संजना तिवारी की पॉंच कविताएँ

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पेंटिंग - मैक्स चक्रवर्ती
पेंटिंग - मैक्स चक्रवर्ती

1. समुद्र और स्त्री

समुद्र से बड़ा होता है
स्त्री का विस्तार
मगर वह अपने में सिमटी
घर के किसी कोने में
दुबकी रहती है चुपचाप

चंद्रमा के आकर्षण में
समुद्र में उठते ज्वार भाटा को
दुनिया देखती है
मगर स्त्री के भीतर उठते
ज्वार भाटा को
कोई नहीं देखता

सुनामी में
समुद्री जहाज का
कुछ खास नहीं बिगड़ता
मगर तटीय इलाके
हो जाते हैं तबाह
प्रेम ही है वह जहाज
जिस पर दुनिया को थामे
भटकती रहती है स्त्री
अपने विस्तृत दुख के सागर में।

2. बेटियों को बचाएँ

विश्वास को बचाएं
इसी से बचेंगे रिश्ते
रिश्तों को बचाएं
इसी से बचेगी खुशी
प्यार को बचाएं
इसी से बचेगा घर
घर को बचाएं
इसी से बचेगी शांति
त्याग को बचाएँ
इसी से बचेगा समाज
समाज को बचाएँ
इसी से बचेगी मनुष्यता

पेड़ को बचाएँ
इसी से बचेगी आक्सीजन
आक्सीजन को बचाएँ
इसी से बचेगा जीवन
बेटियों को बचाएँ
इसी से बचेगा मनुष्य
मनुष्य को बचाएँ
इसी से बचेगी जिजीविषा।

3. समय बताएगा

हमने प्रेम की शक्ति को नहीं जाना
और घृणा भरे मन के घोड़े पर
सवार होकर
निकल पड़े दुनिया को जीतने
दुनिया के सारे अपराध
मन के चाहने से ही होते हैं
हमने मन को अनियंत्रित छोड़ दिया
और विवेक से नाता तोड़ लिया
इससे बढ़ती गईं
मन और विवेक की दूरियां
हमने मन का कहा माना
और अपने आराम के लिए
पेड़ों को काट दिया
हमने मन का कहा माना
और मनुष्यों को बांट दिया
हमने मन का कहा माना
और नदियों का जल कर दिया दूषित
हमने मन का कहा माना
और विसंगतियों को जन्म दिया
हमने वही किया
जो हमारा पागल मन चाहता रहा
आज जिन आपदाओं से हम घिरे हैं
इसके लिए दोषी कोई और नहीं, हम ही हैं
हमें फिर लौटना होगा जड़ों की ओर
और विवेक का लेना होगा साथ
मगर यह विवेक हममें कब आएगा
यह समय ही बताएगा।

पेंटिंग- पारस परमार
पेंटिंग- पारस परमार

4. माँ की निगाह

मैंने माँ को तब जाना
जब खूद मैं माँ हुई
उससे पहले मैं
उसकी सखी-सहेली थी
उसकी गोद में
उछल-उछल कर खेली थी
मेरे जिद के आगे अक्सर
वह हार जाती थी
मगर माँ ही है
जो अपने बच्चों की
खुशी के लिए
हार कर भी जीत जाती है
अब जब मैं खूद माँ हूँ
तो लगता है कि माँ होना
त्याग की चरम अवस्था है
जिसके बाद अपने लिए
नहीं रह जाती कोई चाह,
माँ की निगाह
पहाङ से झरता हुआ
वह झरना है
जिसकी शीतलता को
अंदर तक महसूस
किया जा सकता है।

5. बेटियाँ

बेटियाँ नियामत हैं पृथ्वी की
उन्हें जन्म देती हुई माँऍं
खुद को ही नए रूप में अवतरित करती हैं
और बेटी के रूप में अपने को पाकर
गहरे आनंद में डूब जाती हैं
बेटी जैसे-जैसे बड़ी होती है
माँ भी उसके साथ ही
वैसे-वैसे बड़ी होती है
मगर बड़ी होती हुई बेटी पर
माँ अपने दुख की छाया
नहीं पड़ने देना चाहती
बड़ी होती हुई बेटियाँ भी
माँ की इस पीड़ा को समझती हैं
इसलिए वह माँ के दुख को
भगाना चाहती हैं
मगर दुख है कि
भागने का नाम ही नहीं लेता
माँ के दुख को भगाने के लिए बेटियाँ
न जाने कब से दुख से लड़ रही हैं,
लड़ती हुई बेटियाँ आगे बढ़ रही हैं।

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