धर्म , राजनीति और डॉ राम मनोहर लोहिया

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राममनोहर लोहिया
राममनोहर लोहिया (23 मार्च 1910 - 12 अक्टूबर 1967)

— डॉ. पी. एन. सिंह —

डॉ. लोहिया धर्म और राजनीति को एक अनिवार्य सामाजिक तथ्य के रूप में स्वीकार कर इन पर सोचते हैं। अगर समाज है तो धर्म और राजनीति दोनों रहेंगे। एक मनुष्य के श्रेयस की तलाश के रूप में और दूसरा तात्कालिक बुराइयों के विरुद्ध संघर्ष के उपकरण के रूप में। अतः दोनों में से कोई भी मानव जीवन में अप्रत्याशित अथवा अवांछित या अप्रासंगिक हस्तक्षेप नहीं है। डॉ. लोहिया का मानना है कि ‘पुराना समाजवाद’ इस प्रकार नहीं सोचता था। वह धर्म के प्रति निषेधात्मक दृष्टि रखता था, इसे ‘अफीम’ मानता था। उसके बाद का समाजवाद अपने को सेक्युलर घोषित कर धर्म के प्रति उदासीन हो गया। इन दोनों ही दृष्टियों को डॉ. लोहिया ‘अधूरी’ मानते हैं।

उनके अनुसार कम-से-कम चार रूपों में धर्म की भूमिका स्पष्ट दिखती है। एक, विभिन्न धर्मों के बीच संघर्ष और कभी-कभी तो रक्त-रंजित संघर्ष के रूप में दो, विषम संपत्ति-संबंध, जाति और स्त्रियों की वर्तमान दुःखद स्थिति के संरक्षक के रूप में; तीन, अच्छे आचरण हेतु सामाजिक-नैतिक शिक्षण के रूप में; और चार, ध्यान व करुणा हेतु अपेक्षित अनुशासन के रूप में। इन चार भूमिकाओं पर डॉ. लोहिया की टिप्पणी ध्यातव्य है-

‘पहली दो अभिव्यक्तियाँ सचमुच धर्म को आम जन के लिए अफीम बनाती हैं। राजनीति को धामक बनाने और इस प्रकार सत्ता-संघर्ष को थौड़ा नरम बनाने के बजाय धर्म स्वयं राजनीतिक बन जाता है और इस प्रकार कलह में मतांधता जोड़ता है। ऐसें धर्म की सचमुच निंदा की जानी चाहिए। लेकिन धर्म संबंधी दूसरी दो अभिव्यक्तियाँ राजनीति या समाज के लिए अप्रासंगिक नहीं हो सकतीं।” इस प्रकार डॉ. लोहिया की दृष्टि में धर्म की दो नकारात्मक और दो रचनात्मक भूमिकाएँ हैं।

अतः, वे समाजवादियों को सलाह देते हैं कि चाहे वह स्वयं विश्वासी या नास्तिक या अज्ञेयवादी भले हो, उन्हें धर्म संबंधी अपनी स्थापनाओं में जिद्दी एवं झगड़ालू न होकर ‘एक्सप्लोरेटिव’ (अन्वेषी) होना चाहिए तथा धर्म-अधर्म के अनावश्यक द्वंद्व से यथासंभव बचना चाहिए। लेकिन साथ ही वे यह भी कहते हैं कि ‘सारे धर्मों की मूलभूत एकता’ की अवधारणा उत्तरोत्तर विकसित हो रही है; लेकिन इत्ने से काम नहीं चलेगा। इसके साथ ही ‘सारे धर्मों’ की मूलभूत अपर्याप्तता के विचार पर भी चिंतन-मनन होना चाहिए। इसके बावजूद धर्म की शेष दो रचनात्मक भूमिकाओं ‘करुणामय अनुशासन और नैतिक शिक्षा’ को ध्यान में रखकर इसके प्रति कमोबेश सहिष्णु होना चाहिए। इसी दायरे में डॉ. लोहिया व्यक्ति और समाज की परस्पर विरोधी स्थिति का समाधान भी प्रस्तुत करना चाहते हैं। उनका कहना है कि व्यक्ति स्वयं में साधन है और साध्य भी है।

