(‘भारतीय समाजवादी आंदोलन की विरासत’ शीर्षक से कल प्रकाशित लेख का बाकी हिसा)
स्वतंत्रता आंदोलन को महात्मा गांधी ने असहयोग, शांतिपूर्ण प्रतिरोध और सत्याग्रह के द्वारा जनता का आंदोलन बनाया। हजारों, और बाद में लाखों लोग उसमें भाग लेने लगे थे। कांग्रेस का प्रमुख नेता बनने से पहले ही वे चंपारण और खेड़ा में किसान संघर्षों की अगुआई कर चुके थे और अहमदाबाद के कपड़ा-मजदूरों की लड़ाई में भी खिंच आए थे। इस पृष्ठभूमि ने भी किसानों और मजदूरों को उनके नेतृत्व की ओर आकृष्ट किया और आजादी के आंदोलन से जोड़ा।
निःसंदेह आजादी की जंग मेहनतकश वर्गों की भागीदारी के बिना दुर्बल रहती और उसकी काट पैनी न बनती। खासकर, जब कम्युनिस्ट पार्टी ने 1928 के बाद कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के चौथे सम्मेलन के फैसले के अनुसार कांग्रेस के नेतृत्व को बूर्जुआ कहकर 1930 और 1932 के आंदोलनों का विरोध किया, तो मेहनतकश वर्गों में यह धारणा फैल सकती थी कि वे भी उन आंदोलनों से अलग रहें। यह उल्लेखनीय है कि कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं पर जब साम्राज्यवादी ब्रिटिश सरकार ने मेरठ और कानपुर षड्यंत्र नामक मुकदमे चलाए थे, तब 1927-29 में कांग्रेसी नेताओं- नेहरू, सुभाष बोस, सेनगुप्ता आदि- ने कम्युनिस्ट नेताओं की पूरी मदद की थी। परंतु साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन की एकजुटता को इसके बावजूद भी उन्होंने तोड़ा था।
किंतु कांग्रेस एक विशाल जनांदोलन बन चुकी थी। जनता में यह बहस चल पड़ी थी कि कांग्रेस के संघर्ष के चलते आजादी मिलेगी तो वह किसकी और कैसी आजादी होगी। मुंशी प्रेमचंद ने उन्हीं दिनों अपनी कहानियों में यह प्रश्न उठाया था कि क्या गोरे अंग्रेजों की जगह काले अंग्रेज तो नहीं ले लेंगे? आचार्य नरेंद्रदेव ने 1928 के नवंबर में जवाहरलाल नेहरू को पत्र लिखकर सुझाव दिया था कि कांग्रेस को अपने सामाजिक और आर्थिक लक्ष्यों को साफ-साफ निर्धारित करना चाहिए। चंद्रशेखर आजाद का क्रांतिकारी दल भी स्वयं को सोशलिस्ट कहकर आजाद समाजवादी भारत का सपना सँजोता था। उसी दशक में अवध के इलाके में बाबा रामचंद्र, जवाहरलाल नेहरू, पुरुषोत्तम दास टंडन और आचार्य नरेंद्रदेव ने ताल्लुकेदारी प्रणाली के विरोध में किसानों में नई जागृति पैदा की थी। किसानों ने सरदार पटेल के नेतृत्व में बारडोली में, वीर सासमल के नेतृत्व में मेदिनीपुर जिले में संघर्ष किए।
डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने महाड में पेयजल के सवाल पर सत्याग्रह किया क्योंकि नगरपालिका के फैसले के बावजूद सवर्ण जातियों के लोग महार तथा अन्य ‘अस्पृश्य’ जातियों को नगरपालिका के तालाब पर जाने नहीं देते थे। स्वयं गांधीजी ने हरिजन सेवक संघ की स्थापना कर दी थी। गांधीजी ने स्वतंत्रता आंदोलन में जनता की भागीदारी को संभव बनाया तो सभी आर्थिक और सामाजिक अन्याय, जिनसे जनता उत्पीड़ित थी और जो साम्राज्य की छत्रछाया में फल-फूल रहे थे, जनता के विरोध के निशाने बनने लगे। लाहौर कांग्रेस (1929) और कराची कांग्रेस (1931) में जो प्रस्ताव मंजूर किए गए उनमें कांग्रेस ने अपने आर्थिक और सामाजिक लक्ष्यों को स्पष्टतः रेखांकित किया। उसी पूरी पृष्ठभूमि में समाजवादी आंदोलन का सूत्रपात हुआ।
कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ने सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था संबंधी बहस को बराबर आगे बढ़ाया और जनता के दबाव को कांग्रेस संगठन के अंदर ही तीव्रतर बनाया। 1936 में फैजपुर और कानपुर में कांग्रेस के अधिवेशनों में समाजवादियों की वाणी काफी मुखर थी। किंतु कांग्रेस नेतृत्व में दक्षिणपंथी झुकाव और दबाव के प्रभावकारी रहने पर भी, गांधीजी ने कभी कांग्रेस के अंदर आंतरिक लोकतंत्र को दुर्बल नहीं होने दिया। बल्कि ज्यों-ज्यों कांग्रेस का चरित्र अधिकाधिक बदलाववादी बनता गया, गांधीजी उसे पीछे ले जाने के स्थान पर आगे ले जाते रहे; या उसकी गति के साथ-साथ चले।
कुछ प्रकरणों में गांधीजी और समाजवादी नेताओं में भारी मतभेद थे। इसमें श्री सुभाष चंद्र बोस के दुबारा अध्यक्ष चुने जाने के बाद के त्रिपुरी कांग्रेस के अधिवेशन का घटनाक्रम महत्त्वपूर्ण है। समाजवादी दल ने श्री सुभाष चंद्र बोस का समर्थन किया था। गांधीजी का विरोध था। किंतु जब अधिवेशन में पंडित गोविंद वल्लभ पंत ने यह प्रस्ताव रखा कि अध्यक्ष अपनी कार्यसमिति मनोनीत करते समय गांधीजी से राय लें और अध्यक्ष श्री सुभाष चंद्र बोस ने इसे न माना तो यह खतरा पैदा हो गया था कि कांग्रेस के दो टुकड़े हो जाएंगे। समाजवादी ऐसे विभाजन के खिलाफ थे, और वे पंत-प्रस्ताव पर तटस्थ रहे। परंतु इसके चलते बंगाल में उनकी साख गिरी।
इसी प्रकार देशी राजाओं के संबंध में गांधीजी की नीति समाजवादी नेताओं को मंजूर न थी। वे प्रजामंडल आंदोलन में जी-जान से सक्रिय थे। यही स्थिति अहिंसा को लेकर थी। परंतु यह उल्लेखनीय है कि सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के संबंध में श्री जयप्रकाश नारायण ने एक नोट 1939 में गांधीजी को प्रेषित करके उनसे अनुरोध किया था कि वे उससे सहमत हों तो उसे कार्यसमिति में रख दें, अन्यथा अपनी टिप्पणी के साथ अपने साप्ताहिक पत्र ‘हरिजन’ में प्रकाशित कर दें। उस नोट की एक बात- देशी राजाओं वाली- पर गांधीजी ने अपनी असहमति जताई और अन्य सभी के साथ सहमति व्यक्त की।
ज्यों-ज्यों दूसरे विश्वयुद्ध में जापान भारत की ओर बढ़ने लगा, गांधीजी को यह आशंका उत्तरोत्तर सताने लगी कि भारत ही अंग्रेजों-अमरीकियों और जापान के बीच युद्धस्थल बन जाएगा। उधर समाजवादी दल के नेता उनसे अनुरोध कर रहे थे कि वे सीधी लड़ाई का एलान करें। दूसरी ओर, सुभाष चंद्र बोस के अद्वितीय शौर्य से भी वे प्रभावित हुए थे जिन्होंने भारत से जर्मनी और फिर जापान जाकर आजाद हिंद फौज का गठन किया था। तब तक कम्युनिस्ट पार्टी ने विश्वयुद्ध को जनयुद्ध कहकर अंग्रेजी साम्राज्यवाद का समर्थन करना आरंभ कर दिया था। कांग्रेस के