किस चीज के लिए हुए हैं जम्मू-कश्मीर के चुनाव

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Jammu & Kashmir election

chandra bhooshan

— चंद्रभूषण —

म्मू-कश्मीर विधानसभा के लिए चली चुनाव प्रक्रिया खासी लंबी रही लेकिन इससे उसकी गहमागहमी और रंगबिरंगेपन में कोई कमी नहीं देखने को मिली। वोटिंग प्रतिशत भी इस राज्य में अबतक हुए चुनावों की तुलना में अच्छा ही कहा जाएगा। पूरे दस साल और तीन महीने बाद जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव हुए हैं लेकिन लोगों में इसे लेकर न कोई आलस्य दिखा, न ही वैसा कोई अनमनापन, जिसकी आशंका 2019 में लद्दाख को इससे अलग करने और इसका पूर्ण राज्य का दर्जा खत्म कर दिए जाने के बाद से जताई जा रही थी।

किसी भी संगठन की ओर से चुनाव बहिष्कार का आह्वान नहीं आया। जमात-ए-इस्लामी जैसी पाकिस्तान-परस्त पार्टियां भी किसी न किसी स्तर पर चुनाव में शामिल हुईं। इससे एक बात साफ है कि लोकतंत्र धीरे-धीरे यहां की जीवनशैली का हिस्सा बन चुका है। फिर भी एक सवाल रह जाता है कि क्या जम्मू-कश्मीर के मतदाताओं को यह जानकारी है कि जिस संस्था के चुनाव के लिए उन्होंने वोट डाले हैं, वह क्या कर सकती है और क्या नहीं कर सकती?

5 अगस्त 2019 में हुए संविधान संशोधन के बाद जम्मू-कश्मीर विधानसभा की स्थिति निश्चित रूप से काफी बदल चुकी है। इस बदलाव के तहत न केवल संविधान के अनुच्छेद 370 के वे हिस्से निरस्त कर दिए गए, जिनसे जम्मू-कश्मीर को विदेश, प्रतिरक्षा और संचार के अलावा बाकी मामलों में अपना रास्ता बनाने की स्वायत्तता मिलती थी, बल्कि लद्दाख को उससे अलग करके इन दोनों राज्यों को केंद्रशासित प्रदेश का दर्जा दे दिया गया। जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन कानून-2019 के मुताबिक यह दर्जा जम्मू-कश्मीर को दिल्ली और पॉन्डिचेरी की तरह विधानसभा के साथ और लद्दाख को चंडीगढ़ की तरह विधानसभा के बगैर दिया गया, जिसके खिलाफ हाल में पहली बार वहां बड़ा आंदोलन देखने को मिला है।

नए, केंद्रशासित जम्मू-कश्मीर के लिए यह पहला विधानसभा चुनाव है, लेकिन राज्य की जनता अपने विधायकों से जितनी कम उम्मीद लेकर चले, उतना ही अच्छा। इसके लिए दिल्ली का उदाहरण हमारे सामने है, जहां पिछले कुछ वर्षों में कदम-कदम पर सुप्रीम कोर्ट को यह बताना पड़ रहा है कि यहां की चुनी हुई सरकार क्या कर सकती है और क्या नहीं कर सकती। नौकरशाही अपनी जवाबदेही उप-राज्यपाल के प्रति मानती है। मुख्यमंत्री समेत आधे मंत्रिमंडल को अच्छा-खासा वक्त जेल में बिताना पड़ा है और जमानत मिल जाने के बाद भी अपने पद से जुड़े कामकाज संपन्न करने की इजाजत नहीं मिल पाई है।

सवाल यह है कि आने वाले दिनों में क्या जम्मू-कश्मीर में भी इन्हीं स्थितियों का दोहराव देखने को मिलेगा? ठीक-ठीक ऐसा न हो तो भी, हालात क्या कहते हैं? जम्मू-कश्मीर विधानसभा और वहां की निर्वाचित सरकार के लिए काम करना दिल्ली से कम मुश्किल होगा या ज्यादा? कम मुश्किल तो एक ही स्थिति में हो सकता है कि राज्य में बीजेपी की सरकार बन जाए। अकेले, या उसके एकतरफा नेतृत्व वाली सरकार। और किसी भी स्थिति में राज्य की सरकार के लिए काम करना दिल्ली जितना ही, बल्कि उससे थोड़ा ज्यादा ही मुश्किल होगा।

जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम में साफ लिखा है कि वित्तीय फैसले लेने का अधिकार उप-राज्यपाल के ही पास होगा।cविधानसभा कैसी भी बहस कर ले, कोई भी कानून बना ले, उसे जमीन पर उतारने के लिए कुछ पैसे तो खर्च करने ही होंगे। बिना खर्चे के तो कोई भी कानून व्यर्थ ही रहेगा। इतना ही नहीं, हर कानून के मसविदे को भी पहले उप-राज्यपाल की नजर से गुजरना होगा। पूरे अधिकार वाले राज्यों की तरह जम्मू-कश्मीर मंत्रिमंडल की कोई भी सलाह उप-राज्यपाल के लिए बाध्यकारी नहीं है। इसके उलट, मंत्रिमंडल की भूमिका सिर्फ उप-राज्यपाल को सलाह देने की है। सलाह उन्हें माननी है या जड़ से नहीं माननी, वही तय करेंगे।

