भारत में समाजवादी आंदोलन की शुरुआत 1934 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना से मानी जाती है। उससे पहले उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशक में स्वामी विवेकानंद ने यह कहकर समाजवाद का उल्लेख किया था कि कुछेक को बहुत-सी रोटियां मिलें और बाकी लोग भूखे रहें, उससे कहीं अच्छा है कि सब लोगों को रोटी मिले, चाहे आधी-आधी ही मिले। स्वतंत्रता आंदोलन के दो नेता श्यामजी कृष्ण वर्मा और मैडम कामा 1908 में अंतरराष्ट्रीय समाजवादी आंदोलन में शामिल भी हुए थे और विदेश में ही लाला लाजपतराय का संबंध इस विचारधारा से हुआ था। 1920 में ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस बनी तो उसके स्थापना सम्मेलन की अध्यक्षता भी उन्होंने की थी। लंदन में शिक्षा प्राप्त करने के बाद प्रो.एन.जी. रंगा ने भारत आकर 1924 में समाजवाद पर पुस्तक प्रकाशित की। चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व वाली हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के एक नेता भगतिसंह द्वारा जेल में लिखित लेखों में भी समाजवाद का विवेचन है। भगतसिंह के भाई कुलबीर सिंह और कुलतार सिंह भी समाजवादी थे और 1936 से कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य थे। जवाहरलाल नेहरू 1927 से ही समाजवाद का प्रचार करने लगे थे और देशबंधु चितरंजन दास उससे भी कुछ पहले।
अतः जब कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना हुई तो उसमें मार्क्सवादी, पश्चिमी यूरोप के सामाजिक लोकतंत्र से प्रभावित व्यक्ति, भारतीय सांस्कृतिक परंपरा से प्रेरित समाजवादी और सशस्त्र स्वाधीनता आंदोलन में भागीदार रहे समाजवादियों के साथ-साथ ऐसे राष्ट्रवादी भी थे जो उस समय कांग्रेस के उन नेताओं से नाराज थे जो 1930 व 1932 के आंदोलनों के बाद साम्राज्यवादियों से संधि करके संवैधानिक मार्ग अपनाना चाहते थे। किंतु कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की जो सोच सामने आई वह मार्क्सवादी थी, हालांकि दो वर्ष बाद ही सोवियत संघ में स्टालिन के अत्याचारों, उनके द्वारा लागू किए गए लोकतंत्र विरोधी संविधान और प्रमुख कम्युनिस्ट नेताओं पर मास्को में मुकदमे चलाने आदि के कारण मार्क्सवाद का प्रभाव घटने लगा था।
भारत के समाजवादी आंदोलन का जन्म स्वतंत्रता संग्राम की कोख से हुआ। उसकी कल्पना 1933 में नाशिक जेल में बंद युवा नेताओं ने की, जो उसी संग्राम के चलते जेल गए थे। 1934 में उस दल, कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी, का सम्मेलन हुआ और उसमें उपस्थिति अकसर उन्हीं लोगों की थी जो पटना में ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी की साधारण सभा में आए थे। सम्मेलन में इस नियम को संविधान में शामिल किया गया कि पार्टी के सदस्य बनने के इच्छुक व्यक्ति के लिए कांग्रेस का सदस्य बनना अनिवार्य है। सम्मेलन के अध्यक्ष पद से भाषण देते हुए आचार्य नरेन्द्रदेव ने कहा था कि आजादी जैसी भी हो, गुलामी से बेहतर है। उस अवसर पर या शायद बाद में, उन्होंने लोकतंत्र के संबंध में भी यही बात कही थी कि खराब लोकतंत्र भी अधिनायकवाद की अपेक्षा ग्राह्य है।
