जिंदगी की गुम त्रासदियों के अक्स

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— डॉ. प्रकाश मनु —

शैलेंद्र चौहान की पहचान ज्यादातर उनकी कविताओं से है। पर वे बड़े अच्छे गद्यकार भी हैं। उनके पास सीधे-सादे, मामूली लफ्जों से बड़ी बात कहने की कूवत और एक सधी हुई भाषा है, जिससे अपेक्षित प्रभाव वे पैदा कर पाते हैं। गद्य की कई विधाओं में उन्होंने लिखा। लेख, संस्मरण, यात्रा-वृत्तांत, आत्मकथा और आलोचना—सभी को उन्होंने आजमाया, और किसी का अनुकरण किए बगैर अपना एक अलग रास्ता बनाया। शैलेंद्र के अलहदा और विशिष्ट अंदाज के कारण आप उनके गद्य को दूर से पहचान सकते हैं। उनका यह अलग अंदाज कैसा है—इसे बताने के लिए दो शब्द हैं मेरे पास—बेबनाव सादगी। मेरा खयाल है, यह शब्द-युग्म अच्छी तरह से शैलेंद्र और उनके गद्यकार से हमें परचा देता है। बहुतों को यह अचरज भरा लग सकता है कि शैलेंद्र चौहान के यथार्थपरक गद्य की ताकत को मैंने पहलेपहल उनकी कविताओं में गहरे झाँक कर देखा था। उनकी कविताएँ कविता तो हैं, पर इसके साथ ही हमारे आसपास की जिंदगी के दर्द को बहुत कम अल्फाज में कह पाने की सामर्थ्य वाले गद्य को भी आप वहाँ आकार लेते देखते हैं। यही कारण है कि उनकी कविताएँ कहीं-कहीं मुझे जिंदगी की असल डायरी या नोटबुक सरीखी लगती हैं। इसके बावजूद उनकी कविताई कहीं दबती नहीं है।

गंगा से कावेरी दूसरा कहानी-संग्रह है शैलेंद्र चौहान का, जिसमें उनकी बारह कहानियाँ शामिल हैं। लेकिन जैसा कि इसके शीर्षक से ही संकेत मिलने लगता है, ये कहानियाँ कोई कहानियों जैसी कहानियाँ ही हैं। कहानी के किसी खास ढाँचे को जेहन में रखकर इन्हें पढ़ने वालों को तो हो सकता है, थोड़ी निराशा भी हो। लेकिन कहानीकार की मूल प्रतिज्ञा इन्हें कटे-सँवरे या तराशे हुए रूप में सामने रखकर पाठकों को कथा-रस में सराबोर करना शायद रहा ही नहीं। शैलेंद्र अपनी कहानियों में अपनी गुम चोटों और अपने आसपास और परिवेश की टूट-फूट और छूटती जा रही जगहों को दिखाना कहीं ज्यादा जरूरी समझते हैं।

शैलेन्द्र चौहान

उनका सबसे बड़ा आकर्षण यह है कि वे पूरी तरह उनके अनुभवों की कहानियाँ हैं जिन पर आप भरोसा कर सकते हैं। साथ ही उनकी किसी भी कहानी को पढ़कर, फिर चाहे वह ‘दादी’ जैसी पारिवारिक कथा हो या ‘एक और ऋतुचक्र’ जैसी प्रेमकथा या ‘भूमिका’ जैसी जझारू तेवर वाली कहानी—पहले से पढ़ी हुई किसी भी और कहानी की याद आना मुश्किल है। यानी शैलेंद्र की कहानियाँ पूरी तरह उनके अपने रंग-ढंग और अहसास की कहानियाँ हैं।

संग्रह की कहानी ‘दादी’ शायद शैलेंद्र की सबसे ज्यादा ध्यान खींचने वाली कहानी है। यह दादी की सहज और गौरवूपर्ण उपस्थिति के कारण तो आकर्षक है ही, साथ ही दादी और पोते के बीच बदल गई दुनिया को नापने के लिए ‘बेरोमीटर’ भी है। यह एक सादा, लेकिन बगैर कुछ कहे भीतर तक थरथरा देने वाली कहानी है। ऐसी कहानी जिसमें घटना-क्रम बहुत संक्षिप्त है। कथानायक को किसी सम्मेलन में भाग लेने के लिए अलीगढ़ जाना है। मैनपुरी से अलीगढ़ जाने के लिए टिकट के पैसे उसके पास नहीं हैं, तो वह दादी को चश्मा बनवाने का लोभ देकर साथ ले जाता है। लेकिन वहाँ दादी के कष्ट और सम्मेलन की व्यस्तताओं के बीच जो टकराहट होती है, वह कहानी को सहज ही यथार्थ के एक तीखे ‘नाटक’ में बदल देती है।

गंगा से कावेरी तक’ एक रेलयात्रा के ‘भोगे हुए सच’ का वर्णन है, जिसमें बाहरी कुरुपता और छि:-छि: के साथ एक भीतरी भाव-अभाव यात्रा भी लगातार चलती रहती है, जिसमें एक अजीब सी भावनात्मक खालिश बार-बार उभरती है। कथानायक इस अनकही खालिश को भूलने के लिए रास्ते में हंसराज रहबर का जो उपन्यास खरीदता है, उससे वह खलिश और उसके सवाल और उग्र हो जाते हैं और रेलयात्रा के साथ-साथ बाहर से भीतर और भीतर से बाहर आने-जाने की यह समांतर यात्रा जारी रहती है। लेकिन कहानी में यथास्थिति का वर्णन एक अतिरेक की सीमा तक पहुँच गया है, जिससे कहानी कुछ दब सी गई है।

