प्रतिबद्धता की पगडंडियां

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— राजकुमार जैन —

ज के राजनैतिक माहौल में जहां नेता, कार्यकर्ता दौलत व शोहरत के लिए विचारधारा और पार्टी को कपड़े बदलने की तरह इस्तेमाल करते हों, वहीं सोशलिस्ट नेता भूपेन्द्र नारायण मंडल जीवन पर्यन्त एक विचारधारा, एक पार्टी, एक झंडे को कंधे पर उठाकर, गांव-गांव घूमकर समाजवाद तथा सोशलिस्ट पार्टी का अलग जगाते रहे।

उनको डॉ. राममनोहर लोहिया की इच्छानुसार 1959 में चिन्नमिलाई (तमिलनाडु) में सोशलिस्ट पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया। उनकी शख्सियत का इससे बड़ा तमगा और क्या हो सकता है?

समाजवादी होने के कारण मैंने उनका नाम तो सुन रखा था परंतु 1968 में मैंने पहली बार दिल्ली में उन्हें एक जनसभा में बोलते सुना था। दिल्ली की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी कई तरह के फ्रंट, मोर्चे, यूनियन बनाकर कार्य करती थी। मसलन दिल्ली में एक यूनियन ‘रेहड़ी, पटरी, खोमचा यूनियन’ नाम से थी। इसी तरह एक यूनियन ‘झुग्गी-झोपड़ी अनधिकृत कालोनी बचाओ मोर्चा’ के नाम से संघर्ष करती थी। उस दौर में दिल्ली का कोई सोशलिस्ट लोकसभा या राज्यसभा में सदस्य नहीं था। हालांकि 1952 में दिल्ली की विधानसभा में सोशलिस्ट पार्टी के दो मेंबर मीर मुश्ताक अहमद और बी.डी.जोशी जीत कर आ गए थे। सोशलिस्ट पार्टी चूंकि गरीबों की लड़ाई लड़ती थी, दिल्ली के मसलों पर जब भी कोई बहस संसद में होती थी तो उस वक्त दिल्ली के सोशलिस्ट नेता बिहार, उत्तर प्रदेश के सोशलिस्ट सदस्यों की मार्फत अपनी बात उठाते तथा मनवाते थे।

इसी तरह का एक मसला दिल्ली में झुग्गी-झोपड़ी का होता था। इस सिलसिले में दिल्ली के सोशलिस्ट मंडलजी से मिलते रहते थे। मंडलजी मुसलसल दिल्ली के गरीबों की आवाज संसद में उठाते रहते थे। राज्यसभा में 25 जुलाई 1968 को जब सरकार ने ग्रेटर दिल्ली प्लान के लिए पब्लिक प्रिमिसेज एक्ट में संशोधन के लिए विधेयक पेश किया तो भूपेन्द्र बाबू ने उसका विरोध करते हुए कहा था पब्लिक….दायरे को बढ़ाने का विरोध करता हूं क्योंकि इसके जरिए जो यहां के छोटे लोग हैं, जो दूर-देहात से यहां आते हैं और यहां आकर अपनी कमाई का जो इंतजाम करते हैं, उसके लिए उन्हें दिल्ली में रहना पड़ता है, वे झुग्गी-झोपड़ी बनाकर रहते हैं। उन लोगों को उजाड़ने के लिए इसमें पॉवर देने का इंतजाम है। इसलिए मैं इसका विरोध करता हूं। ….प्रशासन द्वारा रातोरात झुग्गी उजाड़ दी जाती है….इस बिल के द्वारा गरीब लोगों को अपनी गुजर-बसर करने से आप रोक रहे हैं। यह चीज संविधान के खिलाफ है, इसलिए मैं इसका विरोध करता हूं।

दिल्ली में पहले विधानसभा थी परंतु उसको भंग कर दिया गया था। उसका विरोध करते हुए मंडलजी ने 25 अगस्त 1972 को राज्यसभा में कहा कि केंद्र सरकार यहां पर विधानसभा इसलिए बनाना नहीं चाहती है कि वह समझती है कि अगर इस प्रकार का अधिकार दे दिया जाएगा तो उसके हाथ से दिल्ली का अधिकार चला जाएगा….दिल्ली में इतनी तरक्की हुई है कि कनाट प्लेस में पत्थर के फव्वारे लग गए हैं। इन चीजों को देखकर मैं खुश नहीं होता क्योंकि आज भी हिंदुस्तान की जनता गिरी हुई हालत में पड़ी हुई है। मैंने एक गीत सुना है, और हमारी पार्टी के जलसों के शुरू में वह गीत गाया जाता है-

“अमीरों के घर गरीबों के फाँसीघर हैं” यह गीत हम सुना करते थे। जब-जब मैं उन बड़े घरों को देखता हूं तो बड़ी झुंझलाहट होती है और वह गीत याद आता है।

