हमारा समय, हमारे सामने खड़ी चुनौतियाँ और विकल्प

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Ravi Kiran Jain
— रविकिरण जैन —

हिन्दुस्तान के आजादी के शुरुआती साल बेहद चिंता और कठिनाइयों के थे। जवाहरलाल नेहरू भारत के प्रधानमंत्री बने और उन्होंने 16 साल तक देश की बागडोर सँभाली। नेहरू ने 1960 के दशक में संसदीय लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और विज्ञान तथा टेकनोलॉजी को आगे बढ़ाया। 26 जनवरी 1950 को भारत का गणतंत्रात्मक संविधान अस्तित्व में आया। नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस ने इस संविधान को लागू किया, और देश में संसदीय तथा राज्य विधानसभा चुनाव एकसाथ होने शुरू हुए। शुरुआत में ये चुनाव अधिकांशतः निष्पक्ष और स्वतंत्र थे। इस तरह भारत की जनता को कांग्रेस ने एक महान भेंट दी। जो थी, उम्मीद की विचारधारा।

सन् 1950 और 1960 के दशकों की कांग्रेस को लोकतंत्र की पाठशाला के रूप में समझा जा सकता है। इस दौर में भारतीय जनता ने स्वतंत्रतापूर्वक मतदान करना और निर्बाध अपनी राय रखना सीखा। उसने न्यायपालिका, स्वतंत्र प्रेस, चुनाव आयोग जैसी नियमबद्ध और नियम-आधारित संस्थाओं के जरिए निर्वैयक्तिक (इम्पर्सनल) शासन-व्यवस्था का निर्माण करना सीखा। इन दो दशकों के दौरान पूरे देश में लोकतंत्र और राष्ट्रीय एकता की विशेषताओं पर गंभीर बहसें हुईं। सन् 1952 से लेकर 1962 के बीच में नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस ने चुनाव में लगातार जीत हासिल की।

सन् 1964 में नेहरू की मृत्यु हो गई। उसके बाद लालबहादुर शास्त्री देश के प्रधानमंत्री बने। उनकी भी 1966 में मृत्यु हो गई। उसके बाद श्रीमती इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री बनीं।

इलस्ट्रेशन countercurrents से साभार

सन् 1967 के आम चुनाव इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व में हुए। इस चुनाव में कांग्रेस को सन् 1962 की तुलना में 25 सीटें कम मिलीं। विधानसभाओं में भी कांग्रेस ने 264 सीटें गँवा दीं। उसने 8 राज्यों में भी अपना बहुमत खो दिया। इस चुनाव में कांग्रेस को हुआ नुकसान कांग्रेस-विरोधी लहर का नतीजा था।

इस दौर में चुनावों में अधिक पैसों की जरूरत नहीं पड़ती थी। राजनीति जनसेवा का जरिया थी। चुनाव राजनीतिक दलों की विचारधाराओं के आधार पर लड़े जाते थे। लेकिन अब स्थिति बदलने लगी थी। सन् 1967 के नतीजे इसी ओर इशारा कर रहे थे। बहुत लोगों को स्पष्ट होने लगा था कि अगले चुनाव में कांग्रेस केन्द्र और कई राज्यों में सत्ता से बाहर हो जाएगी।

सन् 1969 में इंदिरा गांधी ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को दो हिस्सों में बाँट दिया। इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाला हिस्सा कांग्रेस (आई) और दूसरा हिस्सा कांग्रेस (ओ) कहलाया। कांग्रेस (ओ) में उस समय के कांग्रेस के दिग्गज शामिल थे। सन् 1977 में कांग्रेस (ओ) जनता पार्टी में शामिल हो गयी और उसके बाद उसका अस्तित्व समाप्त हो गया।

श्रीमती इंदिरा गांधी एक चतुर राजनीतिज्ञ थीं। उन्होंने जल्दी ही गरीबी को लेकर जनता की बेसब्री को महसूस कर लिया, और 1971 में गरीबी हटाओ का नारा दिया। यह एक भ्रामक नारा था। अभी तक देश में संसद और विधानसभाओं के चुनाव एकसाथ कराए जाते थे। इंदिरा गांधी ने आश्चर्यजनक रूप से संसद का चुनाव एक वर्ष पूर्व, यानी 1971 में ही करा दिया। इस चुनाव में इंदिरा गांधी ने बड़े पैमाने पर पैसे का इस्तेमाल किया। यह पहली बार था जब इस पैमाने पर पैसा खर्च किया गया था। इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस (आई) ने प्रचण्ड बहुमत हासिल किया जिसमें उसे 352 सीटें हासिल हुईं। इस चुनाव ने विचारधारात्मक आधार पर राजनीतिक ध्रुवीकरण की प्रक्रिया को गंभीर क्षति पहुचाई।

