता के बीच माध्यम होते हैं। इसमें इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी शामिल है। इस माध्यम का स्वतंत्र होना लोकतंत्र के लिए महत्त्वपूर्ण है।
आज मीडिया की आजादी को सबसे बड़ा खतरा विज्ञापन देनेवालों से है। विज्ञापन का सबसे बड़ा स्रोत राज्य सरकार और केंद्र सरकार है। वे उन्हें विज्ञापन नहीं देते जो सरकार की नीतियों का समर्थन नहीं करते। जो सरकार की नीतियों का समर्थन नहीं करते उन्हें बहुत आर्थिक कठिनाइयां झेलनी पड़ती है। इसलिए आजकल अधिकांश मीडिया सरकारी भोंपू बन गया है। लोकतंत्र की रक्षा के लिए जरूरी है कि विज्ञापन वितरण का काम एक स्वतंत्र एजेंसी करे। केंद्र और राज्य सरकारों के सारे विज्ञापन उसके द्वारा निश्चित नियम के अनुसार बांटे जाएं।
इससे भी बड़ा खतरा मीडिया के स्वामित्व से है। अधिकांश मालिक अपने औद्योगिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए सरकार के सामने समर्पण कर देते हैं। विज्ञापन मिले या न मिले, बिक्री बढे़ या न बढे़, ये जनहित के बदले सत्ता को खुश रखना चाहते हैं। ऐसे ही उद्योगपतियों ने अन्ना आंदोलन के बीच में “हर हर मोदी” का प्रचार कर आडवाणी जी को पीछे कर दिया। मीडिया और लोकतंत्र की भलाई के लिए जरूरी है कि मीडिया उद्योग में पूंजीपतियों के नियंत्रण को समाप्त किया जाए। ऐसा नियम बनाया जा सकता है कि मीडिया का 1% से अधिक स्वामित्व किसी एक उद्योगपति के पास नहीं हो।
एक और बड़ा खतरा पत्रकारों के कांट्रैक्ट सिस्टम से है। अधिकांश पत्रकार ईमानदारी से लिखना चाहते हैं पर डरते हैं। मालिकों की इच्छा के विरुद्ध लिखने वाले पत्रकार को तुरंत नौकरी से निकाल दिया जाता है। पहले जब कांट्रैक्ट सिस्टम नहीं था तो पत्रकारिता ज्यादा आजाद थी। इसीलिए यह जरूरी है कि पत्रकारों को नौकरी की सुरक्षा का मजबूत कानून बनाया जाए।
आज जब मुख्य मीडिया ने सरकार के सामने समर्पण कर दिया है तब सोशल मीडिया महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। लेकिन सोशल मीडिया पर विदेशी उद्योगपतियों का कब्जा है। वे जब चाहे सरकार से समझौता कर सकते हैं। बल्कि अपनी ताकत का फायदा उठाकर सरकार को गलत और देशविरोधी नीतियों को लागू करने के लिए बाध्य कर सकते हैं। इसलिए मुख्य मीडिया की आजादी के लिए संघर्ष जरूरी है। कठिनाई यह है कि अधिकांश कार्यरत पत्रकार लड़ने से डरते हैं।