पार्टी के पहले महामंत्री थे जयप्रकाश नारायण। वे 1932 के आंदोलन के अंतिम दौर में आंदोलन के प्राण थे। इसीलिए उनकी गिरफ्तारी पर मुंबई के राष्ट्रवादी पत्र ‘फ्री प्रेस जर्नल’ ने लिखा कि कांग्रेस के दिमाग की गिरफ्तारी कर ली गई है। उन दिनों वे कांग्रेस के कार्यवाहक महासचिव थे। ‘अंग्रेजो, भारत छोड़ो’ की 1942 की अगस्त क्रांति में समाजवादियों का योगदान इतना अधिक था कि उसके कुछ नेता- जेपी, लोहिया, अच्युत पटवर्धन और अरुणा आसफ अली- राष्ट्रीय आंदोलन की अगली कतार में गिने जाने लगे थे।
राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष की उसी परंपरा को आगे बढ़ाया गोवा की आजादी के संघर्ष को उसके साथ जोड़कर डॉ. लोहिया ने। निजाम हैदराबाद के विखंडनकारी, अधिनायकवादी शासन के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह में भी गोविन्द राव श्रौफ, तेलंगाना के वी.एस. महादेव सिंह और कर्नाटक के डॉ. देउलगाउकर जैसे प्रमुख समाजवादी आगे-आगे थे। 1965 में कच्छ के आंदोलन में भी समाजवादी किसी अन्य धारा से पीछे न रहे।
पटना सम्मेलन (1934) से पहले पंजाब, वाराणसी, बिहार और बंबई में स्थानीय या क्षेत्रीय समाजवादी दल या ग्रुप स्थापित हो चुके थे। गांधीजी के नेतृत्व में जो स्वतंत्रता आंदोलन चला, उससे अलग धारा में थे बंगाल के शिवनाथ बनर्जी और पंजाब में नौजवान भारत सभा के क्रांतिकारी युवा, जिनके नेता शहीदे-आजम भगतिसंह थे। भगतसिंह के दोनों भाई कुलबीर सिंह और कुलतार सिंह भी उसी तरह कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में आए जैसे शिवनाथ बनर्जी। 1930 में चटगांव के शस्त्रागार पर हमले में शामिल दिनेश दासगुप्त भी पार्टी में आए। उस आंदोलन के बहुत-से लोग कम्युनिस्ट पार्टी में भी गए। लेकिन भगतिसंह के लेखन से जो भावना अभिव्यक्त होती है, वह राष्ट्रवादी थी और समाजवादी आंदोलन के निकट थी।
समाजवादी आंदोलन का विवाद और टकराव कम्युनिस्ट आंदोलन से चला तो उसका प्रमुख कारण यही था कि भारत के मुक्ति संग्राम में राष्ट्रहित- स्वतंत्रता की प्राप्ति, राष्ट्र की अखंडता की सुदृढ़ता- को प्राथमिकता देनी है। दूसरा, इसके साथ ही जुड़ा हुआ कारण था कि आरंभ में, 1925 से लेकर आजादी के बाद भी, कई दशकों तक कम्युनिस्ट सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी से मार्गदर्शन लेते थे। कम्युनिस्ट आंदोलन के वरिष्ठ बुद्धिजीवी नेता मोहित सेन की आत्मकथा और शायद उनसे भी पुराने नेता रमेश थापर की पत्नी और राजनीतिक सहयोगी राज थापर की आत्मकथा भी इस तथ्य को सामने लाती हैं।
