संगीत का कबीर कुमार गन्धर्व

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कुमार गंधर्व (8 अप्रैल 1924 - 12 जनवरी 1992)

— अरविंद कुमार —

ला की दुनिया में जब कोई नवाचार करता है तो उसे अपनी ही दुनिया के लोगों से विरोध का सामना करना पड़ता है क्योंकि उसके नवाचार को सहज भाव से स्वीकृति नहीं मिलती, उसे बहुत लंबा संघर्ष करना पड़ता है। हिंदी की दुनिया में जब महाप्राण निराला ने “जूही की कली” कविता लिखी तो उनके मुक्त छंद का उपहास किया गया। अज्ञेय ने जब प्रयोगवाद शुरू किया तो उस जमाने के परंपरावादी आलोचकों ने उसका स्वागत नहीं किया था।इसी तरह शिवपुत्र सिद्धरमैया कोमकली उर्फ पंडित कुमार गंधर्व ने जब शास्त्रीय संगीत की दुनिया में अपने गायन में नया प्रयोग किया तो उनका नवाचार लोगों को पसंद नहीं आया और उनके बारे में यहां तक आरोप लगा कि उन्होंने शास्त्रीय संगीत की बैंड बजा दी है। संगीतविद, पंडित कुमार गंधर्व को शास्त्रीय गायक मानने को तैयार नहीं थे लेकिन कालांतर में पंडित कुमार गंधर्व एक बड़े गायक के रूप में स्थापित हुए और मल्लिकार्जुन मंसूर, भीमसेन जोशी के साथ एक त्रयी के रूप में जाने गए और उनका नाम आदर से लिया जाने लगा और वे पद्म विभूषण से भी सम्मानित हुए।

हिंदी के प्रसिद्ध लेखक एवं कवि ध्रुव शुक्ल ने कुमार जी की एक बहुत ही सुंदर और महत्त्वपूर्ण जीवनी लिखी है जिसे रज़ा फाउंडेशन जीवनीमाला के तहत प्रकाशित किया गया है। करीब 200 पृष्ठों में प्रकाशित इस जीवनी में ध्रुव शुक्ल ने कुमार गंधर्व के संघर्ष भरे जीवन से लेकर उनकी गायकी की विशेषताओं और उनके नवाचार का विवेचन किया है। दिलचस्प बात यह है कि कल इस पुस्तक पर आयोजित परिचर्चा में अशोक वाजपेयी ने कहा कि “ध्रुव शुक्ल को संगीत की कोई जानकारी नहीं थी लेकिन उन्हें मैंने ठेलठाल कर संगीत की तरफ मोड़ा और उन्हें अलाउद्दीन ख़ान अकादमी का निदेशक बना दिया।”

इसका नतीजा यह हुआ कि ध्रुव शुक्ल के भीतर संगीत के प्रति गहरी दिलचस्पी पैदा हुई और वे संगीत के मर्मज्ञ बन गए। इसका सबूत उनकी लिखी गयी जीवनी है।

उस्ताद अमीर ख़ान के शिष्य एवं प्रसिद्ध संगीत विशेषज्ञ राजीव बोरा ने कहा कि इस किताब को पढ़कर ऐसा नहीं लगता कि यह पुस्तक ऐसे व्यक्ति ने लिखी है जिसे संगीत के बारे में कोई जानकारी नहीं थी बल्कि इस जीवनी को पढ़ने से यह पता चलता है इसका लेखक संगीत की दुनिया में रचा-बसा है और उसकी बारीकियों को बखूबी समझता है।

यूँ तो हिंदी में शास्त्रीय संगीतकारों के बारे में जीवनियां नहीं हैं। ऐसे में यह जीवनी हिंदी की दुनिया को समृद्ध करती है।

ध्रुव शुक्ल ने पुस्तक के प्रारंभ में ही लिखा है–“कभी कोई जीवनी पूरी नहीं लिखी जा सकती। फिर एक संगीतकार की जीवनी कैसे लिखी जा सकती है, जिसे हर राग में बार-बार जन्म लेना पड़ता है। एक छोटी-सी जीवनी में इतने सारे जन्मों की कथा कैसे समा सकती है और जीवनी गा भी तो नहीं सकती।

अपने जीवन में कोई संगीतकार पूरा राग कभी नहीं गा पाता। वह हर राग के एक अंश को ही नये रूप में बार-बार गाता है। हर बार किसी राग में उसका प्रवेश खाली हाथ लौटने जैसा है। क्या इस खाली हाथ लौटने को संगीतकार की मृत्यु कह सकते हैं और फिर उसी राग में दोबारा प्रवेश को संगीतकार का जन्म? लगता है कुमार गन्धर्व एक ही जनम में कई जन्म लेते रहे।”

ध्रुव जी ने कल समारोह में कहा कि पंडित हजारीप्रसाद द्विवेदी की पुस्तक पढ़कर उन्होंने कबीर को समझा था लेकिन कबीर को पूरा तब उन्होंने समझा जब उन्होंने कबीर के पदों को कुमार साहब की आवाज में सुना। बिना कुमार जी को सुने कबीर को पूरी तरह समझा नहीं जा सकता।

ध्रुव शुक्ल का आशय शायद यह था कि एक तरह से कुमार जी ने कबीर का सांगीतिक पाठ किया। यह शब्दों के टेक्स्ट से अलग म्यूजिक का टेक्स्ट है।