वह वर्तमान की अभिव्यक्ति होते हुए भी मानव नियति का निर्माता तथा अपने माहौल का रचनाकार एवं परिवर्तनकर्ता है। अतः अच्छे मनुष्य का निर्माण तथा समाज-निर्माण की प्रक्रियाएँ साथ-साथ चलती रहनी चाहिए। यहीं पर धर्म और राजनीति परस्पर पूरक भूमिका में साथ-साथ क्रियाशील दिखते हैं, जिसका प्रयोग महात्मा गांधी आजीवन करते रहे। डॉ. लोहिया का मानना है- “क्रांति होने तक अच्छे व्यक्ति का निर्माण स्थगित नहीं रखा जा सकता और न ही सबके भला बन जाने तक क्रांति को ही स्थगित किया जा सकता है।” इस अच्छे व्यक्ति के निर्माण में धुर्म की करुणामय व नैतिक भूमिका महत्त्वपूर्ण है, ताकि सामाजिक रूपांतरण की राजनीतिक प्रक्रिया थोड़ी नम्र और कम संघर्षपूर्ण हो। महात्मा गांधी का ‘सत्याग्रह’ ऐसा ही एक प्रयास था।

डॉ. लोहिया ने कई एक स्थानों पर धर्म पर स्वतंत्र रूप में भी विचार किया और उसके राजनीतिक-सामाजिक आयामों पर महत्त्वपूर्ण स्थापनाएँ दी हैं। उनकी एक टिप्पणी कि “धर्म दीर्घकालीन राजनीति है और राजनीति अल्पकालीन धर्म” जो प्रत्येक समाजवादी की जीभ पर रहती है; लेकिन इसके साथ ही डॉ. लोहिया की कुछ व्यापक चिंताएँ भी हैं, जो भुला दी जाती हैं-

“धर्म और राजनीति का रिश्ता बिगड़ गया है। धर्म दीर्घकालीन राजनीति है और राजनीति अल्पकालीन धर्म । धर्म श्रेयस की उपलब्धि का प्रयत्न करता है, राजनीति बुराई से लड़ती है। हम आज एक दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थिति में हैं, जिसमें कि बुराई से विरोध की लड़ाई में धर्म का कोई वास्ता नहीं रह गया है और वह निर्जीव हो गया है। जबकि राजनीति बिलकुल कलही और बेकार हो गई है।”

डॉ. लोहिया ने यहाँ आत्यंतिक और तात्कालिक को मिलाने पर जोर दिया है। अगर धर्म तात्कालिक के समाधान संबंधी राजनीतिक संघर्ष में सहयोगी नहीं बनता तो वह निर्जीव हो जाता है और धर्म के संबल के अभाव में राजनीति भी विकृत हो जाती है। अतः डॉ. लोहिया इन दोनों की परस्पर पूरक भूमिका पर बल देते हैं। लेकिन डॉ. लोहिया की ये स्थापनाएँ मुझे अस्पष्ट एवं रूमानी लगती हैं, यद्यपि ये आकृषत करती हैं। संभवतः आकर्षण इनकी अस्पष्टता और रूमानियत के चलते हैं। इसमें अंतूवरोध हैं। एक ओर धर्म ‘श्रेयस’ का प्रयास है तथा दूसरी ओर यह राजनीतिक प्रक्रिया का दीर्घकालीन हिस्सा हैं। इसमें धर्म और राजनीति दोनों का रहस्यीकरण होता हैं। राजनीति पर धर्म का लेप न लगाकर यह कहा जा सकता था कि राजनीति एक शाश्वत मानवीय स्रोकार है। यह एक अनिवार्य एवं महत्त्वपूर्ण सामाजिक दायित्व है। यह कलही कम हो, इसके लिए प्रयास होने चाहिए।

लेकिन यह धर्म के मेल से नहीं होगा, क्योंकि धर्म आत्यंतिकता के नाम पर राजनीति में कट्टरता, मतांधता जोड़ेगा, जिससे डॉ. लोहिया वाकिफ हैं। इसीलिए वे एक जगह यह भी कहते हैं कि धर्म को व्यक्तिगत दायरों तक ही सीमित रखा जाना चाहिए। एक और परेशानी है। धर्म का ‘श्रेयस’ क्या है? रोजी-रोटी या स्वर्ग, मोक्ष, ब्बिान, बहिश्रुत, ईश्वरीय लोक इत्यादि ? प्रचलित अर्थों में धामकता लोकोन्मुख नहीं होती और न ही यह अपनी सोच-समझ में वैज्ञानिक होती है। इसीलिए जब यह राजनीतिक बनती है तो अपनी एक आयामी आश्वस्तता के चलते असहिष्णु हो जाती है। इंग्लैंड का प्यूरिटन् शासन, औरंगजेब का इसलामी शुद्धतावाद, ईरान और अफगानिस्तान की इसलामी क्रांतियाँ, महाराष्ट्र का पेशवा शासन इसके उदाहरण हैं। अतः राजनीति से धर्म का जुड़ाव राजनीति को कट्टरता प्रदान करेगा और धर्म सत्ता-मद में चूर हो अपनी धामकता खो देगा।