अंदर पंडित नेहरू और मौलाना आजाद भी नात्सी जर्मनी और जापान के मुकाबले में मित्र देशों का हिमायती रुख लेना चाहते थे। किंतु आचार्य नरेन्द्रदेव गांधीजी के निमंत्रण पर छह हफ्ते वर्धा रहे जहां गांधीजी ने उनके रोग की चिकित्सा भी की और गंभीर राजनीतिक वार्तालाप भी किया। उन्हीं बातचीतों के दौरान ‘अंग्रेजो, भारत छोड़ो’ प्रस्ताव और आंदोलन की रूपरेखा तैयार हुई। अच्युत पटवर्धन ने कार्यसमिति में सीधे संघर्ष के प्रश्न पर गांधीजी के सुझाव की पूरी हिमायत की।
भारत छोड़ो प्रस्ताव, जो 8 अगस्त 1942 को पारित हुआ, स्वतंत्र भारत के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक चित्र को संपूर्णता में प्रस्तुत करता है कि यह देश मेहनतकशों का होगा और उसमें सत्ता किसानों व मजदूरों के हाथ में होगी। वह क्षेत्रीय इकाइयों के अधिकारों के संबंध में भी संघीयता और स्वायत्तता की बात सफाई से कहता है। उसमें उस पूरी सोच का समावेश है जो गांधी युग में जनता द्वारा उठाए गए सवालों के समाधान में विकसित हुई थी। गांधीजी ने उस प्रस्ताव से कुछ मास पहले अप्रैल 1942 में अमरीकी पत्रकार लुई फिशर से यह कह दिया था कि आजादी के बाद सामंत, ताल्लुकेदार आदि खत्म हो जाएंगे और उनको मुआवजा भी न मिलेगा। उनके ट्रस्टीशिप के सिद्धांत पर समाजवादी असहमत थे, अतः 1945 में प्रसिद्ध समाजवादी अर्थशास्त्री दाँतेवाला ने उनसे सफाई चाही। गांधीजी ने उनसे कहा कि आप स्वयं करारनामा तैयार करें। दाँतेवाला ने जो ड्राफ्ट तैयार किया, उसको ही उन्होंने स्वीकार करके अपने हस्ताक्षर कर दिए।
गांधीजी की समाजार्थिक सोच विकसित और परिपक्व होती रही थी तो समाजवादी भी अपनी सोच को बदलते जा रहे थे। उन्होंने स्टालिनवाद को तिलांजलि दी, लेनिन के पार्टी संबंधी और किसान संबंधी विचारों को नकारा। पार्टी को पेशेवर क्रांतिकारियों के केंद्रवादी संगठन के स्थान पर लोकतांत्रिक जन-संगठन का रूप दिया। किसानों को टुटपुँजिया वर्ग के स्थान पर क्रांतिकारी माना। सशस्त्र क्रांति की अनिवार्यता की जगह शांतिपूर्ण अवज्ञा और सत्याग्रह को मान्यता दी। सत्ता के विकेंद्रीकरण को स्वीकारा। साधन-शुचिता के महत्त्व को समझा। स्वदेशी को माना।
1946-47 आते-आते दोनों एक-दूसरे के बहुत समीप आ गए थे। तब तक, कांग्रेस नेतृत्व सत्ता-मद में उतावला होकर गांधीजी की उपेक्षा भी करने लगा था। समाजवादियों की बहादुरी, ईमानदारी और निष्ठा पर गांधीजी का विश्वास बढ़ा था। उन्होंने जहां यह कहा कि वे स्वयं अपना जीवन ही समाजवादी की तरह जीते हैं, न कि केवल समाजवाद लाने का प्रयत्न करते हैं, वहीं कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं से यह भी कहा कि वे उनके अपने बन जाएं- ‘मेरी पार्टी बन जाओ।’ वह न हुआ क्योंकि तब तक देश की आजादी के विषय में उनकी कल्पना थी कि अभी अंतिम लड़ाई लड़नी होगी और हिंसा-अहिंसा की बहस चल पड़ेगी। जो भी हो, उनकी हत्या के बाद गांधीवाद समाजवादी दर्शन और व्यवहार का अभिन्न तत्त्व बना। लोहिया स्वयं को कुजात गांधीवादी कहते थे, जेपी तो उसी दर्शन को पूर्णतः मानने लगे थे। किंतु गांधीजी की तरह जीने, आत्म-विश्लेषण करके सुधरते रहने और सहिष्णुता-विनम्रता को अपना स्वाभाविक गुण बनाने में विरलों को ही कुछ-कुछ सफलता मिली होगी।