अशोक वाजपेयी ने इस पुस्तक का प्राक्कथन लिखा है तो ध्रुव शुक्ल ने 17 पन्नों की भूमिका लिखी है जिसमें उन्होंने प्रख्यात संगीत समीक्षक राघव मेनन को उद्धृत करते हुए लिखा है–जिस तरह हम संसार के इतिहास को ईसा से पहले और ईसा के बाद पढ़ते हैं उसी तरह भारतीय शास्त्रीय संगीत का इतिहास कुमार गंधर्व से पहले और कुमार गंधर्व के बाद पढ़ा जाएगा।

राघव मेनन के इस कथन से पंडित कुमार गंधर्व के महती योगदान को अच्छी तरह समझा जा सकता है कि किस तरह कुमार जी ने अपनी गायकी से भारतीय शास्त्रीय संगीत गायकी के शिल्प और मुहावरे को बदलने का प्रयास किया।यह संगीत की दुनिया में एक युगान्तकारी घटना थी।
अशोक जी ने पुस्तक के आमुख में लिखा है –
“कुमार जी एक प्रश्नवाचक संगीतकार थे। उनके चिन्तन और संगीत में गहरी प्रश्नाकुलता है। उनमें जिज्ञासा और विनय भरपूर हैं पर प्रश्नाकुलता भी। यह प्रश्नवाचकता कई बार उन्हें विवादग्रस्त भी करती रही पर वे अपने विचार को दृढ़ता और सांगीतिक प्रमाण के साथ प्रस्तुत करने से कभी डिगे नहीं। उनकी कल्पनाशील निर्भीकता अनोखी थी। वे शास्त्रीय संगीत के भारतीय इतिहास में पहले शास्त्रीय गायक हैं जिन्होंने मालवी लोकसंगीत की पूरी संगीत सभा प्रस्तुत की। उन्होंने लोकसंगीत के साथ शास्त्रीय संगीत के बिछड़ने को दूर करने की अथक सर्जनात्मक चेष्टा की और ऐसा करके लोक को शास्त्र जैसा सम्मान दिया, कभी उसे शास्त्र का ग़रीब बिरादर नहीं माना। शायद किसी और संगीतकार से कहीं अधिक कुमार जी ने हमें अपनी परंपरा की आधुनिकता उसकी आधुनिक संभावनाओं का दर्शन कराया। पिष्टपेषण और रूढ़िग्रस्तता से मुक्त उनकी परंपरा की समझ और उस पर उनकी सर्जनात्मक आस्था उन्हें बीसवीं सदी के उन विरले मूर्धन्यों में से एक बनाती है जिन्होंने हमारे लोकतांत्रिक भारतीय संस्कृति बोध को रूपायित किया है।”

ध्रुव जी ने पंडित कुमार गंधर्व की जीवनी को चार कथाओं में विभक्त किया है। पहली कथा जन्म कथा है तो दूसरी संस्कार कथा, तीसरी साधन कथा और चौथी साध्य कथा।

8 अप्रैल 1924 को कर्नाटक के बेलगाम के पास सुलभावी में जनमे शिवपुत्र सिद्धारमैया कोमकली को 1933 में 9 साल की आयु में कुमार गंधर्व की उपाधि मिली थी। 1935 में 11 वर्ष की उम्र में उन्होंने इलाहाबाद में अखिल भारतीय संगीत सभा में अपनी पहली प्रस्तुति दी । 1936 -47 तक वे देवधर जी से और अंजनी भाई मालपेकर से संगीत सीखते रहे। उनका विवाह 24 अप्रैल 1947 को भानुमति कौंस से हुआ था लेकिन विवाह के कुछ दिन बाद ही उन्हें तपेदिक हो गया। तब यह जानलेवा बीमारी थी और 30 जनवरी 1948 को स्वास्थ्य लाभ के लिए वे देवास में बस गए। 1952 में वे स्वस्थ हुए और उस साल 15 सितंबर को पंडित जवाहरलाल नेहरू के समक्ष मांडू में संगीत प्रस्तुति दी थी। इसके बाद तो कुमार गंधर्व अपनी संगीत यात्रा में अग्रसर होते गए और 1990 में उन्हें पद्मविभूषण मिला।

किताब में मशहूर पत्रकार राहुल बारपुते, अनोखे चित्रकार विष्णु चिंचालकर, प्रथम पत्नी भानुमति, दूसरी पत्नी एवं गायिका वसुंधरा श्रीखंडे, बड़े पुत्र मुकुल शिवपुत्र के अलावा यशस्वी लेखक रघुवीर सहाय, कुंवर नारायण आदि के कुमार गंधर्व के बारे में विचारों से भी कुमार जी की गायकी और उनके व्यक्तित्व को समझने की कोशिश की गई है। इसके साथ ही पंडित रविशंकर तथा अन्य कलाकारों और संगीत विशेषज्ञों के विचारों से भी कुमार गंधर्व का उचित मूल्यांकन किया गया है। इस तरह से ध्रुव शुक्ल ने काफी मेहनत से यह किताब लिखी है और बीच बीच में स्वर राग ताल अलाप साधना आदि के बारे में कुमार जी के विचारों को भी व्यक्त किया गया है और इसके जरिये भी उनकी गायकी को विश्लेषित किया गया है।

समारोह में वक्ताओं ने लोगों से कुमार जी को समझने के लिए इस पुस्तक को पढ़ने का आग्रह किया। वाकई यह एक कलाकार को जानने के लिए एक मुक्कमल किताब है।

इस किताब में कुमार जी की बीमारी और उनकी पहली पत्नी भानुमति का एक मार्मिक प्रसंग भी है ।

किताब में जे स्वामीनाथन और अशोक वाजपेयी की कुमार गन्धर्व पर लिखी कविता भी दी गयी है। इन दो कविताओं से भी इस गायक को जाना जा सकता है।

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