— प्रभात कुमार —
ब्रह्म बाबा गांव में बरगद के पेड़ को कहा जाता है। प्रखर समाजवादी नेता रघुवंश प्रसाद सिंह इसी नाम से जाने जाते रहे। प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का चुनाव चिह्न था बरगद। समाजवादी नेता रघुवंश प्रसाद सिंह का राजनीतिक सफर इसी पार्टी के साथ शुरू हुआ था। 1973 में जननायक कर्पूरी ठाकुर ने उन्हें पार्टी का सचिव बनाया था। वह पहली बार 1977 में जनता पार्टी के टिकट पर सीतामढ़ी जिले के बेलसंड विधानसभा क्षेत्र से विजयी हुए और कर्पूरी सरकार में ऊर्जा राज्यमंत्री बने।
जब 1975 में आपातकाल के दौरान उन्हें मुजफ्फरपुर सेंट्रल जेल से पटना के बांकीपुर सेंट्रल जेल में स्थानांतरित किया गया तब उनकी मुलाकात छात्रनेता लालू प्रसाद यादव से हुई। फिर दोनों में निकटता बढ़ी। वह जननायक कर्पूरी ठाकुर के निधन के बाद से राजनीति में 32 सालों तक लालू प्रसाद यादव के साथ बने रहे। उनके काफी प्रिय रहे। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव उन्हें ब्रह्म बाबा कहकर पुकारते थे। दोनों के बीच प्रगाढ़ संबंध रहा। वैसे, अपने जीवन की अंतिम सांस लेने से पहले वह उनसे अलग हुए लेकिन किसी दल में नहीं जा सके। फिर जीवन को ही अलविदा कह दिया।
वह कोई तीन साल पहले 74 वर्ष की आयु में लोगों से अलविदा हुए। वह आज हमारे बीच नहीं हैं। फिर भी उनकी यादें हरी-भरी हैं। प्रखर समाजवादी नेता व भारत सरकार में ग्रामीण विकास मंत्री रहे डॉ. रघुवंश प्रसाद सिंह का जीवन कीचड़ में कमल की तरह रहा। वह हमेशा बेबाक और बेदाग रहे।
रघुवंश बाबू का जन्म 6 जून 1946 को समस्तीपुर के पितौझिया ग्राम में हुआ था जिसे अब कर्पूरी ग्राम के नाम से जाना जाता है। वह जननायक कर्पूरी ठाकुर की जन्मभूमि पर जनमे थे। कर्पूरी ग्राम में उनका ननिहाल है। इसकी पुष्टि डॉ सिंह के पुत्र सत्यप्रकाश भी करते हैं। उनके पिता का नाम रामवृक्ष सिंह और माता का नाम जानकी देवी था। उनकी पत्नी का नाम मुद्रिका देवी उर्फ किरण सिंह था। जो हाल में ही उनकी शादी के कार्ड से पता चला है। पासपोर्ट पर उनकी पत्नी का नाम किरण सिंह दर्ज है।
प्रोफेसर डॉ. रघुवंश प्रसाद सिंह की जिंदगी एक शिक्षक से शुरू हुई और राजनीति के एक शिखर पर समाप्त हुई। उनकी प्राथमिक शिक्षा तत्कालीन मुजफ्फरपुर जिले के महनार थाना अंतर्गत पैतृक गांव शाहपुर के निकट चरहरारा मिडिल स्कूल से हुई। हाई स्कूल की शिक्षा भी इसी गांव से ली थी। इसके बाद छपरा के राजेंद्र कॉलेज से इंटर और साइंस ऑनर्स की परीक्षा प्रथम श्रेणी से पास की। फिर बिहार विश्वविद्यालय के गणित विभाग से गणित में मास्टर डिग्री की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की। सीतामढ़ी गोयनका कॉलेज में गणित विभाग के शिक्षक बने। फिर पीएचडी की।
वह मध्यम परिवार से आते थे। यही कारण है कि उनका दाखिला कॉलेज में इंग्लैंड में नहीं हो सका। उनके परिजन लीड्स यूनिवर्सिटी में उनका दाखिला कराना चाहते थे लेकिन 800 पाउंड न होने के कारण वह प्रवेश नहीं ले सके थे। यह बात उनके जेष्ठ पुत्र सत्यप्रकाश बताते हैं। वह कहते हैं कि मेरे पिता अच्छे खाते-पीते घर के थे लेकिन राजनीति के कारण उनका मकान नहीं बन सका। मुजफ्फरपुर उनकी कर्मभूमि रही। जहां अभी भी विश्वविद्यालय परिसर के निकट दो कट्ठे प्लॉट है। जहां वह वैशाली से चुनाव हारने के बाद एक छोटी कुटिया खड़ा करना चाहते थे। जो संभव नहीं हो सका। सत्यप्रकाश कहते हैं कि पिताजी ने जो राजनीति में अपनी गाढ़ी कमाई लगाई उसकी वापसी सीतामढ़ी जिले के बेलसंड विधानसभा क्षेत्र की जनता हो या वैशाली संसदीय क्षेत्र के भाई-बहन ने अपने प्रेम-स्नेह से कर दी लेकिन शेष-अशेष रहा।
