— डॉ. नरेश भार्गव —
रामचंद्र गुहा ने अपनी पुस्तक में लोहिया को ठीक ही संज्ञा दी है-धरती का मूल समाजवादी। समाजवाद की अनेक व्याख्याएँ उस समय व्याप्त थीं और अभी भी हैं। लोहिया भी उन्हीं व्याख्याओं के साथ जुट पड़े थे। पुर उनके समाजवाद द्वारा पूर्व चिंतन को नकारना नहीं था। गैर-बराबरी, शोषण, पूँजीवाद से उपजा अलगाव और समता के अनेक रूप उनके चिंतन में शामिल थे।
स्वतंत्र भारत में संघर्ष के लिए उनके पास अनेक युद्ध थे। सामाजिक, सांस्कृतिक तथा आथक मुद्दे अब भी करीब-करीब उसी रूप में मौजूद हैं, जो उनके समय में मौजूद थे। अब प्रश्न यह है कि लोहिया को किस रूप में याद किया जाए। एक राजनीतिज्ञ के रूप में या भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक आधारों पर एक चिंतक के रूप में या भारतीय समाज को परखने के लिए अलग सोच रखनेवाले व्यक्ति के रूप में। यदि विचार किया जाए तो लोहिया की राजनीति के अपने स्वरूप थे। सिद्धांतों के प्रति उनकी निष्ठा प्रबल थी। इसलिए उन्हें हर स्तर पर संघर्षशील भी माना गया। समाजवादी दलों की कई टूट और स्वयं अपनी ही पार्टी की सरकार के मुखिया पद्मप्रभु पिल्लै की सरकार हटाने की माँग सैद्धांतिक प्रतिबद्धता का ही नमूना था।
लोहिया की व्यावहारिक नीति में बढ़ते हुए दाम आम ओदमी को प्रभावित करते हैं। लोहिया की एक चिंता बढ़ते हुए एक विलासी वर्ग की भी थी। खर्च पर सीमा की नीति ऐसे ही वर्ग के लिए थी। नए अध्ययनों ने इस बात का संकेत दिया है कि शहरों में उगता नव मध्यम वर्ग उपभोक्तावाद का प्रतीक है और विश्व बाजार का पोषक है। पर लोहिया उदारवादी ही रहे।
भारत जैसे देश में यह खुर्चीला वर्ग अर्थव्यवस्था को बाजारी तथा उपभोक्तावाद् के अधिक पासु ले जाता है। कहना न होगा कि इन दोनों तथ्यों पर बहस बहुत तेज है। कहीं लोहिया उन खतरों को तो नहीं भाँप रहे थे, जो ऐसे वर्ग के साथ जुड़ी हुई थी। उत्पादन के उचित मूल्य की चर्चा भी लोहिया ने की थी। लोहिया का अर्थशास्त्र भारत के संदर्भ में माक्स से आगे का था। पूँजीवाद से भारतीय समाज के लिए खतरों को लोहिया जानते थे, इसीलिए उन्होंने भारतीय सुंदूर्भ के समाजवाद की बात की थी। लोहिया की पुस्तक ‘अर्थशास्त्र मार्क्सवाद से आगे’ मैं लोहिया ने नव पूँजीवाद में उभरते आधारों की चर्चा की है। इससे यह पता चलता है कि लोहिया का समाजशास्त्र शायद अधिक प्रासंगिक व न्यायिक था। समाज की इन व्यवस्थाओं को उन्होंने कई संदभों में देखा था।
अन्य समाजों की तरह लोहिया की चिंता गैर-बराबरीवाले समाजों की थी। बँटा हुआ पिछड़ा समाज वे देश के लिए अभिशाप मानते थे। इस पिछड़े और बँटे हुए समाज में जाति पर विषद् चर्चाएँ भारतीय समाज-शास्त्र में हुई हैं। जातियों के वर्णन हुए हैं और कई स्थानों पर जाति संरचना से उत्पन्न विभेदीकरण तथा शोषण की चर्चा भी हुई है। शोषण तथा गैर-बराबरी समाप्त करने के लिए उन्होंने ‘जाति तोड़ो’ का नारा दिया था। सारे समाज में गैर- बराबरी का संबंध केवल जाति से ही है, ऐसा उन्होंने माना था।
लोहिया के लिए द्रौपदी का विद्रोह संभवतः नारी के लिए सबसे अच्छा आदर्श था। पुरुष के अनैतिक दबाव तथा मर्यादा-विहीन आचरण के विरुद्ध द्रौपदी का संभाषण लोहिया को नर-नारी विषमता के प्रचलित स्तरों की ओर ले जाता था। लोहिया की सप्तक्रांति में इस विषमता के प्रति संघर्ष का आह्वान था। समाज की संरचना के बदलने के लिए मार्क्स की तरह लोहिया ने भी संघर्ष और वंदूव को समझा; पर संघर्ष और द्वंद्व की समझ अलग थी। नारी के अधिकारों की रचनाओं के बीच लोहिया फिर से बराबरी की बात करते हैं। यह बराबरी अधिकारों की बराबरी की है। सामाजिक संरचनाओं के इस बदलाव को लोहिया प्रमुख मानते थे।
