— संजय श्रमण —
अन्याय देखा नहीं जाता
ना सुना ही जाता है
अन्याय की गंध होती है
अन्याय सूंघा जाता है
अधर्म के अंधकूप में
अनैतिकता के अथाह में
जहां ना आँख देख सकती
न कान सुन सकते
वहाँ अन्याय सूंघा जाता है
वैसे ही
जैसे अन्याय के अधिष्ठातात्रय
ईश्वर, आत्मा और पुनर्जन्म
सदा अदृश्य अश्रव्य बने रहते हैं
लेकिन उनकी गंध नहीं छिपती
जिनकी आँखों पर धर्माज्ञा की पट्टी है
जिनके होंठों पर ताले हैं
और कानों में पिघले सीसे हैं
वे अदृश्य के इस अन्याय को
सूंघकर जानते हैं
अदृश्य के अन्याय की ये सडाँध
अपौरुषेय और आसमानी जिल्दों में
आज भी ज़िंदा है
और ये तब तक ज़िंदा रहेंगी
जब तक कि गूँगे कंठों
और बहरे कानों में धधकती आग
इन जिल्दों को राख न कर दे