मणिपुर पर प्रधानमंत्री की चुप्पी का राज़ क्या है?

0

— आकार पटेल —

ब मैं अपनी किसी समस्या को, समस्या मानने से ही इनकार करता हूँ, तो इससे मुझे क्या हासिल होता है? और जब मैं मान लेता हूँ कि समस्या है, तो मुझे क्या गॅंवाना पड़ता है?

प्रधानमंत्री ने 79 दिनों बाद मणिपुर में हिंसा होने की बात मानी, इसके पहले वह यही जता रहे थे जैसे कुछ हुआ ही न हो। दो माह पुराने एक वीडियो के कारण बड़े पैमाने पर आक्रोश उमड़ पड़ा और मणिपुर आम चर्चा का विषय बन गया, फलस्वरूप प्रधानमंत्री को चुप्पी तोड़ने के लिए विवश होना पड़ा। भारत के प्रधान न्यायाधीश ने भी रोष प्रकट किया। मणिपुर की पुलिस को, जो इस दरमियान सोयी हुई थी, जन आक्रोश पैदा करने वाली वारदात के सिलसिले में फौरन कुछ गिरफ्तारियां करनी पड़ीं।

इसमें इतना वक्त क्यों लगा? इसलिए लगा क्योंकि प्रधानमंत्री ने मणिपुर के मसले पर ऑंख मूॅंद रखी थी, और यह बीजेपी के अन्य नेताओं तथा मीडिया के लिए संकेत था कि इस बारे में खामोश रहना है।

जब यह घटना और इस तरह की अन्य घटनाएँ हो रही थीं, प्रधानमंत्री बेंगलुरु में थे और रोड शो कर रहे थे। उन्होंने एक रोड शो रद्द कर दिया था, मणिपुर की वजह से नहीं, बल्कि इसलिए कि उस रोड शो के दिन परीक्षाएँ होनी थीं और वह नहीं चाहते थे कि विद्यार्थियों को असुविधा हो। चुनाव प्रचार के उनके दूसरे कार्यक्रम जारी रहे। उसके बाद वह दो बार विदेश गए, समारोहों में शामिल हुए और परेड देखी।

देश में वह आए दिन किसी न किसी ट्रेन को झंडी दिखाते और उदघाटन करते रहे, इनको-उनको जन्मदिन की बधाई देते रहे, वगैरह। लेकिन उन्होंने एक बार भी मणिपुर का जिक्र नहीं किया।

इसलिए वही सवाल फिर उठता है कि जब कोई किसी समस्या के वजूद को ही नहीं मानता, तो उसे क्या लाभ होता है, भले वह समस्या औरों को बिलकुल साफ दीख रही हो?

पहली बात तो यह, कि वह इस प्रकार यह संकेत देता है कि यह समस्या मेरी नहीं है। अगर मेरा घर जल रहा हो, तो मैं आग बुझाने के लिए दौड़ पड़ूॅंगा। अगर मेरे परिवार पर हमला हो, तो मैं फौरन बचाने में लग जाऊँगा। लेकिन मैं न सिर्फ वैसा कुछ नहीं करता बल्कि यह जताता हूँ कि कुछ हुआ ही नहीं है, तो इसका अर्थ है कि मैं मानता ही नहीं कि यह मेरी समस्या है। और इसीलिए, इसका हल निकालने की जिम्मेदारी भी मेरी नहीं है।

फिर दूसरा फायदा है : मैं एक कठिन स्थिति का सामना करने से फौरन बच जाता हूँ और हो सकता है वह स्थिति अपने आप दूर हो जाए। मैं पहले इस बारे में लिख चुका हूँ कि कैसे प्रधानमंत्री ने यही तरीका कोविड की दूसरी लहर के समय अख्तियार किया था। वैसे तो रोजाना, प्रत्यक्ष या वर्चुअल, वह किसी न किसी सभा-समारोह में दीखते ही रहते थे, लेकिन बंगाल की अपनी रैलियाँ रद्द होने के बाद बीस दिनों तक वह कहीं नजर नहीं आए। लाखों लोग जान से हाथ धो बैठे, लाखों लोग आक्सीजन के अभाव में त्राहि त्राहि करते रहे, और श्मशान लाशों से पट गए, लेकिन प्रधानमंत्री का कहीं पता नहीं था।

वह तीन हफ्तों बाद लौटे, जब स्थिति में कुछ सुधार दीखने लगा और कोविड से होनेवाली मौतें कम हो रही थीं। फिर उन्होंने एक ‘उच्चस्तरीय बैठक’ करने का तमाशा रचा।

साल के शुरू में भारतीय जनता पार्टी का एक प्रस्ताव जो कहता था कि भारत ने मोदी जी के नेतृत्व में महामारी को हरा दिया है, पार्टी की वेबसाइट से हटा लिया गया था। एक बार जब लहर थम गयी, उन्होंने उस मसले से ही पूरी तरह अपना पिंड छुड़ा लिया।

