— एकांत श्रीवास्तव —
“आज यथार्थ लंबे वक्त तक यथार्थ नहीं रह पाता, अल्पायु में ही बिसर जाता है। एक रचना, एक अभिव्यक्ति, एक हंसी, एक आंसू की आयु बड़ी संक्षिप्त हो गई है।”
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“वक्त, जगहें और लोग – सबका स्मृति में रूपांतरण हो जाता है। मनुष्य की स्मृतियां काल को टक्कर देती हैं। वे काल के घमंड को तोड़ती हैं।”
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“हमारी याद में रचे बसे जीवन में अक्सर अधिक जीवन रहता है”
“सत्ताएं स्मृतियों को तबाह करती हैं। यदि उनके गुनाहों और प्रताड़ितों के दुखों का स्मरण जिंदा रहेगा तो उनकी किलेबंदी ढह सकती है। वे स्मृतियों का आखेट करती हैं।”
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उपर्युक्त उद्धरण प्रसिद्ध कथाकार व संपादक अखिलेश की नवीनतम पुस्तक अक्स से उद्धृत हैं। इनसे पुस्तक के आंतरिक कलेवर की एक झलक मिलती है। 311 पृष्ठों की यह किताब कुल 11 अध्यायों में बैठी हुई है। प्रथम अध्याय “स्मृतियां काल के घमंड को तोड़ती हैं” सैद्धांतिक है। इसमें संस्मरण और आत्मकथा के विधागत पार्थक्य और साम्य की विशद विवेचना है कि दोनों विधाएं किस तरह से एक दूसरे के इलाकों में आवाजाही करती हैं।
प्रत्येक आत्मकथा समाज-कथा भी है और प्रत्येक समाज-कथा आत्मकथा है आत्म और अनात्म यहां घुले-मिले हैं। लेकिन हिंदी के हमारे साहित्य में आत्मकथा को लेकर बड़ा संकोच है। जब तक लेखक उम्र की ढलान पर 80 पार न हो जाए, तब तक आत्मकथा नहीं लिखी जानी चाहिए – इस प्रकार की घोषित-अघोषित धारणा या प्रवृत्ति काम करती दिखाई देती है। यह संकोच इस किताब में भी दिखाई देता है। विशेषकर प्रथम अध्याय में जो भूमिका या विषय प्रवेश की तरह भी पढ़ा जा सकता है। जबकि होना यह चाहिए कि उम्र के पूर्वार्ध में आत्मकथा का एक भाग तो आ ही जाना चाहिए ताकि बचपन और कैशोर्य की स्मृतियां धूमिल न पड़ जाएं। लेखक की पहचान चाहे बन ही रही हो, एक मनुष्य और एक नागरिक की आत्मकथा भी तो हो सकती है। प्रकाशन चाहे दो चार वर्ष रोक लिया जाए। बहरहाल, अखिलेश की किताब अक्स अपनी तरह की अनूठी किताब है। इसमें संस्मरण तो हैं ही लेकिन इन्हीं स्मृतियों में लिपटकर लेखक की अपनी कथा भी चली आई है। संस्मरण तो खैर ठीक हैं लेकिन आत्मकथा की दृष्टि से यहां अखिलेश का आधा अक्स ही उजागर हुआ है। शेष बचे आधे अक्स हेतु पाठकों को प्रतीक्षा करनी होगी। फिलहाल, विधायक चर्चा को छोड़ दें तो गुणवत्ता की दृष्टि से अक्स एक यादगार किताब बन पड़ी है। अनेक कारणों से। इसे पढ़ना एक समय को जीना है।
यहां गुजर गए के प्रति धिक्कार ही नहीं है, बल्कि जिए गए जीवन पर उमड़ता हुआ प्यार भी दर्ज है। एक ओर मुक्तिबोध का धिक्कार है कि “अब तक क्या किया, जीवन क्या जिया!” तो दूसरी ओर कवि जयशंकर प्रसाद का स्मृति प्रेम भी है कि “वे कुछ दिन कितने सुंदर थे”
