कवि पद्माकर को याद करते हुए

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— ध्रुव शुक्ल —

मारे शहर सागर में तालाब के किनारे चकराघाट पर कवि पद्माकर की प्रतिमा स्थापित है। इस तालाब के कई घाटों से हम चाॅंदनी रातों में नौका विहार करते थे। मुझे उनकी कविता में बसे प्रकृति, ऋतुकाल, पर्व और नायिकाओं के शब्दचित्र खूब भाते हैं। मैं उन चाॅंदनी रातों में उनके कवित्त गुनगुनाया करता। वे ‘गङ्गालहरी’ काव्य के भी रचयिता हैं। उन्हें कविता में अनुप्रास के सौन्दर्य के लिए भी प्रसिद्धि मिली है। वे हिन्दी साहित्य के रीतिकालीन कवि हैं। उनकी कविता की रुचिर अंगनाई में खेलते शब्दों की फिर याद आ गयी। होरी खेलकर घर लौट आयी एक किशोरी का यह दृश्यचित्र आज फिर मेरे मन को मोह रहा है —

आई खेली होरी घरै नवल किशोरी कहूॅं
बोरी गई रंग में सुगंधनि झकोरै है।
कहै पद्माकर इकंत चलि चौकी चढ़ि
हारन के बारन तें फंद बंद छोरै है।
घाघरे की घूमन सु उरुन दुबीचे दाबि
आंगी हूॅं उतारि सुकुमारि मुख मोरै है।
दंतन अधर दाबि दूनर भई-सी चापि
चौवर-पचौवर की चूनरी निचोरै है।

कवि कह रहे हैं — होरी के खुशबूदार रंगों में डुबकी लगाकर घर आयी नवल किशोरी की देह रंगों की सुगंध से भरे झकोरे मार रही है। वह घर के किसी एकान्त कोने में किसी चौकी पर चढ़कर अपने कण्ठहार में उलझ गये केशों को सुलझा रही है। फिर उसने घाघरे की घूमन को दोनों उरोजों के बीच दबाकर अंगिया उतारते हुए लाज से भरकर मुख मोड़ लिया है। अब अधरों को दांतों से दबाये हुए अपनी चूनर निचोड़ रही है।

कवि पद्माकर की इस पद-रचना में एकान्त और उसमें भी गुंथी लोक-लाज की देह-छटा भावविभोर करती है और मुझे इसी चकराघाट पर कभी नहाती वे नारियां याद आती हैं जो खुले आकाश के नीचे घाट पर आये अजनबी लोगों की नज़रों के बीच अपना एकान्त इसी तरह रच लेती थीं। कवि निराला की कविता याद आती है — ‘बांधो न नाव इस ठाॅंव बन्धु, पूछेगा सारा गाॅंव बन्धु’। शहर की देह पर निर्मल मन जैसा फैला यह तालाब सिकुड़कर अब बहुत छोटा हो गया है और आधुनिक मानस रोगों के कारण इस तालाब के घाटों का लोक-लाज से भरा एकान्त भंग हो रहा है।

कामना, एकान्त और लोक-लाज के बीच कोई गहरा संबंध ज़रूर है। पहले हो गये कविगण इसे कविता में बड़ी खूबी से रचते रहे हैं। कुछ विरले समकालीन कवि इसे साधने की काव्यचेष्टा आज भी किया करते हैं। कवि पद्माकर के जमाने में कविता केवल कविताई नहीं थी, वह तो राधिका-कन्हाई के सुमिरन का बहाना भी थी। कवि जयदेव और विद्यापति से चली आ रही कविता को प्रेम में पागकर सहृदयों को भावविभोर कर देने की यह काव्य कला आज भी रससिक्त करती है।

प्रेम कविता सिर्फ़ नश्वर देह के प्रति कामासक्ति से भरी कोई शब्द संरचना नहीं है। अगर कालिदास के कविसंभव काव्य में डूबा साधकर देखें तो वाक् और अर्थ की संपृक्ति से रचे गये युगल प्रेमगीत के प्रत्येक छंद में पूरी सृष्टि प्रिया और प्रेमी की तरह बसी हुई प्रतीत होती है — जहां शब्द और अर्थ एक-दूसरे में पूरे होने के लिए अपने-अपने अर्धाङ्ग से गुंथे हुए हैं। वे जल और जल की लहर की तरह अभिन्न होकर परस्पर आश्रय में आभासित हो रहे हैं। इन अनादि प्रेमियों के आगे आधुनिक स्त्री-पुरुष विमर्श कितने बौने नज़र आते हैं।

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