सुरक्षित वायनाड से प्रियंका गांधी का चुनाव लड़ना पार्टी को कमजोर करेगा

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Priyanka Gandhi

ramashankar singh

— रमाशंकर सिंह —

क समय वह भी था, भारत की राजनीति में जब मुश्किल बहुत मुश्किल सीटों से बड़े नेता चुनाव लड़ते थे और फिर भी ज्यादा बल्कि दो तीन दिन छोड़कर सारा समय अपने कार्यकर्ता उम्मीदवारों के लिये प्रचार करने जाते थे। तब हेलिकॉप्टर द्वारा प्रचार शुरु नहीं हुआ था। रेल और तबकी धीमी रेल व जीपों से दुरूह जगहों की यात्रा करते थे। चुनाव बॉंड का भी आविष्कार नहीं हुआ था और क़रीब करीब सभी उम्मीदवार या तो अपने घर का पैसा लगाते थे या जनता से सभाओं में चंदा इकट्ठा करते थे। मैं सदियों पहले की बात नहीं कर रहा, १९७० के पहले यानी जब स्वतंत्र भारत में चुनाव शुरु हुये उसके बीस साल बाद तक की कर रहा हूँ।

डा० लोहिया तो जानबूझकर यह कहते हुये कि चट्टान टूटेगी नहीं पर दरकेगी तो जरूर , नेहरू जी के खिलाफ फूलपुर से चुनाव लड़े थे और ज़्यादातर समय अपने गरीब उम्मीदवारों की मदद में पूरे भारत में घूमते थे जैसे ग्वालियर की महारानी के खिलाफ सोशलिस्ट उम्मीदवार मेहतरानी सुक्खोरानी के समर्थन में । फूलपुर मे डा० लोहिया प्रचार के अंतिम ढाई दिन ही पहुँच सके थे लेकिन जहॉं जहॉं पहुँच पाये वहॉं अधिकांश बूथ पर जीते भी। यही हाल कम्युनिस्ट दलों व जनसंघ ( आज की भाजपा ) के बड़े नेताओं का था जैसे नंबूदिरीपाद, गोपालन, नानाजी देशमुख , बलराजमधोक , दीनदयाल उपाध्याय आदि जो अपने चुनाव से अधिक महत्व दल के प्रत्याशी को देते थे हालाँकि सोशलिस्ट पार्टी के मुक़ाबले इन दोनों दलों की माली हालत कुछ बेहतर होती थी। बाद में कांशीराम जी ने बड़ी मेहनत कर साइकिल से प्रचार करते हुये ऐसेही अपनी बहुजन पार्टी खड़ी की थी जिसे हेलिकॉप्टरगामी बहिन जी ने कैसा ध्वस्त किया है ।

सिद्धांत नीति कार्यक्रम व घोषणा पत्र पर चुनाव लड़े जाते थे। मुँह ज़ुबानी या ताँगे इक्का या रिक्शा पर माइक बांध ऐलान व प्रचार सुन कर लोग सभाओं में आते थे और बड़ी संख्या में भी। पार्टी का नेता अपने परिवार के सदस्यों को चुनाव लड़ाना सोच भी नहीं सकता था। इस बीमारी का बीज भी राजनीति में कांग्रेस से शुरु हुआ और शीर्ष स्तर से। अब कोई दल नहीं बचा जिसमें वंशवाद का कैंसर न फैल गया हो।भाजपा भी अब अछूती नहीं रही जबकि वह सबसे ज़्यादा इसी बिंदु को लेकर कांग्रेस पर हमला करती है। लक्ष्य कांग्रेस पर हमलावर होना नहीं नेहरू गांधी परिवार को चोट पहुँचानी होती है। नेहरू गांधी परिवार और जनता भी इसे सुन सुन कर पक चुकी है इसलिये कोई विशेष प्रतिक्रिया नहीं करते।