दरअसल व्यक्तिगत स्मृति ही दूसरे मनुष्यों की स्मृतियों से मिलकर सामाजिक और फिर जातीय स्मृति में तब्दील होती है। इतिहास व्यक्तिगत – सामाजिक स्मृतियों का ही समुच्चय है। बगैर इतिहास के वर्तमान अंधा है जो कभी अपने भवितव्य तक नहीं पहुंच सकता। स्मृतियों के प्रति पीड़ा और छटपटाहट ही अक्स जैसी कृतियों को जन्म देती है। यहां इलाहाबाद और अन्य कस्बों – शहरों के बहाने साहित्य का एक युग सांस लेता हुआ दिखाई देता है। पाठक को बहुत पीछे ले जाता हुआ और विभोर करता हुआ।
आज के तकनीकी विकास के इस उत्तर आधुनिक समय के नए लेखकों-पाठकों के लिए यह किताब एक श्वेत श्याम युगीन फिल्म की तरह है जिसमें दुख, तकलीफ, अभाव, बेरोजगारी, जिंदादिली और लेखन के सारे रंग उजागर हुए हैं। आज के ऐसे समय में जब एक बच्चा भी मोबाइल थामे हुए होश संभालता है। यहां इस किताब में एक नौजवान है जो जीवन में पहली बार लैंडफोन को देखता है और रिसीवर उठाते समय उसके हाथ कांपते हैं। आज जब आभासी दुनिया, सोशल मीडिया में कुशलक्षेम पूछने की परिपाटी है। मेल-मुलाकात तो दूर, एक लेखक दूसरे को फोन करना भी जब आवश्यक नहीं समझता, बिना किसी आवश्यक कारण के। तब अखिलेश हमें ऐसी दुनिया की याद दिलाते हैं जब एक अपेक्षाकृत वरिष्ठ कवि मान बहादुर सिंह एक युवा कथाकार अखिलेश के घर बेरोकटोक आकर अपनी लगभग 50 पृष्ठों की लंबी कविता का पाठ जोर-जोर से करते हैं कि पूरा घर और अड़ोस-पड़ोस भी सुनता है। वे नए कथाकार के हल्के संशोधन के सुझाव को सहज ही स्वीकार कर एक पैराग्राफ में किंचित परिवर्तन के बाद कुछ दिन बाद पुनः हाजिर होते हैं और सिर्फ उक्त पैराग्राफ सुनाने के बजाय 50 पृष्ठों की पूरी कविता पुनः सुनाते हैं। उनके जाने के बाद लेखक की नानी पूछती है – “वही चिजिया बार-बार क्यों सुनाते हैं?” पाठक कवि की सरलता और श्रोता कथाकार की सज्जनता पर मुग्ध होता है और नानी के सवाल पर हंसते हंसते लोटपोट भी होता है।
यह किताब हमें बताती है कि आधुनिक विकास की तथाकथित यात्रा में ये हम कहां पहुंच गए हैं कि वह जिंदादिल समाज कहीं पीछे छूट गया है और उसी के साथ पीछे छूट गई है एक साझा समाज की कशिश और उसकी डोर भी। व्यक्ति बहुत आगे आ गया है लेकिन उसकी मनुष्यता कहीं पीछे छूट गई है। वह दीपक पीछे छूट गया है जो अंधेरे में हमें रास्ता दिखाता था। आज इतनी चकाचौंध के बावजूद हर तरफ कितना अंधकार है। अखिलेश की किताब अक्स उस छूट गई मनुष्यता की खोज करती है और मूल्यों की उस गठरी को वापस लाने की वकालत भी जिसे हम अपनी सभ्यता यात्रा के किसी पड़ाव में किसी पेड़ के नीचे या नदी के तट पर बहुत पीछे छोड़ आए हैं।
