— नंदकिशोर आचार्य —
आँखों पर बंधी थी पट्टी
और हाथों में तराजू
न्याय के भरोसे के लिए
नहीं समझ पाया कोई लेकिन
कैसे देख पाऊँगी पलड़ों में रखा है जो
वह भार है केवल
या मूल्यवान भी है
इस लिए क्या आश्चर्य
अन्धे न्याय की ही कथा हो कर
रह गया इतिहास
हाँ, खुले थे कान
जीत के अट्टहास में पर
कैसे सुनी जा सकती
कराह कोई
खुलेगी क्या कभी
आँखों पर बँधी पट्टी
सुनाई दे पाएगी क्या
कराह ‘हे राम’?