— प्रवीण मल्होत्रा —
आज 17 मई कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का स्थापना दिवस है। आज से 89 वर्ष पूर्व सन 1934 में, पटना में, कुछ युवा बुद्धिजीवियों और वामपंथी विचार के युवजनों ने कांग्रेस के भीतर रहते हुए एक सोशलिस्ट ब्लॉक की स्थापना की थी, जिसे ‘कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी’ नाम दिया गया था। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन को समाजवादी सिद्धान्तों के आधार पर जनाभिमुख बनाने के लिए ही इस पार्टी की स्थापना की गयी थी। इन युवा समाजवादियों का विचार था कि जब तक आर्थिक और सामाजिक गैरबराबरी समाप्त नहीं होगी तब तक राजनीतिक स्वतंत्रता अर्थहीन है। इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु 21-22 अक्टूबर 1934 को बम्बई में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का पहला स्थापना अधिवेशन सम्पन्न हुआ तथा आचार्य नरेंद्रदेव अध्यक्ष और जयप्रकाश नारायण महासचिव चुने गए। इस पार्टी के अन्य प्रमुख नेता थे – डॉ. राममनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन, मीनू मसानी, डॉ. सम्पूर्णानन्द, यूसुफ मेहर अली, अशोक मेहता, कमलादेवी चटोपाध्याय, ईएमएस नम्बूदरीपाद, अरुणा आसफअली, एस.एम.जोशी आदि। जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चन्द्र बोस कांग्रेस की इस लेफ्ट विंग के स्वाभाविक नेता और मार्गदर्शक थे।
आजादी के बाद कांग्रेस के दक्षिणपंथी नेता, जिनके मार्गदर्शक सरदार पटेल थे, यह नहीं चाहते थे कि कांग्रेस में दबाव समूह के रूप में कोई समाजवादी खेमा या लेफ्ट विंग रहे। इसलिए कांग्रेस पार्टी की कार्यसमिति ने, जिसमें सरदार पटेल का वर्चस्व था, यह निर्णय लिया कि कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी को भंग कर दिया जाए। कांग्रेस पार्टी के इस प्रस्ताव को कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ने स्वीकार नहीं किया और अपने नाम के आगे से “कांग्रेस” शब्द को ही हटा दिया। इस प्रकार सन 1948 में एक स्वतंत्र सोशलिस्ट पार्टी का जन्म हुआ। कुछ समय बाद आचार्य कृपलानी ने, जिन्होंने भी कांग्रेस से अलग होकर ‘कृषक प्रजा पार्टी’ बनाई थी, अपनी पार्टी का सोशलिस्ट पार्टी में विलय कर दिया। इस विलय के फलस्वरूप जो नई पार्टी बनी उसका नाम हुआ – प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (पीएसपी)। सन 1955 में सैद्धांतिक कारणों से डॉ. लोहिया अपने अनुयायियों सहित पीएसपी से अलग हो गए और उन्होंने एक नयी सोशलिस्ट पार्टी बनायी, जिसके प्रमुख नेता थे – मधु लिमये, कर्पूरी ठाकुर, मामा बालेश्वरदयाल, राजनारायण, जॉर्ज फर्नांडिस, किशन पटनायक, रामसेवक यादव इत्यादि। यह नई पार्टी डॉ. लोहिया के समाजवादी सिद्धांतों के आधार पर गठित हुई थी। इस पार्टी ने अपने क्रांतिकारी कार्यक्रमों और नीतियों के मार्फत भारतीय राजनीति में जल्दी ही अपनी एक विशिष्ट पहचान बना ली। किन्तु सन 1967 में डॉ. लोहिया के आकस्मिक निधन के कारण जो राजनीतिक शून्य पैदा हुआ उसने समाजवादी आंदोलन को दिशाहीन कर दिया। संयुक्त विधायक दलों (संविद) की सरकारों में भागीदारी के कारण समाजवादियों में सत्ता का ऐसा लोभ पैदा हुआ कि समाजवादियों की क्रांतिकारिता को सत्ता की दीमक लग गयी। रही-सही कसर सन 1977 में जनता पार्टी नाम के महागठबन्धन में सोशलिस्ट पार्टी के विलय ने पूरी कर दी। जनता पार्टी के अल्पकालीन उदय ने समाजवादी आंदोलन की क्रांतिकारी परम्परा को नष्ट कर दिया। इसके बाद तो समाजवादियों को जहां सत्ता की मलाई दिखाई दी वे उसी ओर दौड़ पड़े।
कुल मिलाकर डॉ. लोहिया के अवसान के बाद का समाजवादी आंदोलन का इतिहास विलय, टूट और फिसलन का इतिहास है। आज हम उसी वैभवशाली आंदोलन की जयंती मना रहे हैं, जिसने एक समय देश के सबसे अधिक प्रतिभाशाली और मेधावी, क्रांतिकारी, बुद्धिजीवी, लेखक, कवि, कलाकार, पत्रकार, इतिहासकार, फिल्मकार, प्रोफेसर इत्यादि पेशों से सम्बद्ध युवा, स्त्री-पुरुषों को अपनी ओर आकर्षित किया था।