रही बात विधायकों के जमीनी कामकाज की तो स्थानीय निकायों के चुने हुए प्रतिनिधियों और उनके बीच निरंतर क्लेश की स्थिति बनी रहने वाली है। दिल्ली में स्थानीय निकाय का मतलब सिर्फ नगर निगमों और कैंटोनमेंट बोर्डों से लिया जाता है जबकि जम्मू-कश्मीर जैसे मुख्यतः ग्रामीण आबादी वाले विशाल राज्य में पंचायती ढांचे की भूमिका स्थानीय निकायों के रूप में काफी बड़ी होगी। पिछले छह वर्षों से राज्य का समूचा विकास कार्य उप-राज्यपाल और इन स्थानीय निकायों के बीच की सीधी समझदारी से चल रहा है। धन के वितरण की व्यवस्था और प्रचार-प्रसार का एलाइनमेंट भी ऐसा ही बना हुआ है।

इस नेटवर्क में अपने लिए अलग जगह बनाना विधायकों के लिए खासा मुश्किल होगा। खासकर तब, जब उनके कामकाज के लिए पैसे सैंक्शन करने का अधिकार भी उप-राज्यपाल के ही पास हो। तत्काल सबसे बड़ी समस्या पुलिस-प्रशासन और जमीन-जायदाद के स्तर पर आने वाली है। दिल्ली में ये दोनों ढांचे कभी भी चुनी हुई सरकार के पास नहीं रहे लिहाजा राजनेता शुरू से इन्हें अपनी पहुंच से बाहर ही मानते रहे हैं। लेकिन जम्मू-कश्मीर में तो निर्वाचित सरकार की औकात ही इन दोनों विभागों से शुरू होती रही है। नई सरकार के हाथ में ये दोनों नहीं होंगे।

पुलिस और जमीन से जुड़े अमले की शिकायतें कहीं और जाएंगी, लिहाजा इस सरकार के जिम्मेदार लोगों को, खासकर मंत्रियों को बार-बार सोचना पड़ेगा कि उनके होने का कोई मतलब भी है या नहीं। जम्मू-कश्मीर का किसान अपने खेतों में धान और सब्जियां उपजाकर कठिन स्थितियों में भी अपना चूल्हा जला सके, इसके लिए लगभग शुरुआत से ही राज्य में यह कानून बना हुआ था कि भारी नकदी की मांग करने वाला और बाजार से लेकर मौसम तक की अनिश्चितता झेलने वाला सेब के बागान लगाने का काम एक निश्चित रकबे से ज्यादा पर खेती करने वाले किसान ही कर सकेंगे। 2019 के बदलाव के बाद उप-राज्यपाल ने नीचे तक असर डालने वाला पहला काम यह कानून खत्म करने का ही किया। इस आधार पर कि इसने छोटे किसानों के पांवों में बेड़ियां डाल रखी थीं।

समय ही बताएगा कि यह फैसला कितना सही था। जम्मू-कश्मीर के बागानों की उपज लगातार राज्य से बाहर अच्छी कीमत पर बिकती रहे और बाहर से रोजमर्रा की जरूरत वाला अनाज बिना किसी बाधा के बाहर से जम्मू-कश्मीर के घर-घर में पहुंचता रहे तो आगे भी कोई समस्या नहीं आनी चाहिए। लेकिन नकदी खेती के साथ हमेशा खतरे जुड़े होते हैं, जिनसे निपटने के लिए राज्य की चुनी हुई सरकार कुछ करना चाहे तो नहीं कर सकती।

रही बात पुलिस-प्रशासन की, तो जम्मू-कश्मीर में सेना से उसका तालमेल हमेशा से केंद्र सरकार के लिए एक बड़ी समस्या रहा है। केंद्रशासित राज्य बन जाने के बाद यह झंझट हमेशा के लिए खत्म हो गया है। पुलिस के सिपाही से लेकर अफसरों तक की नियुक्ति और उनकी तरक्की-तबादला सारा कुछ उप-राज्यपाल के दफ्तर के अधीन है, लिहाजा शरारती या साजिशाना तत्वों के लिए इस ढांचे में ज्यादा गुंजाइश नहीं बची है। इससे आगे मामला पुलिस की अपनी सुरक्षा, लोगों के बीच उसकी जगह और निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों के साथ उसके रिश्ते का ही बचता है।

अबतक माना जाता रहा है कि पुलिस के लोग स्थानीय आबादी के बीच से आते हैं, उसकी बोली-बानी समझते हैं, बाबू-भैया कहकर छोटे-मोटे मामलों में उसे शांत करा सकते हैं। जरूरी हो तो लोकल एमएलए, पार्षद या सरपंच की डांट भी सुन लेते हैं। यह किस्सा खत्म हो जाने के बाद राज्य के आम लोग धीरे-धीरे पुलिस को भी जम्मू-कश्मीर के बजाय केंद्र की ही एक संस्था की तरह देखने लगेंगे। अशांति की स्थिति में परिचय और लगाव से जो थोड़ी सुरक्षा उसे मिल जाती थी, वह नहीं मिलेगी।

ऐसे में मामला विधायक की हनक भर का नहीं रहेगा। पुलिस से उसका रिश्ता अगर स्थायी तनाव-खिंचाव का बनता गया तो इतने संवेदनशील राज्य के लिए यह कोई राहत की बात नहीं होगी। (यह लेख रविवार पत्रिका के नवीनतम अंक में प्रकाशित है।)

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