यही उन्होंने गलवान की घटना के बाद किया था।

उस टकराव के बाद, तीन साल से ज्यादा वक्त हो गया, इस बीच एक बार भी सेना की तरफ से नहीं बताया गया कि वस्तुस्थिति क्या है? गलवान पर प्रधानमंत्री ने कई दिनों तक चुप्पी साधे रहने के बाद एक बहुत संक्षिप्त वक्तव्य दिया था, और इसके बाद वह इस बारे में फिर खामोश हो गए।

अगर मैं समस्या को मानने से ही इनकार कर देता हूँ तो इससे तीसरा लाभ यह है कि एक मायने में अपनी छवि को जस की तस बनाए रख सकता हूँ। मेरे अनुयायियों और भक्तों (जिनकी संख्या प्रधानमंत्री के मामले में काफी हो सकती है) को इस कष्ट से नहीं गुजरना होगा कि वे मुझे यह स्वीकार करते हुए देखें कि मेरी देखरेख में कुछ गड़बड़ हुआ है।

इसका एक अन्य लाभ यह है कि चूंकि उनकी भक्ति जारी रहती है, मैं भी खुद को, झूठा ही सही, यह भरोसा दिला सकता हूँ कि मैंने कुछ गलत नहीं किया है। अगर इतने सारे लोग मुझमें अपना विश्वास बनाए हुए हैं, तो मेरी कार्रवाइयां भी सही हैं और मेरा कुछ न करना भी उचित है।

और क्या लाभ हैं? कुछ छोटे-मोटे लाभ भी हैं।

शायद कुछ लोग सिर्फ जोर-शोर से किये गए दावों को याद रखते हैं, यह याद नहीं रखते कि बुरी खबरें भी थीं और उनसे किनारा कर लिया गया।

हमने कितनी बार सुना है कि भारत सबसे तेज रफ्तार से बढ़ रही अर्थव्यवस्था है। बहुत से लोग मानते हैं कि अब भी ऐसा ही है, लेकिन एक अखबार में 22 जुलाई को खबर थी : “भारत अब सबसे तेज वृद्धि वाली बड़ी अर्थव्यवस्था नहीं है। वर्ष 2022 में सऊदी अरब की वृद्धि दर 8.7 फीसद थी, उसके बाद विएतनाम की 8 फीसद। वर्ष 2023 की पहली तिमाही में फिलीपींस ने 6.4 फीसद की वृद्धि दर्ज करके भारत से बेहतर प्रदर्शन किया।”

अगर मैं इस समय ‘सबसे तेज वृद्धि’ की बात करना छोड़ दूॅं, और कुछ साल बाद इसकी बात तब करूँ, जब यह मेरे बारे में सही हो, तो बहुत-से लोगों को यही लगेगा कि हमेशा मैं ही उच्चतम स्थान पर हूँ।

अब हम यह देखें कि, एक नेता के तौर पर, जब मैं समस्या के वजूद से ही इनकार कर देता हूँ, तो इसका हमें क्या खमियाजा भुगतना पड़ता है।

पहली बात यह कि समस्या बनी रहती है, और अक्सर, जैसा कि मणिपुर में हुआ, और विकराल बन जाती है। जाने कितने लोग मारे गए, जाने कितनी औरतें और लड़कियां यौनहिंसा का शिकार बनीं, जाने कितने घर जला दिए गए। यह सब इसलिए हुआ क्योंकि भारत सरकार ने समस्या को नजरअंदाज किया। शायद इसके बारे में इतिहासकार हमें बताएंगे, क्योंकि इसके बारे में मीडिया हमें नहीं बताएगा।

समस्या को नजरअंदाज करने का दूसरा नतीजा यह होता है कि कुछ लोग बेजा फायदा उठाते हैं। मणिपुर के मुख्यमंत्री को इस्तीफा क्यों देना चाहिए, जब खुद प्रधानमंत्री की निगाह में वहाँ कोई समस्या ही नहीं है? जब बाहर से कुछ दबाव लगा, तो मुख्यमंत्री ने इस्तीफा देने का नाटक किया लेकिन कुर्सी पर जमे रहे और अब भी जमे हुए हैं, क्योंकि मुख्यमंत्री इतने चतुर तो हैं ही कि प्रधानमंत्री की खामोशी का लाभ कैसे उठाया जाय यह जानते हैं, और उन्होंने यह किया भी।

तीसरा नुकसान यह होता है कि देश, यह देश इस भुलावे में जीता रह सकता है कि यह महानता की तरफ बढ़ रहा है, और उस आग की तरफ ध्यान नहीं देता, जो उसे भीतर ही भीतर झुलसाए जा रही है। समस्या से कन्नी काटने का व्यवहार या तो प्रधानमंत्री के सोचे-समझे सियासी गणित की वजह से है, या यह उनकी फितरत है। सच जो भी हो, पिछले दस साल में इस बात के काफी प्रमाण हैं जो यह दिखाते हैं कि किन-किन चीजों से उन्होंने लाभ उठाया है, और किन-किन चीजों का हम खमियाजा भुगत रहे हैं।

(nationalherald. com से साभार)
अनुवाद : राजेन्द्र राजन

Leave a Comment