साम्प्रदायिक समाजवाद का दिवालियापन

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Ram Manohar Lohiya

साम्प्रदायिक समाजवाद का दिवालियापन सिध्द करते हुए, अगस्त 1958 में लोहिया ने कहा था कि-

“….तारीख, महीना, साल और उन क्रमों का पूरा ब्यौरा देना कठिन है जिनके सिलसिले में समाजवाद अपनी अंतरात्मा खो बैठा।इस क्रम की कड़ियों का पता जरूर लग सकता है,लेकिन हर देश में अंदरूनी हालात के माफिक ही ये कड़ियाँ बनती हैं और इन कड़ियों की ठीक जानकारी लगाना, खोज करने वालों के मन और बुद्धि पर भी निर्भर है।

लेकिन इन अलग अलग देशों की जंजीर की कड़ियों में भी, शुरू में क्रांतिकारी परिवर्तन की भावना अवश्य प्रबल रूप से मौजूद थी।
राजगद्दी हासिल करने की इच्छा भी शुरू से ही है।लेकिन क्रांति या राजसत्ता हस्तगत न कर सकने पर जो उत्साहहीनता और नाउम्मीदी की हवा फैली, उसके बाद अन्य दलों और शक्तियों के साथ मिलजुलकर काम करने की मनोवृत्ति पैदा हुई।

इस तरह दूसरों को अपने अनुरूप बनाने और उनके साथ समझौता करके चलने के लिए, समाजवादियों ने अपने सिद्धांतों का परित्याग कर दिया।सिद्धांतों से बार बार दूर होने पर वह आदत पैदा होती है जिसमें नीति भी अनावश्यक लगने लगती है। ऐसी पाँच कड़ियों से समाजवाद का पतन हो गया है।सिद्धांत से भटकने की वजह से षडयंत्र और चालबाजी का दौर शुरू होता है, और इन छलप्रपंचों को तानाशाही के खिलाफ सामान्य कार्यक्रम का सुंदर जामा पहना दिया जाता है।

इस प्रकार के समाजवाद की आखिरी अपरिहार्य है पूंजीवाद या कम्युनिज़्म-आज की दो ताकतवर पद्धतियां उसको सहज ही निगलकर पचा जाएंगी। अगर समाजवाद अपने विशुद्ध बीज को दूसरों से अलग रखता और कई दस सालों तक उसके पौधे को सींचता व रखवाली करता, तब कहीं अंत में विजय फल प्राप्त होता। इसी बीज को अलग रखकर, उसके पौधे की रखवाली करने के लिए आजकल की सारी समाजवादी पार्टियों का विघटन होना जरूरी है।

एकता की पुकार और सत्ता के लालच ने सिद्धांत और नीति को एक लंबे अर्से से दबा रखा है।

(स्रोत:- लोहिया: सिद्धांत और कर्म, पेज-404)

— प्रस्तोता: विनोद कोचर

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