गरीबों के इन सवालों पर दिल्ली के सोशलिस्ट विरोध प्रकट करने के लिए लगातार जलसे, प्रदर्शन, धरना करते रहते थे। ऐसे दो-तीन जलसों में भूपेन्द्र बाबू को भाषण देते हुए मैंने रूबरू देखा था परंतु उनसे मेरी मुलाकात डॉ. लोहिया के निजी सचिव रहे उर्मिलेश झा जी की मार्फत दिल्ली के विट्ठलभाई पटेल भवन में सोशलिस्ट पार्टी के कार्यालय में हुई थी। उर्मिलेश झा जी ने मंडलजी का परिचय देते हुए बड़ी तारीफ की थी। हालांकि उर्मिलेश जी किसी की तारीफ मुश्किल से करते थे। इसके बाद मधु लिमये जी के घर पर उनसे कई बार मुलाकात हुई। बातचीत में उन्होंने सोशलिस्ट पार्टी के इतिहास, वैचारिक प्रासंगिकता के साथ-साथ उसके विचलन तथा कमजोरियों पर प्रकाश डाला था। उनके ज्ञान, सादगी, वैचारिक प्रतिबद्धता का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था।

आज भी बिहार में सोशलिस्ट विचारधारा में यकीन रखनेवाले जो पुराने कार्यकर्ता मिलते हैं और जिनके बल पर बिहार की राजनीति में सोशलिस्टों की किसी न किसी रूप में मौजूदगी दिख जाती है, वह मंडलजी जैसे सोशलिस्टों के त्याग, मेहनत, पार्टी प्रतिबद्धता के कारण ही है।

सत्रह वर्ष की उम्र में स्वतंत्रता संग्राम में विद्यालय बहिष्कार आंदोलन में भाग लेने के कारण, विद्यालय से निष्कासन से लेकर 1942 में महात्मा गांधी के आह्वान पर हुए ‘अंग्रेजो, भारत छोड़ो आंदोलन’ में भाग लेने के कारण दो बार उनको कारावास हुआ।

मंडलजी ने आचार्य नरेन्द्रदेव, जयप्रकाश नारायण, डॉ. राममनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन, यूसुफ मेहर अली द्वारा स्थापित कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की रहनुमाई में अपनी जो समाजवादी वैचारिक यात्रा शुरू की थी वो 29 मई 1975 को अंतिम सांस लेने तक जारी रही थी। आजाद भारत में सोशलिस्ट पार्टी के आंदोलनों में भागीदारी के कारण चार बार जेल यात्रा उन्होंने की। बिहार विधानसभा में सोशलिस्ट पार्टी के एकमात्र सदस्य के रूप में 1957 में वे निर्वाचित हुए। 1962 में लोकसभा सदस्य बने, 1970 तथा 1972 में राज्यसभा के भी सदस्य रहे।

मंडलजी एक सत्याग्रही जमीनी कार्यकर्ता होने के साथ-साथ वैचारिक रूप से कितने सुदृढ़ थे इसका पता लोकसभा, राज्यसभा में समय-समय पर उनके द्वारा विभिन्न विषयों पर दिए गए भाषणों से चलता है। किसी भी इंसान की असली परीक्षा तब होती है, जब उसको पद-प्रतिष्ठा, सत्ता, धन-दौलत येनकेन प्रकारेण मिल रहा हो उस समय वह सत्य, सिद्धांत, नीति का पालन करता हुआ उसका परित्याग कर दे। भूपेन्द्र नारायण मंडल जी के संदर्भ में अनेक ऐसे उदाहरण मिलते हैं जब उन्होंने त्याग का परिचय दिया।

बिहार सोशलिस्ट आंदोलन के प्रमुख नेता उर्मिलेश झा जी ने अपने एक साक्षात्कार ‘लोहिया की कहानी उनके साथियों की जुबानी’ में दर्ज करवाया है कि उन दिनों सोशलिस्ट पार्टी का नियम था कि कोई व्यक्ति एक जगह (लोकसभा, विधानसभा, विधान परिषद) का सदस्य हो तो उसको दूसरी जगह का चुनाव नहीं लड़ना चाहिए। बिहार में संविद सरकार का गठन हो रहा था। बैठक में यह तय होना था कि कौन-कौन मंत्री बनेंगे। कर्पूरी ठाकुर ने कहा कि एक यादव लीडर को भी बिल्डअप करना चाहिए जो कांग्रेस के रामलखन यादव के मुकाबले में हम लोगों की भी लीडरशिप हो। अच्छा हो कि भूपेन्द्र नारायण मंडल जी मंत्री बन जाएं। तत्काल भूपेन्द्र नारायण मंडल जी ने कहा कि मैं राज्यसभा का सदस्य हूं, मैं डॉ. लोहिया और सोशलिस्ट पार्टी के दिमाग (नीति) को जानता हूं, इसलिए मेरा कोई सवाल ही नहीं उठता मंत्री बनने का। उसी वक्त एक अन्य नेता बिन्देश्वरी प्रसाद मंडल, जो लोकसभा सदस्य थे, उनका नाम बिहार पार्टी ने केन्द्रीय पार्टी में मंजूरी के लिए भेज दिया। डॉ. लोहिया कहां माननेवाले थे? बिन्देश्वरी प्रसाद मंडल ने पाला बदलकर अपना शोषित दल बनाकर कांग्रेस के सहयोग से अपनी मंत्रिमंडल बना लिया।

बिहार के रानीपट्टी गांव में अत्यंत संपन्न जमींदार परिवार में जनमे मंडल जी जीवन-भर बिहार के गांव-देहात की पगडंडियों पर पैदल चलकर सोशलिस्ट पार्टी का संगठन खड़ा करने में लगे रहे और अंत में मृत्यु के समय अपने गांव रानीपट्टी पहुंचकर नजदीक के टेंगराहा में अपने स्नेही नंदबाबू के घर जाने के लिए बैलगाड़ी से निकल पड़े, वहीं पर उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया।

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