दूसरा अध्याय “पिता, मां और मृत्यु” बहुत पठनीय, रोचक और मार्मिक है। लेखक की भाषा में प्रवाह है कि पाठक बहता चला जाता है जैसे कहानी पढ़ रहा हो। द्वितीय अध्याय से लगभग सभी अध्यायों में अंतिम को छोड़कर यह कथा रस पाठकों को बांधे रखता है और पन्ने दर पन्ने गुजरने के लिए बाध्य करता है। लेखक की विश्लेषण क्षमता गजब की है – “पिता और मां की मृत्यु में अंतर यह था कि पिता एक संत की तरह मरे थे, मां एक मनुष्य की तरह। पिता ने अपने गमन को स्वीकार कर लिया था। जबकि मां छटपटा रही थीं। उन्होंने मेरी कलाई अपनी हथेली से पकड़ ली थी। ना मालूम वह मेरा जाना रोक रही थीं अथवा अपना।” और अंत में निष्कर्ष वाक्य यह कि “मां और पिता के प्रस्थान के बाद हमें अनुभव होता है कि हम मृत्यु के अधिक निकट आ गए हैं।”
इस किताब को पढ़ते हुए पाठक लेखक अखिलेश के भीतर बार-बार सिर उठाते मृत्यु बोध से भी रूबरू होता है, जो बहुतों को वक्त से बहुत पहले भी जान पड़ सकता है।
“जालंधर से दिल्ली वाया इलाहाबाद” अध्याय रवींद्र कालिया की लगभग समग्र कथा को समेटे हुए है। विशेषकर इलाहाबाद में उनके जीवन और उस दौर के साहित्य के इतिहास का दिलचस्प और सूक्ष्म विवरण यहां देखने को मिलता है। ममता कालिया तथा उस दौर के अनेक प्रसिद्ध लेखकों के व्यक्तित्व के लगभग अनछुए पहलू यहां उदघाटित हुए हैं। अध्याय का अंत मार्मिक और औपन्यासिक है जो रवींद्र कालिया के निधन से संबंधित है – “अगले दिन दोपहर में घंटी बजी। कालियाजी के छोटे बेटे प्रबुद्ध का नाम मोबाइल पर दिख रहा था। मैं कांप गया। अंदर से किसी ने कहा, अफसाना खत्म हो गया। मैंने पास बैठी पत्नी से कहा, शायद बुरी खबर है। यह कहते वक्त मेरी आवाज फटी हुई थी। वैसी ही आवाज उस ओर प्रबुद्ध की भी थी।”
चौथे अध्याय “सूखे ताल मोरनी पिंहके” का शीर्षक ही अपनी खूबसूरती में पाठक को आकृष्ट करता है। यह स्वर्गीय कवि मान बहादुर सिंह पर केंद्रित है। अध्याय का शीर्षक कवि मान बहादुर सिंह की काव्य पंक्ति को बनाया गया है। यहां सिर्फ शीर्षक ही काव्यात्मक नहीं है बल्कि पूरा अध्याय काव्यात्मक है। एक कथाकार होने के बावजूद कविता के प्रति एक आत्मीय लगाव के बिना अखिलेश ऐसा अध्याय कदापि नहीं लिख सकते थे। हिंदी के अनेक कथाकारों को यह देखना चाहिए कि कथाकार होकर भी कवि और कविता से किस तरह प्रेम किया जा सकता है। जाहिर है, अपवादों को यहां भी छोड़ा जा रहा है। कवि त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल के बाद केदारनाथ सिंह के समकालीन कवि स्वर्गीय मान बहादुर सिंह हिंदी के एकमात्र ऐसे कवि थे जिनके व्यक्तित्व और कविता में गांव बोलता था। जो गांव में रहते थे और एक छोटे से लगभग गांव जैसे ही कस्बे में नौकरी करते थे। जिनका कवि जीवन और काव्य बहुतों के लिए एक आदर्श हो सकता है। लेकिन ऐसी विराट प्रतिभा का अंत त्रासद था जिसका देश भर के बौद्धिक तबकों में विरोध हुआ था। तथाकथित नगर केंद्रित आज की समकालीन हिंदी कविता की उखड़ती हुई सांसों को यदि ऑक्सीजन की आवश्यकता है तो उसे एक बार फिर गांव – कस्बों की ओर जाना होगा। चाहे गांव आज आधे ही क्यों न बच रहे हों। गांव-कस्बों की आत्मीयता, साझा