2024 का आमचुनाव और संयुक्त विपक्ष की संभावना

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— प्रवीण मल्होत्रा —

गैरभाजपा विपक्ष के 15 दलों के 32 नेताओं ने बिहार की राजधानी पटना में 23 जून को बैठक कर आगामी लोकसभा चुनाव के लिए भावी रणनीति और सीटों के बंटवारे पर प्रारंभिक चर्चा की थी। बैठक का अगला विस्तारित सत्र कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरु में जुलाई के मध्य में होगा।

पटना की बैठक में कांग्रेस (52), टीएमसी (22) डीएमके (24), शिवसेना उद्धव (18), जेडीयू (16), एनसीपी (5), सपा (5), माकपा (3), भाकपा(2), राजद (2), आप (1), जेएमएम (1), सीपीएम-M (0), एनसी (3) तथा पीडीपी (0) ने भाग लिया था। कोष्ठक में 2019 में इन दलों द्वारा जीती गयी सीटों की संख्या दी गयी है। 2019 के लोकसभा चुनाव में इन 15 दलों को 543 में से सिर्फ 154 (28 फीसद) सीटें ही मिल पाई थीं। इनमें से भी शिवसेना और एनसीपी में विभाजन तथा उत्तर प्रदेश के उपचुनावों में सपा की हार होने के बाद सीटों की वर्तमान संख्या घट गई है।

बीजेपी को 2019 में 303 सीट और लगभग 22.92 करोड़ (37%) वोट मिले थे। 23 जून को पटना में जो 15 दल एक मंच पर आए थे उनके संयुक्त वोट बीजेपी को मिले वोट से 16 लाख अधिक थे। लेकिन इन दलों में आपस में बहुत पेच और मतभेद हैं। कांग्रेस और ‘आप’ के केजरीवाल एक नहीं हो सकते। ममता बनर्जी कांग्रेस को बंगाल में कितनी सीट देने के लिए सहमत होंगी, कहा नहीं जा सकता। एक बात निश्चित है कि ममता बनर्जी पूर्व कम्युनिस्ट और वर्तमान में लोकसभा में कांग्रेस के नेता तथा प. बंगाल कांग्रेस के अध्यक्ष अधीररंजन चौधरी को तो बिल्कुल भी समर्थन नहीं देंगी। इसी तरह उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव कांग्रेस को कितनी सीट देना चाहेंगे? क्या कांग्रेस उप्र में 5-7 सीट पर चुनाव लड़ने के लिए सहमत हो जाएगी? केरल में यूडीएफ और लेफ्ट फ्रंट (एलएफ) में कोई तालमेल सम्भव नहीं है।

2019 में कांग्रेस और बीजेपी में 186 सीटों पर सीधा संघर्ष हुआ था, जिसमें से कांग्रेस को सिर्फ 15 सीटों पर जीत मिली थी। बेंगलूरु की बैठक में यदि कोई व्यापक सहमति बनती है तो इसका असर 14 राज्यों में फैली 336 सीटों पर होगा। 2019 में भाजपा ने इनमें से 169 (50 फीसद) सीटें जीती थीं। संयुक्त विपक्ष इनमें से कितनी सीटों पर सेंध लगा पाएगा?

सबसे बड़ी चुनौती तो कांग्रेस के ही सामने है। वह सीधी टक्कर की 186 सीटों में से कितनी सीटें जीत पाएगी? यदि वह बीजेपी को इन 186 सीटों में से 100 सीटों पर भी रोक पाए यानी शेष 86 सीटें जीत ले तो एक संभावना बनती है, लेकिन क्या ऐसा हो पाएगा?

2024 में उपरोक्त 15 दलों का संयुक्त विपक्ष यदि अपनी सीटों की संख्या 154 से बढ़ा कर 250 तक ले जाए तो गैरभाजपा विपक्ष की केंद्र में सरकार बन सकती है। क्योंकि तब आंध्रप्रदेश की वाईएसआर कांग्रेस, ओड़िशा का बीजद, तेलंगाना का बीआरएस (अपने राज्यों के लिए आर्थिक पैकेज के आधार पर) तथा पंजाब का शिरोमणि अकाली दल (किसानों तथा अकालतख्त की स्वायत्तता के मुद्दे पर) एवं पूर्वोत्तर की कुछ क्षेत्रीय पार्टियां भी अपने राज्यों को अधिक स्वायत्तता के मुद्दे पर गैरभाजपा विपक्ष को समर्थन दे सकती हैं। फिलहाल ये पार्टियां या तो तटस्थ हैं या मुद्दों के आधार पर बीजेपी को संसद में समर्थन देती रही हैं। पूर्वोत्तर की अधिकांश क्षेत्रीय पार्टियां तो बीजेपी के गठबंधन में शामिल ही हैं।