संग्रह की दो लंबी और महत्त्वाकांक्षी कहानियाँ हैं, ‘मोहरे’ और ‘भूमिका’। इनमें ‘मोहरे’ लोकल राजनीति की चालों-कुचालों और तरह-तरह के दाँव-पेचों के बीच से गुजरकर आगे बढ़ती है। जैसा कि आमतौर से होता है, दो गुट हैं और उनका होना किसी भी और चीज से ज्यादा स्वार्थों के गठजोड़ से ज्यादा प्रभावित है। थोड़े स्वार्थ इधर-उधर खिसकाकर और थोड़ी ले-दे के बाद एक अध्यापक का चुनाव में खड़ा होना उस बासी माहौल में ताजा हवा के झोंके की तरह महसूस होता है। कुछ उम्मीदें बँधती हैं, कुछ नई गोटें बिछाई जाती हैं और अंतत: बढ़ते हुए दबाव के बीच अध्यापक के कदम पीछे हटने लगते हैं। कहानी का अंत एक नवयुवक के गुस्से से होता है, जो इस पूरे परिदृश्य पर थूक कर एक तरफ चला जाता है। यह लोकल राजनीति की तमाम तिकड़मों को परत-दर-परत खोलने वाली एक अच्छी कहानी है।

‘भूमिका’ भी लंबी कहानी है और ‘दादी’ के बाद शायद इस संग्रह की सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण और ध्यान आकर्षित करने वाली कहानी है। इसमें कथानायक एक कंपनी में अफसर हैं, लेकिन उसकी सहानुभूति गरीब कामगारों और संघर्षशील शक्तियों के साथ हैं। लिहाजा उसका झगड़ा ज्यादातर उन अफसरों से ही होता है जो कामगारों को नफरत की आँख से देखते हैं और उनके हितों के विरूद्ध काम करने में जिनका बड़प्पन प्रकट होता है। कहानी में शुरू से आखिर तक एक लगातार गहाराता हुआ तनाव है, और तनाव पैदा करने वाली स्थितियाँ इस कदर विश्वसनीय और ‘असली’ हैं कि बहुत बार लगता है, हम कहानी नहीं पढ़ रहे, किसी अंतहीन लड़ाई के मोरचे पर सीधे-सीधे उतार दिए गए हैं। बस, फर्क यह है कि यह लड़ाई कभी शीतयुद्ध में बदलती है तो कभी सीधे-सीधे मारपीट की शक्ल ले लेती है। अलबत्ता कथानायक एक छिपे हुए कायराना हमले में चोटिल होता है और इस हालत में चारपाई पर पड़े-पड़े भी, वह मजदूरों के साथ जुड़ा उनके संघर्ष को आगे बढ़ाने में जुटा हुआ है। लेकिन अंत में षड्यंत्र का सबसे बदसूरत रूप सामने आता है। कथानायक का चुपचाप तबादला कर दिया जाता है। मजदूर दुखी हैं, हताश हैं और कहानी के अंत में इस ‘त्रासदी’ के सन्नाटे को हम एक शोकधुन की तरह सुन पाते हैं। मेरे खयाल से, ‘भूमिका’ को शैलेंद्र की सर्वाधिक प्रतिनिधि कहानी कहा जाना चाहिए।

इस संग्रह में शैलेन्द्र की दो बहुत सशक्त कहानियां शामिल हैं- हम भीख नहीं मांगते और संप्रति अपौरुषेय। हम भीख नहीं मांगते उन्नीस सौ चौरासी के दंगों पर आधारित कहानी है जिसमें दंगों से प्रभावित एक सिख परिवार पर हुए हमले का सचमुच हिला देने वाला वर्णन है जो किसी संवेदनशील व्यक्ति को विचलित कर सकती है। संप्रति अपौरुषेय  एक सरकारी सार्वजनिक उपक्रम में पदस्थ भ्रष्ट परपीड़क मैनेजर और उसके मातहत इंजीनियर के तनावपूर्ण संबंधों की कथा है। यहां उस उपक्रम के आंतरिक माहौल का वास्तविक और प्रभावी वर्णन है और उसके ढांचे में व्याप्त शोषण और अन्यायपूर्ण स्थितियों को पूरी तरह खोलकर रख दिया गया है।

शैलेंद्र का कहानी कहने का ढंग कभी-कभी अमरकांत की याद दिलाता है। क्योंकि वे भी बड़ी घटनाओं या नाटकीय वृत्तांतों के बजाय छोटे-छोटे ब्योरों से बड़ा काम लेते दिखाई देते हैं। लेकिन इस कला को अभी उन्हें निखारना होगा।हालाँकि शैलेंद्र की कहानियाँ ‘कला’ के स्तर पर चाहे जैसी भी हों, उनकी ‘अनुभवों की विश्वसनीयता’ को नजरअंदाज करना मुश्किल है। फिर उनकी एक शक्ति यह भी है कि अपने अनुभव पर भरोसा करके वे उसे कहानी की शक्ल में कहते हैं, ‘कहानी जैसी कहानी’ बनाते नहीं है। इससे कहानी में और चाहे जो भी कमियाँ आती हों, पर शैलेंद्र की कहानी पूरी तरह शैलेंद्र की कहानी लगती है।
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किताब : गंगा से कावेरी
लेखक : शैलेन्द्र चौहान
मूल्य : रु 299/-
प्रकाशक : मंथन प्रकाशन, जयपुर

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