डॉ. रघुवंश प्रसाद सिंह बेलसंड से लगातार 5 विधायक रहे। एक बार हारे तो विधान परिषद के सदस्य बने। फिर वैशाली संसदीय क्षेत्र से जनता दल के शिवशरण सिंह के निधन के बाद 1996 में पहली बार सांसद बने। केंद्र में पहली बार डेयरी एवं पशुपालन विभाग के राज्यमंत्री बने। फिर 2014 तक वैशाली का प्रतिनिधित्व करते रहे। पांच बार सांसद रहे। 2004 में डॉ मनमोहन सिंह की सरकार में केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री बने। वह एक बार 1991 में विधान परिषद के सभापति भी बने और 1990 में विधानसभा के उपाध्यक्ष भी रहे। जननायक कर्पूरी ठाकुर के साथ समाजवादी आंदोलन में और फिर जेपी आंदोलन में भी खासे सक्रिय रहे। कई बार जेल भी गए।
मनरेगा मैन और मनरेगा बाबा भी कहलाए
वह जब 2004 में डॉ मनमोहन सिंह की सरकार में ग्रामीण विकास मंत्री बने तो फरवरी 2006 में महात्मा गांधी रोजगार गारंटी योजना को देश के 200 पिछड़े जिलों में लागू किया। फिर पूरे देश में व्यापक अमलीजामा पहनाया। मजदूरों को 200 दिनों के न्यूनतम रोजगार की गारंटी देकर दो वक्त की रोटी के लिए एक सफल योजना की नींव रखी। इसके कारण मनरेगा मैन और मनरेगा बाबा के नाम से भी चर्चित हुए। उनके निजी सचिव रहे वरिष्ठ आईएएस अधिकारी अमृतलाल मीणा कहते हैं कि उनके मंत्री बनने से पहले गरीबी उन्मूलन और रोजगार की केंद्र में कई योजनाएं चल रही थीं। नेशनल एंप्लॉयमेंट स्कीम, काम के बदले अनाज योजना, इस तरह की और भी कई योजनाओं को एक कर रघुवंश बाबू ने महात्मा गांधी रोजगार गारंटी योजना की शुरुआत की। यह काफी लोकप्रिय और उपयोगी साबित हुई।
रघुवंश बाबू के काफी करीब रहे वरिष्ठ पत्रकार जयशंकर गुप्त बताते हैं कि मनरेगा की लोकप्रियता भी 2009 में डॉ. मनमोहन सिंह सरकार की वापसी का कारण रही। यही कारण है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह चाहते थे कि डॉ. रघुवंश प्रसाद सिंह उनके मंत्रिमंडल में बने रहे। राष्ट्रीय जनता दल ने सरकार से अलग रहने का फैसला किया था। राजद का सरकार को बाहर से समर्थन था, जिससे वह सरकार में शामिल नहीं हुए। वह बिहार में लोहिया, जयप्रकाश एवं कर्पूरी के रास्ते पर चलने वाले समाजवादियों की अंतिम कड़ी थे।
हमेशा बेबाक और बेदाग रहे
एएन सिन्हा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज के पूर्व निदेशक डॉ. डीएम दिवाकर कहते हैं कि वह बेबाक अपनी बात रखने के लिए जाने जाते थे। पार्टी की बैठक या पत्रकारों से बातचीत के क्रम में खुलकर बोलते थे। रघुवंश बाबू के गोयनका कॉलेज से ही साथ रहे और अंत तक उनके निजी सहायक हरेश कुमार सिंह कहते हैं कि अपने अंतिम समय में वह दुखी थे। अपनों से मिले पराजय का उन्हें काफी मलाल था। लेकिन वह काजल की कोठरी में रहकर हमेशा बेदाग रहे। उनकी ईमानदारी का कायल हूं।
नहीं सह सके ठेस, जीवन को ही अलविदा कह दिया
समाजवादी नेता डॉ. हरेंद्र कुमार कहते हैं कि रघुवंश बाबू अपने जीवन के अंतिम समय तक राजद के वफादार सिपाही बने रहे, लेकिन जब ठेस लगी तब एक वाक्य…. अब नहीं’ के साथ पार्टी छोड़ दी। फिर जीवन को ही अलविदा कह दिया। किसी अन्य दल में शामिल नहीं हुए। यह उनका अपने दल के प्रति त्याग और समर्पण रहा। राजद के वरिष्ठ नेता एवं वरीय चिकित्सक डाॅ.निशींद्र किंजल्क कहते हैं कि वह बेहद सहज, सादगी पसंद, सरल हृदय के नेता थे। उनकी दृष्टि हमेशा व्यापक और सामाजिक रही। वह किसी भी चीज का व्यापक अध्ययन करते थे। अध्ययन में उन्हें काफी रुचि थी।
अंत तक नहीं टूटा गरीबों से नाता
राष्ट्रीय जनता दल के प्रदेश प्रवक्ता रहे डॉ. इकबाल मोहम्मद शमी कहते हैं कि रघुवंश बाबू में दो और खास बात थी। वह कहते थे कि ‘जात न पूछो साधु’ की। दूसरी बात यह थी कि वह हमेशा संबंध को बहुत तरजीह देते थे। कहते थे कि ‘ऐले-गेले खयले-पिले’ ही आदमी का संबंध प्रगाढ़ होता है। अंत-अंत तक गरीबों की खटिया, भूजा-सत्तू से उनका नाता नहीं टूटा। उनकी सादगी और सहजता हमेशा ही बनी रही।