उन सब विचारों से नई पीढ़ियों के लिए सिद्धांत और कर्म के स्तर पर क्या शेष है? वर्गविहीन और जातिविहीन समाज की स्थापना का लक्ष्य तो है ही, कुछ अन्य बातें जो 1952 तक सर्वमान्य हो गई थीं, शायद उनपर अब भी विवाद नहीं है। उनमें प्रमुख हैं :
- शांतिपूर्ण सिविल नाफरमानी, जिसे भूमि के न्यायपूर्ण बँटवारे का आंदोलन व मजदूर आंदोलन में शांतिपूर्ण वर्ग संघर्ष कहा जाता है;
- संपत्ति का संभव बराबरी के आधार पर बँटवारा;
- चौखम्भा राज, यानी जनता की स्थानीय इकाइयों में सत्ता का विकेंद्रीकरण जिसमें संघीयता भी शामिल है;
- साधन-शुचिता;
- रचना कार्य, जिसमें सहकारिता प्रमुख है;
- पितृसत्तात्मक समाज को खत्म करके नर-नारी समता की स्थापना;
- छुआछूत का पूरा खात्मा और सामाजिक समता;
- लोकशक्ति को संगठित करना जो राजशक्ति से अपनी स्वतंत्र हैसियत रखे;
- धर्मान्धता का निषेध और सामाजिक कुरीतियों का बहिष्कार;
- संसदीय लोकतांत्रिक राजनीति में विश्वास;
- संघर्ष, रचना और लोकतांत्रिक चुनावों के तीन स्तरीय कार्यक्रम को जेल, फावड़ा और चुनाव के नाम से सूत्रबद्ध करना;
- विकासशील देशों में पूँजी के अभाव और श्रम की बहुलता के चलते ऐसी यांत्रिकी का विकास जो उत्पादन के साथ-साथ रोजगार और समता को बढ़ाए;
- विदेश नीति में न तो अमरीका के नेतृत्व वाले ब्लॉक में, न ही रूस के नेतृत्व वाले ब्लॉक में जाना और तीसरा ब्लॉक खड़ा करना। साम्राज्यवाद और सशस्त्रीकरण का पूर्ण विरोध।
दार्शनिक सिद्धांतों के स्तर पर इस बात को माना गया कि व्यक्ति और समाज दोनों एक-दूसरे के प्रति जिम्मेदार हैं। सादगी और शुद्ध चारित्र्य को मान्यता दी गई। उस समय के प्रचलित मार्क्सवाद में यह सामान्य धारणा थी कि आर्थिक बदलाव और मजदूर वर्ग की तानाशाही के स्थापित होने पर सभी सामाजिक समस्याएं हल हो जाएंगी, सांप्रदायिकता का नाश हो जाएगा और सांस्कृतिक क्षेत्र में भी बुनियादी परिवर्तन आ जाएंगे। इस आर्थिक नियतिवाद को नकारा गया और मूल व्यवस्था में सर्वांगीण आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक समता को मान्य किया गया।
आजादी हासिल करने के बाद सांप्रदायिकता के बढ़ने और गांधीजी की हत्या के बाद धर्म (या पंथ) निरपेक्षता पर बल दिया गया। सांप्रदायिक शक्तियों का मुकाबला करने का संकल्प दोहराया गया। जातिवादी हिंसा व उत्पीड़न के तीव्र विरोध का भी संकल्प लिया गया। इस दौरान, महात्मा फुले और डॉ. आंबेडकर के दर्शन का प्रभाव भी तेजी के साथ बढ़ा। अर्थात मार्क्स, गांधी और आंबेडकर समाजवादी आंदोलन की मूल प्रेरणा बने।
मार्क्स, गांधी और आंबेडकर समाजवादी आंदोलन की मूल प्रेरणा बने – सुरेन्द्र मोहन – समता मार्ग
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