तो भी पार्टी का पहला सिद्धांत था समाजवादी क्रांति, जिसे उसने कार्ल मार्क्स और लेनिन के दर्शन से हासिल किया था। आचार्य नरेन्द्रदेव और जयप्रकाश नारायण कट्टर मार्क्सवादी थे। 1934 और 1936 के घोषणापत्रों में यह बात खुलकर सामने आती है। जेपी ने उस विश्वास के चलते वामपंथी एकता का जबरदस्त प्रयास किया और तब प्रतिबंधित भारत की कम्युनिस्ट पार्टी से संधि करके उसके सदस्यों को अपनी पार्टी का सदस्य बनाया और उनके नेताओं को प्रमुख स्थान दिया। वे इतनी दूर तक गए कि जब इसी विवाद पर लोहिया, अच्युत पटवर्धन, कमलादेवी चट्टोपाध्याय जैसे प्रमुख नेताओं ने 1939 में राष्ट्रीय कार्यसमिति से त्यागपत्र दिए तो वे उन्हें भी स्वीकार करने के पक्ष में थे।
पार्टी के कई अन्य प्रमुख नेता मार्क्सवादी थे। पार्टी के गठन की तैयारी, सम्मेलन के अध्यक्ष डॉ. संपूर्णानंद के जिम्मे थी, जो प्राचीन वांग्मय के प्रकांड पंडित थे और बाद में उन्होंने वैदिक समाजवाद का प्रचार किया। अच्युत पटवर्धन जो 1947 में जेपी के बाद कुछ समय के लिए महामंत्री बने, एक अन्य नेता रोहित मेहता की तरह थियोसोफिस्ट थे या उस दर्शन से प्रेरित थे। 1950 के बाद वे कृष्णमूर्ति के साथ शिक्षा क्षेत्र में कार्य करते रहे। डॉ. लोहिया पर जर्मनी के लोकतांत्रिक समाजवादियों का प्रभाव था और भारत आने के बाद वे उत्तरोत्तर गांधीजी से ही प्रेरणा लेने लगे थे।
अशोक मेहता पर यूरोप की सोशल डेमोक्रेसी या सामाजिक लोकतंत्र का प्रभाव था। उन्होंने 1950 में मद्रास के सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए और अपनी पुस्तक ‘स्टडीज इन एशियन सोशलिज्म’ में उन समाजवादियों से भी प्रेरणा ग्रहण करने की बात कही है जिन्हें मार्क्स व एंगेल्स ने 1848 में प्रकाशित ‘कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो’ में आदर्शवादी समाजवादी कहकर खारिज किया जबकि अपने को वैज्ञानिक समाजवादी कहा।
नाना साहब गोरे मार्क्सवाद से प्रभावित थे तो फुले और अगरकर की प्रेरणा से भी। वे आर्थिक बदलाव के साथ-साथ सामाजिक बदलाव को बहुत महत्त्व देते थे। अलबत्ता पंजाब के मुंशी अहमद दीन व प्रो. बृजकृष्ण और बंगाल के ज्यादातर लोग मार्क्सवादी थे। वाराणसी के प्रो. मुकुट बिहारी लाल और प्रो. राजाराम शास्त्री भी। प्रसिद्ध क्रांतिकारी किसान नेता रामनंदन मिश्र, जेपी के प्रमुख सहयोगी गंगाशरण सिन्हा और प्रसिद्ध विद्वान बी.पी सिन्हा मार्क्सवादी थे, और फरीदुलहक अंसारी भी।
अन्य प्रमुख नेताओं में एम.आर. मसानी, कमलादेवी चट्टोपाध्याय, यूसुफ मेहरअली, एस.एम. जोशी, सुरेन्द्रनाथ द्विवेदी, आंध्र प्रदेश के अपूर्णया, बंगाल के शिवनाथ बैनर्जी थे। एन.जी.रंगा, वी.एम. तारकुंडे, उमाशंकर जोशी क्रमशः आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात के थे। ये सभी बाद में प्रसिद्ध हुए। बंगाल की क्रांतिकारी समाजवादी पार्टी के नेता जोगेश चटर्जी और महाराष्ट्र के शेतकरी कामगार पक्ष के एस.एस. मोरे और के.आर. खाडिलकर भी आरंभ में पार्टी में थे। इनमें से जोगेश चटर्जी 1939 और एस.एस. मोरे 1949 में अलग हो गए थे।