सन् 1971 के बाद घटनाओं की एक श्रृंखला है जिसकी परिणति 6 दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद के ध्वंस के रूप में हुई। इस घटना ने दिखलाया कि दोनों राजनीतिक पार्टियों- कांग्रेस और भाजपा- के पास कानून का राज्य और देश की न्यायिक संस्थाओं के प्रति बहुत कम सम्मान था।

दोनों राजनीतिक पार्टियाँ–  कांग्रेस और भाजपा- चाहती थीं कि न्यायपालिका कमजोर रहे। वे कोशिश करती रहीं कि न्यायालय उनकी सरकारों के आज्ञाकारी रहें। दोनों ने भारतीय राज्य के तीनों अंगों के बीच के शक्ति-संतुलन को गड़बड़ा दिया। दोनों दल संविधान के मूलभूत ढाँचे को बदलना चाहते थे। श्रीमती इंदिरा गांधी ने केशवानंद भारती केस में मूलभूत ढाँचे के सिद्धांत के पक्ष में फैसला देनेवाले सर्वोच्च न्यायालय के तीनों वरिष्ठ न्यायमूर्तियों की वरिष्ठता को नजरअंदाज कर चौथे नंबर के न्यायमूर्ति अजीत नाथ रे को भारत का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया।

सन् 1971-77 के दौरान श्रीमती इंदिरा गांधी ने एक निरंकुश शासक की तरह शासन किया। माना जाता है कि 23 मार्च, 1977 को देश को निरंकुशवाद से मुक्ति मिली। इसी दिन इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेन्सी समाप्त करने की घोषणा की। 1977 के चुनाव में इंदिरा गांधी को करारी हार मिली और पहली बार केन्द्र में गैरकांग्रेसी, जनता पार्टी की सरकार अस्तित्व में आयी।

जनता पार्टी की सरकार अपने अंदरुनी अन्तर्विरोधों के कारण चल नहीं पायी, और सन् 1979-80 में संसद के मध्यावधि चुनाव हुए। इस चुनाव में श्रीमती इंदिरा गांधी को सफलता मिली और 1980 में वो फिर सत्ता में लौट आयीं। उनके सत्ता में लौटने से निरंकुशवाद (एथॉरिटिरिनिज्म) फिर लौट आया।

सन् 1984 में श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या हो गयी। उसके तुरंत बाद राजीव गांधी को प्रधानमंत्री की गद्दी सौंप दी गयी। इसी वर्ष संसदीय चुनीव हुए जिसमें राजीव गांधी को अभूतपूर्व सफलता मिली। इस चुनाव में कांग्रेस को 404 सीटें मिलीं, जबकि भाजपा को केवल 2 सीटें ही मिल सकीं।

इसी समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने अयोध्या में भव्य राम मंदिर बनाने के लिए आंदोलन की शुरुआत की, और 1985 तक हिंदू समुदाय में अच्छा खासा समर्थन हासिल कर लिया। जनवरी 1986 में बाबरी मस्जिद का ताला हटाया गया और रामभक्तों को रामलला की पूजा की इजाजत दे दी गयी। ऐसा कहा जाता है कि प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने मुख्यमंत्री वीरबहादुर सिंह को मस्जिद का ताला खुलवाने का आदेश दिया, और वीर बहादुर सिंह ने फैजाबाद जिला प्रशासन के जरिए उसे खुलवा दिया।

साफ, है कांग्रेस और भाजपा, दोनों ने हिंदुओं में सांप्रदायिक भावनाओं को भड़काकर उसका सियासी फायदा उठाने के लिए आपस में होड़ शुरू कर दी। सन् 1988 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेतृत्व में हिन्दुत्ववादी संगठनों ने, जहाँ बाबरी मस्जिद खड़ी थी, ठीक वहीं रामलला का मंदिर बनाने के लिए जनांदोलन की शुरुआत कर दी। उन्होंने दावा किया कि जहाँ बाबरी मस्जिद मौजूद है, ठीक वहीं राम पैदा हुए थे। इस समय तक (01.07.1989) अयोध्या मामले में पाँचवाँ (अंतिम) वाद अदालत में दाखिल हो चुका था। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने अपने आदेश के जरिए इस मामले में दाखिल पाँचो वादों को न्यायालय की पूर्ण पीठ को परीक्षण (ट्रायल) के लिए सौंप दिया। अब तक देश का राजनीतिक माहौल इतना बदल चुका था कि उसे पहचानना मुश्किल हो गया।