समाज, मनुष्यता, प्रकृति और उसकी प्रतिरोध की क्षमता ही हिंदी कविता को पुनर्जीवन प्रदान कर सकती है। दिल्ली में ले देकर एक बार आए कवि मान बहादुर सिंह की असहज मन:स्थिति का जीवंत चित्रण अखिलेश ने किया है। लेखक की भाषा भी कवि पर लिखते हुए बहुत काव्यात्मक हो गई है। एक बानगी देखें- “उनका दुनिया से चले जाना कविता के अकाल में सूखे ताल मोरनी सरीखे पाठकों के लिए एक सांवले बादल की अनुपस्थिति है।”
पांचवां अध्याय “अब तक गीत जौन अनगावल” अपने ढंग के अलग व्यक्तित्व के धनी देवीप्रसाद त्रिपाठी पर आधारित है जो उनके बहाने समकालीन समाज, राजनीति और सत्ता के गलियारों की सैर कराता है। छठे अध्याय “भूगोल की कला” में लेखक फिर अपने आत्म की खोज में निकलता है। अपने बचपन और कैशोर्य काल के दिनों में जहां साहित्य संस्कार के आरंभिक बीज लेखक के मन में पड़े थे। पाठक एक बार फिर कादीपुर, सुलतानपुर और इलाहाबाद की सैर करता है। लेकिन इस बार कुछ भिन्न रास्तों से। सातवां अध्याय “छठे घर में शनि” लेखक की लखनऊ यात्रा और उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान में लेखक की एक पत्रिका में नौकरी के अनुभवों पर केंद्रित है। यहां उपाध्यक्ष परिपूर्णानंद वर्मा का दिलचस्प वर्णन है। लेखक के साथ उपाध्यक्ष महोदय के तीखे वैचारिक मतभेद उभरते हैं। अंत में लेखक को एक दूसरी बेहतर नौकरी मिलती है और वह उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के अपने पद से इस्तीफा दे देता है। परिपूर्णानंद की कृपा से लेखक को पहली बार पता चलता है कि उसकी कुंडली में शनि छठे घर में बैठा है।
आठवां अध्याय “एक सतत एंग्री मैन” जहां लेखक आलोचक वीरेंद्र यादव का जीवंत रेखाचित्र खींचता है तो वहीं नौवां अध्याय “जय भीम लाल सलाम” कथाकार और लेखक मुद्राराक्षस के जीवन की समग्र पड़ताल करता है। “एक तरफ राग था सामने विराग था” पुस्तक का दसवां अध्याय है जो प्रख्यात उपन्यास राग दरबारी के कथाकार श्रीलाल शुक्ल के जीवन के अनेक अनछुए पहलुओं को उदघाटित करता है।
ग्यारहवां और अंतिम अध्याय “समय ही दूसरे समय को मृत्यु देता है” एक बार फिर प्रथम अध्याय की तरह विमर्श प्रधान हो गया है। इसका स्वर जगह-जगह प्राय: दार्शनिक और वैचारिक है। यह अध्याय तत्कालीन समय, समाज, सभ्यता, राजनीति और सत्ता तंत्र के प्रति अपने विचारों को प्रकट करता है और इस तथाकथित विकास की विडंबना और अंतर्विरोधों को सामने लाता है।
कुल मिलाकर, अखिलेश की किताब अक्स लेखकों के जीवन का अनौपचारिक और आत्मीय साहित्यिक इतिहास है। यह संस्मरणात्मक और आत्मकथात्मक लेखन, व्यक्तिगत होते हुए भी सामाजिक है और हिंदी साहित्य को अनूठे ढंग से समृद्ध करता है।
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किताब – अक्स (संस्मरण)
लेखक – अखिलेश
प्रकाशक – सेतु प्रकाशन, सी-21, नोएडा सेक्टर 65, पिन-201301
[email protected]
मूल्य – 399/-