तीन मुस्लिम पार्टियों – एआईएमआईएम, आईयूएमएल और एआईयूडीएफ – का गैरभाजपा विपक्ष को स्वाभाविक समर्थन मिलना तय है। फिलहाल उन्हें पटना बैठक में आमंत्रित नहीं किया गया था और सम्भवतः बेंगलुरु बैठक में भी आमंत्रित नहीं किया जाएगा। क्योंकि विपक्ष के मन में यह भय बैठा हुआ है कि मुस्लिम पार्टियों की भागीदारी से बीजेपी को अपना साम्प्रदायिक कार्ड खेलने का अवसर मिल जाएगा।

कुल मिलाकर इन 15 दलों में सबसे बड़ी चुनौती कांग्रेस के समक्ष ही है। क्योंकि अकेली कांग्रेस की 2019 में कुल वोट में हिस्सेदारी लगभग 20 करोड़ थी। शेष 14 पार्टियों की संयुक्त हिस्सेदारी सिर्फ चार करोड़ ही थी। बावजूद इसके उत्तरप्रदेश, बिहार, झारखंड, महाराष्ट्र, प.बंगाल, तमिलनाडु जैसे बड़े राज्यों में कांग्रेस को क्षेत्रीय पार्टियों के समक्ष दूसरे या तीसरे दर्जे की भूमिका निभाना पड़ सकती है। क्या कांग्रेस पार्टी अपनी सीटों की संख्या दहाई (52) से बढ़ाकर तिहाई (100+) तक ले जा पाएगी? सब कुछ इसी पर निर्भर करता है।

ऑटो गैराज में काम करने या खेत में धान की बुआई करने से राहुल गांधी को छवि तो निखर सकती है, लेकिन राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के सामने जब तक कोई प्रभावशाली रणनीति और ऐसा नैरेटिव नहीं होगा जो आम जनता को उद्वेलित कर सके तब तक बीजेपी को हराना कठिन है।

हमने अभी तक यह देखा है कि गरीबी, महंगाई, बेरोजगारी, महंगी शिक्षा और चरमराती हुई सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं पर बीजेपी का उग्र राष्ट्रवाद, धार्मिक एवं साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण तथा हिंदुत्व का नैरेटिव भारी पड़ रहा है। सिर्फ कर्नाटक ही एकमात्र ऐसा राज्य है जिसने फिलहाल बीजेपी के धार्मिक एवं साम्प्रदायिक एजेंडे को नकार दिया है। जबकि स्वयं प्रधानमंत्री ने पूरे चुनाव प्रचार के दौरान धार्मिक नारों का सहारा लेकर चुनाव का धार्मिक ध्रुवीकरण करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। कर्नाटक में कांग्रेस का स्थानीय नेतृत्व भी अन्य राज्यों की अपेक्षा बहुत मजबूत है। हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की जीत में ओल्ड पेंशन स्कीम तथा एंटी इनकंबेंसी की मुख्य भूमिका रही है।

प्रधानमंत्री मोदी की देश के 80 करोड़ गरीब लोगों को मुफ्त राशन बांटने (लाभार्थी योजना), आठ करोड़ से अधिक किसानों के खातों में साल भर में छह हजार रुपये जमा करने तथा मध्यप्रदेश की शिवराजसिंह सरकार की ‘लाडली बहना योजना’ के तहत 23 वर्ष से ऊपर की महिलाओं के खाते में एक हजार रूपये की मासिक किश्त जमा करने की योजनाओं ने वोटों का ध्रुवीकरण करने में सशक्त भूमिका निभाई है। लाडली बहना योजना का परिणाम 2023 के मप्र विधानसभा चुनाव में परिलक्षित हो सकता है।

अंत में निष्कर्ष के रूप में यही कहा जा सकता है कि गैरभाजपा विपक्ष सुनियोजित रणनीति बनाकर एक नया नैरेटिव खड़ा कर सके जो आम और तटस्थ मतदाताओं को उद्वेलित कर अपने पक्ष में वोट करने के लिए प्रेरित करे तो 2024 में बीजेपी की अधिक से अधिक 50 से 100 सीट तक कम की जा सकती हैं। यानी बीजेपी 200-225 के आसपास सिमट जाए और वर्तमान 15 दलों का विपक्ष अपनी 154 सीटों में 100 सीटों की वृद्धि कर ले जिसमें कांग्रेस की सीटें 100+ हों तभी विपक्ष की सरकार बन सकती है। अन्यथा, फिर 2024 के बाद कह नहीं सकते कि वर्तमान संसदीय प्रणाली कायम रहेगी या देश में विपक्ष विहीन एकदलीय शासन प्रणाली स्थापित हो जाएगी!

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