17 अगस्त 1989 को भारत के तत्कालीन गृहमंत्री बूटा सिंह ने विश्व हिन्दू परिषद (विहिप) के साथ एक समझौते पर दस्तखत किए। इस समझौते के तहत मंदिर बनाने के लिए पूरे उत्तर प्रदेश से बिना किसी रुकावट के ईंटें लायी जाएंगी, और उन्हें मस्जिद के प्लाट नं. 586 में रखा जाएगा। यह समझौता इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 14 अगस्त के आदेश का उल्लंघन था, जिसके तहत विवादित जगह पर किसी प्रकार की निर्माण गतिविधियों पर रोक लगी थी।

बाद में विश्व हिन्दू परिषद ने घोषणा की कि राम मंदिर की बुनियाद रखने के लिए कारसेवा की जाएगी। यह भी दो दिन पहले दिए गए फैसले का उल्लंघन था। क्योंकि यह फैसला किसी भी ऐसी गतिविधियों का निषेध करता था। न्यायालय के आदेशों के लगातार उल्लंघन को प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कोई महत्त्व नहीं दिया। खुद राजीव गांधी ने अगले दिन कांग्रेस पार्टी के चुनाव अभियान की शुरुआत फैजाबाद से की। और घोषणा की कि कांग्रेस पार्टी का उद्देश्य रामराज्य की स्थापना करना है। इसके तुरंत बाद, भाजपा अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने पालमपुर में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के बाद कहा कि भाजपा के घोषणापत्र में राममंदिर के निर्माण को शामिल करने से उसके वोट बढ़ेंगे। इससे स्पष्ट है कि कांग्रेस और भाजपा, दोनों पार्टियाँ, राम मंदिर के मुद्दे पर होड़ लगा रही थीं। कांग्रेस और भाजपा की इस होड़ में राजीव गांधी की हार हुई और आडवाणी की जीत हुई।

अगले चुनाव नवंबर 1989 में होने थे। इस चुनाव में कांग्रेस को केवल 197 सीटें हासिल हुईं, जबकि 1984 के चुनावों में उसे 404 सीटें मिली थीं। दूसरी ओर, भाजपा को 85 सीटें मिलीं, जबकि 1984 में उसे मात्र दो सीटें मिली थीं। इस तरह 1989 में फिर एक बार गैरकांग्रेसी सरकार सत्ता में आयी।

सांप्रदायिक राष्ट्रवाद का खतरा, जिसे संघ परिवार और भाजपा आगे बढ़ा रहे हैं, भारतीय लोकतंत्र पर मँडरा रहे उस व्यक्तिगत निरंकुशवाद से कहीं बड़ा खतरा है जिसे इंदिरा गांधी ने इस देश पर थोपा था। भाजपा सहित हिन्दुत्ववादी शक्तियों द्वारा बाबरी मस्जिद को गिराकर श्रीरामलला मंदिर के निर्माण का आंदोलन खुले तौर पर हिन्दुओं को उकसाने का आंदोलन था कि वे मुसलमानों को अपमानित करें। 6 दिसंबर 1992 के दिन बाबरी मस्जिद के ध्वस्त होने की मुख्य वजह थी, केंद्र में नरसिंह राव की सरकार द्वारा तथाकथित कारसेवकों के खिलाफ कोई कड़ा कदम न उठाना, क्योंकि वो हिन्दू मतों को नाराज नहीं करना चाहते थे।

पीछे नजर डालने पर हम पाते हैं कि देश के लोगों में सन् 1952 से, जब स्वतंत्र भारत के पहले चुनाव हुए, राजनीतिक प्रक्रिया में भाग लेने की चाहत थी। यह 1967 तथा बाद में 1977 के चुनावों से भी स्पष्ट था। इस समय आम आदमी भी चुनाव लड़ने और जीतने की उम्मीद कर सकता था। क्योंकि अभी तक चुनावी राजनीति जातिवाद, सांप्रदायिकतावाद और अपराधीकरण के चंगुल में नहीं फँसी थी। लेकिन 1989 आते-आते भारतीय राजनीति इन कुचक्रों में फँस चुकी थी।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अयोध्या मामले में विवादास्पद फैसला 9 नवंबर 2019 के दिन आया। हाल में गृहमंत्री अमित शाह ने घोषणा की है कि 1 जनवरी 2024 तक मंदिर-निर्माण पूरा कर लिया जाएगा। अर्थात 2024 के चुनाव में भाजपा यह दावा करेगी कि श्रीराम मंदिर का निर्माण उसकी कोशिशों का नतीजा है। और वह इस चुनाव में इसे बड़ी उपलब्धि के तौर पर पेश करेगी। इस तरह भाजपा बाबरी मस्जिद के मुद्दे को जिंदा रखे हुए है, जबकि कांग्रेस दौड़ से बाहर है।