पार्टी के नेतृत्व की धुरी में 1950-52 तक आचार्य जी, जेपी, लोहिया, कमलादेवी, मेहरअली (जो 1950 में संसार से चले गए), अशोक मेहता, एस.एम. जोशी, नाना साहब गोरे, गंगाशरण सिंह, तिलकराज चड्ढा, फरीद अंसारी बने रहे। तब तक पार्टी में इतना आकर्षण था कि 1948 में ट्राटस्की की अनुयायी बोल्शेविक लेनिनिस्ट पार्टी और 1953 में नेताजी सुभाष चंद्र बोस के फारवर्ड ब्लाक का एक भाग पार्टी में शामिल हो गए। तब तक राज्यों में दूसरी पीढ़ी भी उभर आई थी। 1952 में आचार्य कृपलानी के नेतृत्व वाली किसान मजदूर प्रजा पार्टी के साथ विलय हुआ और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना हो गई।
यूँ तो जैसा कि हम देख रहे हैं, सैद्धांतिक-वैचारिक स्तर पर पार्टी के प्रमुख नेता अलग-अलग सोच रखते थे। उनमें कट्टर मार्क्सवादी और नेताजी के अनुयायी थे जो संभवतः स्वामी विवेकानंद और मार्क्स, दोनों से प्रेरणा लेते थे। कृपलानी और केलप्पन जैसे गांधीवादी भी जब उसमें चले आए तो बेमेलपन कुछ ज्यादा ही हो गया। देश की राजनीति करवटें ले रही थी। उसकी भी मांगें थीं। उधर 1952 से जे.पी. पूर्णतः गांधीवादी हो गए, हालांकि 1946 के बाद मार्क्सवाद से हटकर वे पश्चिमी-उत्तरी यूरोप के लोकतांत्रिक समाजवाद की ओर झुक गए थे।
अच्युत पटवर्धन, कमलादेवी चट्टोपाध्याय और रामनंदन मिश्र पार्टी से अलग होकर अन्य कार्यों में लगे- अच्युत शिक्षा क्षेत्र में, कमलादेवी सहकारिता आंदोलन और शिल्प कला के उत्थान में और मिश्र जी योगाभ्यास में। सेवा दल के जन्मदाता और लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकार साने गुरुजी ने आत्महत्या कर ली। आचार्य नरेन्द्रदेव संसार से विदा हुए 1956 की फरवरी में। तब तक 1952 का आम चुनाव भी हो गया था, उसमें पार्टी के पक्ष में मतदान था 10.5 सैकड़ा। राज्य विधानसभाओं में दो सौ से कुछ अधिक किंतु लोकसभा में पहुंचे केवल बारह। राज्य विधानसभा के चुनावों में अशोक मेहता, कमलादेवी, आचार्य नरेन्द्रदेव जैसे बड़े नेता हार गए। जेपी भूदान की ओर मुड़े; अशोक मेहता कांग्रेस के साथ सहमति के क्षेत्र खोजने लगे; लोहिया स्थायी सिविल नाफरमानी, सैद्धांतिक कांग्रेस विरोध और विशेष स्थितियों में वामपंथी दलों से चुनावी तालमेल की रणनीति की वकालत करने लगे।
नेताओं की पहली पीढ़ी या तो अलगावों के चलते क्षीण हुई या निधन के कारण। केंद्र में जो धुरी बनी थी, टूट गई। वैचारिक मतभेद और ज्यादा बढ़े। फिर 1955 में विभाजन हुआ। डॉ. लोहिया ने विशेष अवसर का सिद्धांत, भाषा नीति, दाम नीति, भारत-पाक महासंघ, सप्तक्रांति, पूंजीवाद और साम्यवाद की आज के युग में अप्रासंगिकता, तात्कालिकता और सत्ता हासिल करने की जिद जैसे सिद्धांत या नीतियां जोड़ीं। आचार्य नरेन्द्रदेव ने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के गया सम्मेलन में प्रस्तुत नीति में शांतिपूर्ण वर्ग संघर्ष, मानवीय नैतिकता और साधन-शुचिता, लोक-संस्कृति के विकास और लोकतांत्रिक मानवतावादी मार्क्सवाद पर बल दिया। समाजवादी आंदोलन का यह विहंगावलोकन गांधी की चर्चा किए बगैर अधूरा रहेगा।
(बाकी हिस्सा कल)