मुझे धर्म का नैतिकता से भी कोई अनिवार्य संबंध नहीं दिखता। अपने अगल-बगल के धामक लोगों की संकुचित-निरपेक्ष आचरण और सीमित इत्यादि खटकते हैं। इनकी नैतिकता भी समाज सापेक्ष होती है, धर्म सापेक्ष नैतिकता कर्मकांडी निष्ठा है, और कुछ भी नहीं। यह समय से पूजा-पाठ, नमाज, व्रत, अनुष्ठान, गायत्री इत्यादि है। लेकिन जीवन-संग्राम में सब एक जैसे दिखते हैं, बल्कि धोमक कुछ अधिक निद्वदव एवं उन्मुक्त। लोहियाजी इससे भी वाकिफ हैं। अतः वे गांधीजी का ‘दरिद्रनारायण वाला’ धर्म चाहते हैं, क्योंकि दरिद्र नारायण का हित- अहित जो है, उसे ही यदि आप किसी अर्थ में धर्म समझो तो बेहतर होगा। लेकिन यह धर्म का वास्तविक सरोकार नहीं है। अर्थात् धर्म का श्रेयस भी इहलौकिक होना चाहिए।

डॉ. लोहिया को एक सीमा तक कर्मकांड भी पसंद है, क्योंकि कर्मकांड की भावना धर्म और जीवन को पवित्रता-बोध प्रदान करती है और ‘शायद इससे कुछ अच्छे नतीजे भी निकलते हों।’ एक सीमा तक यह सही भी है। लेकिन उन्हें हिंदू धर्म की कर्मकांडी लोकोत्तरता पसंद नहीं है, क्योंकि इसके चलते हिंदू समाज इतिहास में आत्म-समर्पण क्रता, पराजित् होता रहा है। इसमें वे ‘तेजस्विता’ लाने की बात करते हैं, ऐसी तेजस्विता जो सांप्रदायिक विद्वेष से मुक्त हो। उनका आशय ‘मर्यादा के मुताबिक परिवर्तन करना, अपनी जनता को प्राणवान् बनाना है।’ धर्म तेजस्वी हो और सहिष्णु एवं परिवर्तनकारी हो, असंभव लगता है। लोहियाजी की स्थापनाओं में यह विरोधाभास दिखता है। हिंदू धर्म अपने ‘श्रेयस’ की अवधारणा से तर्कसंगत है।

इस दृष्टि से देखने पर कार्ल मार्क्स की धर्म संबंधी समझ अधिक वस्तुनिष्ठ एवं सुसंगत लगती है– ‘धर्म उलटी चेतना है। यह वास्तविक दुःख की काल्पनिक क्षतिपूत है। यह वास्तविक समस्या का काल्पनिक समाधान है। यह वंचित तेजस्विता की वापसी की अवास्तविक अभिव्यक्ति है, और साथ ही यह हृदयहीन परिस्थिति का हृदय भी है।’ अर्थात् धर्म अपने किस्म का सुकून है, सुख है, आनंद भी है और अफीम भी है तथा वास्तविक दुःख और वंचना की विडंबनापूर्ण अभिव्यक्ति है। इसीलिए अपूर्णताओं एवं संघर्षों से भरे समाज में इसके बिना काम नहीं चल पाता। धर्म एवं कर्मकांड संबंधी थोडे रूमानी लगाव के बावजूद डॉ. लोहिया का विश्लेषण पसंद आता है, क्योंकि वे अपने उपागम में विधेयवादी न होकर ‘एक्सप्लोरेटिव और रचनात्मक हैं।

कुल मिलाकर धर्म और राजनीति के प्रति उनका दृष्टिकोण सामाजिक-सांस्कृतिक है, जो धर्म और राजनीति दोनों की अस्मिता को स्वीकार तो करता है लेकिन उनसे अभिभूत नहीं है। एक ओर वे धर्मों की मूलभूत अपर्याप्तता को रेखांकित करते हैं तो दूस्री ओर वे राजनीति के कलही स्वरूप को भी उजागर करते हैं। उन्हें विश्वास है कि राजनीति और धर्म के परस्पर रचनात्मक सहयोग से धर्म सामाजिक सरोकारों से जुड़कर अपने ‘मूलभूत अधूरेपन’ को अतिक्रांत करेगा और राजनीति दूरस्थ ‘श्रेयस’ के प्रति संवेदनशील होकर अपनी कलही तात्कालिकता को अतिक्रमित कर सकेगी।

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