संविधान पीठ में, जिसने अयोध्या मामले में फैसला दिया, शामिल थे – न्यायमूर्तिगण रंजन गोगोई (मुख्य न्यायाधीश), बोबडे, एस. अब्दुल नजीर, अशोक भूषण और डीवाई चंद्रचूड़।

मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई को राज्यसभा के सदस्य के रूप में नामित किया गया। न्यायमूर्ति एस. अब्दुल नजीर को हाल में उनकी सेवानिवृत्ति के एक महीने के अंदर आंध्र प्रदेश का राज्यपाल बना दिया गया है। वर्तमान में न्यायमूर्ति अशोक भूषण नेशनल कंपनी लॉ अपीलेट ट्रिब्यूनल के अध्यक्ष के रूप में काम कर रहे हैं। इन न्यायमूर्तियों को, जिन्होंने इस मामले में सरकार के पक्ष में फैसला दिया, सेवानिवृत्ति के बाद पहुँचाये गए फायदे हैं।

नेशनल ज्यूडिशियल एप्वाइंटमेंट कमीशन (एनजेएसी) मामले में फैसला 16 अक्टूबर 2015 को आया। दुर्भाग्यपूर्ण है कि जब तक न्यायमूर्ति एनवी रमन्ना ने भारत के मुख्य न्यायाधीश का पद नहीं सँभाला, कम से कम चार ऐसे मुख्य न्यायाधीश रहे, जिन्हें सरकार के पक्ष में खड़ा पाया गया। उन मामलों में भी, जिनमें आम व्यक्ति के मौलिक अधिकार और नागरिक स्वतंत्रता पर हमले विवाद के केंद्र में थे, तथा असहमति का यूएपीए और राजद्रोह जैसे क्रूर कानूनों के जरिए दमन किया गया था। जब न्यायमूर्ति रमन्ना ने मुख्य न्यायाधीश के रूप में पदभार ग्रहण किया तो न्यायपालिका पर विश्वास थोड़ा बहाल हुआ। उनके कार्यकाल के दौरान उच्चतम न्यायालय राजद्रोह के कानून पर पुनः विचार करने को राजी हुआ और उसने सरकारों से कहा कि वे उपरोक्त कानूनों के तहत एफआईआर दर्ज न करें।

मुख्य न्यायाधीश यूयू ललित ने, जिनका कार्यकाल तीन महीने से कम रहा, केसों की लिस्टिंग प्रक्रिया में बहुप्रतीक्षित सुधार के लिए ईमानदाराना कोशिशें कीं, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि अहम मुकदमे अब और अधिक समय तक प्रतीक्षा सूची में न रहें और उन्हें जल्द सुना जाए। वर्तमान मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ को मौलिक अधिकारों और नागरिक स्वतंत्रताओं के प्रति प्रतिबद्धता के लिए जाना जाता है। सरकार को तब तक कोई दिक्कत नहीं थी जब तक उच्चतम न्यायालय उसकी मर्जी मुताबिक चलता दिखाई दे रहा था। अब जब स्थिति थोड़ी बेहतर हो रही है तो अधिक मजबूत न्यायपालिका भयभीत होते हुए केंद्र सरकार के कानून एवं न्यायमंत्री तथा उपराष्ट्रपति उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय में न्यायमूर्तियों की नियुक्ति के लिए लागू कॉलेजियम सिस्टम को अपारदर्शी और गैरजिम्मेदार बता रहे हैं। कानून मंत्री (तब किरेन रिजीजू कानूनमंत्री थे) ने राजद्रोह कानूनों के स्थगन की भी आलोचना की।

2014 में बहुमत के आधार पर जब भाजपा ने सरकार बनायी तो उसने घोषित किया कि न्यायमूर्तियों की नियुक्ति के लिए स्थापित कॉलेजियम व्यवस्था खत्म होनी चाहिए। इसके लिए राष्ट्रीय नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) अधिनियम, 2014 को संसद में पारित किया गया। इस अधिनियम की वैधता को न्यायालय में चुनौती दी गयी। सर्वोच्च न्यायालय ने इस अधिनियम, तथा इसके जरिए संविधान में किए गए संशोधनों को इस आधार पर रद्द कर दिया कि ये न्यायिक स्वतंत्रता, और इस कारण संविधान के मौलिक ढाँचे के खिलाफ हैं। इस मामले में न्यायालय ने वही किया जिसे करने के लिए संविधान ने इसे आदेशित किया है। न अधिक न कम।

(बाकी हिस्सा कल)

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