यह चर्चा लोहिया की समाज-दृष्टि के लिए आवश्यक है। भारत की सामाजिक संरचना की विविधुता से वे भलीभाँति परिचित थे। वे उन सामाजिक विसंगतियों से परिचित थे, जो भारतीय समाज में विसंगतियाँ पैदा करते हैं। दुनिया में कहीं भी मरने का अधिकार हो। इस स्थिति में उनका यह बयान मजेदार है कि उसकी दुनिया तभी बनेगा, जब वह मानव जाति वर्ण-संकर हो जाएगी तथा राष्ट्र रंग अथवा ऐसे ही किसी विभाजन से मुक्त हो जाएगी। लोहिया का यह विश्व समाज का स्वप्न था।
भारतीय समाज में जाति को उन्होंने पारंपरिक शोषण के रूप में स्वीकार किया। जाति के संबंध में लोहिया की समझ कई तरह की थी। राजनीति में जाति की भूमिका जातिवाद और स्वयं-जाति सभी पर लोहिया ने टिप्पणी की थी। वस्तुतः लोहिया जाति-प्रथा के विरोधी थे। भारतीय समाज का नाश करने में जाति की महती भूमिका थी, ऐसा लोहिया का विश्वास रहा। उनका आरोप था कि भारत के तथाकथित सुसंस्कृत लोग जाति-प्रथा के संबंध में हौले-हौले बात करते हैं। उनके अनुसार, ऐसे कामों में जाति के दो चक्र होते हैं। पहले चक्र में उसी जाति के लोग अपनी जाति के लोगों की मदद करते हैं और दूसरी जाति के लिए सीमांत पर खड़े रहते हैं।
बाद में उन्होंने ‘हिंदू बनाम हिंदू’ और ‘हिंदू तथा मुसलमान’ जैसे लेखों में उन संबंधों की भी चर्चा की, जो सांप्रदायिक दृष्टि से परे देखे जाते हैं। स्वयं हिंदू समाज में परस्पर विरोधी स्थिति की चर्चा है। लोहिया ने लिखा था कि भारतीय इतिहास में हिंदू धर्म में सबसे बड़ी लड़ाई कट्टरवाद और उदारवाद के बीच रही है। कट्टरपंथी और उदारवादी हिंदू के बीच के पारस्परिक मतभेदों की चर्चा शायद हिंदू राजनीति को अच्छा न लगा। लोहिया
का धर्म का समाज-शास्त्र किसी पूर्वग्रह से नहीं चलता। कहीं किसी यथार्थ चित्र के साथ सारा विश्लेषण धर्म संबंधी उनके अपने दृष्टिकोण की ओर ले जाता है। हिंदू धर्म की समन्वयता का उल्लेख उन्होंने किया था। लोहिया हिंदू-मुसलिम एकता के इस नारे को राजनीतिक व सांस्कृतिक नारा मानते थे। उनकी दृष्टि में हिंदू- मुसलिम संबंधों को इस रूप में देखा जाना चाहिए।
लोहिया के पास नारे नहीं थे, आंदोलन और संघर्ष थे। उनका जातियों के प्रति संघर्ष ‘जाति तोड़ो’ आंदोलन था। लोहिया के इन बिखरे सूत्रों को संभवतः लोहिया की समग्र समाज-वृद्धि के साथ जोड़ना पड़ेगा। एक बड़ा प्रश्न, जो कभी-कभी उभर जोता है और वह कि आखिर लोहिया की समाज संरचना की दृष्टि क्या थी। तो फिर समाज की संरचना का क्या रूप हो? लोहिया की समता और संपन्नता महत्त्वपूर्ण है। न केवल समता, साथ ही संपन्नता उनके समाज का शब्द चित्र था। लोहिया की सामाजिक संरचना इन्हीं दोनों अवधारणाओं पर केंद्रित थी। समता की व्याख्या की संभावना गैर-बराब्री और उसके द्वारा उत्पन्न शोषण से मुक्ति का प्रिणाम् समतामूलक समाज है। संपन्नता व्यक्ति व समाज दोनों की ही संपन्नतो से संबंधित है।
लोहिया यह जानते थे कि इस स्वप्न को प्राप्त करना इतना आसान नहीं। पर ऐसे समाज का प्रयत्न लोहिया की आथक, सामाजिक, राजनीतिक नीतियों में देखा जा सकता है। वर्तमान समाज की निराशा के संदर्भों को उन्होंने निराशा के कर्तव्य में देखा था। जड़ समाज को तोड़ना इतना आसान नहीं। लोहिया की नीतियों का हर प्रहार उसी जड़ समाज पर था, जिसे वे बदलना चाहते थे और नए समाज की संरचना को बदलने के लिए प्रयत्नशील थे। इस प्रकार लोहिया का समाजशास्त्र गैर-बराबरी, भारत की सांस्कृतिक संरचना, सामाजिक परिवर्तन तथा नई सामाजिक संरचना के प्रयासों के साथ जुड़ा हुआ है।
(पुस्तक संदर्भ: डॉ. कन्हैया त्रिपाठी, डॉ. राममनोहर लोहिया और सतत समाजवाद, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली।)