प्रियंका गांधी को राजनीति में आने का पूरा हक़ है लेकिन कांग्रेस जो सवाल सब उम्मीदवारों से पूछती है वह प्रियंका से पूछने की हिम्मत क्यों नहीं करती कि तुम्हें वायनाड से टिकिट क्यों दिया जाये ? वहॉं तुमने अन्यों के मुक़ाबले क्या बेहतर सांगठनिक या जनसेवा का काम किया है ? और यदि प्रियंका जी को फिर भी चुनाव लड़ना है तो २०१४ या २०१९ या २०२४ में बनारस से क्यों नहीं लड़ा ? चलो अमेठी या रायबरेली से क्यों नहीं लड़ा ? वैसे तो २०१९ से ही यह फ़ीडबैक मिल रहा था कि यदि बनारस से प्रियंका गांधी मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ती तो ज़ोरदार काँटे का मुक़ाबला हो सकता था । २०२४ में तो यह निश्चित था कि जीत के क़रीब आ सकती थी। इस से पार्टी को उप्र मे कहीं अधिक मज़बूती मिलती ।२०१९ में जब सोनिया गांधी ने प्रणव मुखर्जी से सलाह माँगी थी कि क्या बनारस से प्रियंका को चुनाव लड़वा दें तो मुखर्जी ने एक ही वाक्य कहा था – “ gandhis don’t contest elections to loose “ ( गांधी परिवार हारने के लिये चुनाव नहीं लड़ता ) । कौन नहीं जानता कि तब तक प्रणव मुखर्जी प्रधानमंत्री मोदी के जाल में दोबारा राष्ट्रपति बनने के लिये फँस चुके थे और इस सलाह ने उन्होनें किस का भला किया था।

सुरक्षित वायनाड से प्रियंका गांधी का चुनाव लड़ना पार्टी को कमजोर करेगा। जीत भले ही जायें पर एक स्थानीय प्रत्याशी और पाँच आकांक्षियो को ख़त्म करना आत्महंता राजनीति है। एकाध बार हारकर भी नेता बड़े बनते हैं। अटल बिहारी कितनी बार हारे !
जिसकी भी सलाह या महत्वाकांक्षा है यह कांग्रेस को दीर्घकालिक नुक़सान ही करेगी।

आप देखना कि यदि भाजपा दूर के तीसरे नंबर पर आती दिखी तो संघ व भाजपा रणनीतिक तौर पर सीपीएम को मदद कर प्रियंका की जीत का अंतर कम कर सकती है। मान लीजिये कि जीत का अंतर बहुत कम रह गया तो क्या अगला चुनाव प्रियंका वायनाड से नहीं लड़ना चाहेगी , बिलकुल नहीं। फिर कोई सुरक्षित सीट चुनेगी।

स्थानीय कार्यकर्ता भी कई बार विपक्षी से अघोषित साँठगाँठ कर लेते हैं जिससे उन्हें भविष्य में तो मौक़ा मिल सके।संसद में खुद नहीं जाकर ऐसा सांगठनिक ढाँचा बनाना जिसके ज़रिये अधिकतम पार्टी सदस्य संसद या विधानसभाओं में पहुँच सकें यह राजनीति होनी चाहिये।

सिर्फ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ही समाज के विभिन्न वर्गों को अपने पक्ष में आज भी पहले की तरह इकट्ठा करने में लगा हुआ है। हम चाहे कितने भी उनके विचार से असहमत हों पर शतायु हो रहे संघ की इस विशेषता के कारण आज वे देश भर में एक मज़बूत ताक़त बन चुके है और लगातार केरल तमिलनाडु आंध्र तेलंगाना कश्मीर अरुणाचल त्रिपुरा जैसे अनेक राज्यो में दिनरात हज़ारों पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं की मेहनत से आगे बढ़ रहे है। मेरा मानना है भारत के हित मे संघ की राजनीति नहीं है पर वह एक अलग बात है। ९० साल पूरे कर रहा समाजवादी आंदोलन की क्या गति हो चुकी है ? और संघ से भी ज़्यादा आयु की कम्युनिस्ट पार्टी अब मात्र केरल में बची है जहॉं पहली चुनी हुई सरकार समाजवादियों की थी। बहुसंख्यक मुस्लिम कश्मीर घाटी में अगले दस सालों में पारंपरिक आज के दल अवसान मे जायेंगें और यह संभव है कि किसी दूसरे नाम से भाजपा समर्थक एक दल वहॉं भी खड़ा कर लिया जाये।

ऐसी विषम राष्ट्रीय परिस्थिति में पूरी कांग्रेस पार्टी क्या अंधी हो चुकी है कि अपेक्षाकृत युवा प्रियंका को वायनाड से लड़ायें जबकि वे पूरे भारत में ऐसी कई सीटें ढूंढ सकती थीं । बेहतर होता कि वे पहले विधानसभा का चुनाव लड़कर ज़मीनी राजनीति का अहसास करतीं । वैसे मेरा मानना है कि वायनाड से प्रियंका के जीतते ही देरसबेर कांग्रेस में दो शक्ति केंद्र बनेंगे और तब हमेशा की भाँति महल के भीतर होती रही षड्यंत्रों की राजनीति शुरु हो सकती है क्योंकि प्रधानमंत्री का सबसे बड़ा धनपशु मित्र प्रियंका के घर में प्रवेश पा चुका है।


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