— शिवानन्द तिवारी —
शिवपुजन भाई 1977 में जनता पार्टी से विधायक हुए थे. लेकिन उसके पहले और उसके बाद भी वे समाजवादी आंदोलन के साथ सक्रिय रहे. उनका व्यक्तित्व अनोखा था. उनका रहन सहन, पहनावा, बोलने बतियाने का लहजा ऐसा था कि कभी वे विधायक भी रहे हैं, पहली नज़र में इस पर कोई अंजान आदमी यक़ीन नहीं कर सकता था. आजीवन डाक्टर लोहिया के समाजवादी आंदोलन की धारा के साथ जुड़े रहे. बाद में किशन पटनायक के नेतृत्व में लोहिया विचार मंच, समता संगठन और किसान आंदोलन के साथ मृत्युपरंत जुड़े रहे.
विधायक के रूप में भी शिवपुजन भाई ने आदर्श क़ायम किया था. विधानसभा में विधायकों के वेतन की बढ़ोतरी का उन्होंने विरोध किया था. बाक़ी विधायकों ने शोर मचा कर उनकी आवाज़ को दबा दिया. उनलोगों को लगा कि कहाँ से यह पागल विधानसभा में आ गया है ! बहुत लंबे समय तक भू.पू. विधायकों को मिलने वाला पेंशन उन्होंने नहीं लिया. ऐसा नहीं था कि उनकी माली हालत बहुत अच्छी थी.
एक मर्तबा की घटना मुझे याद है किसी कार्यक्रम के सिलसिले में शिवपुजन भाई के यहाँ गया था. क्या कार्यक्रम था यह स्मरण नहीं है. चालीस पचास वर्ष पुरानी बात है. यह याद है कि कार्यक्रम समाप्ति के बाद हमलोग कोचस आये. अंधेरा हो रहा था. देखा कि वहाँ रात कहाँ गुज़ारी जाए इस पर चरचा होने लगी. अंत में किसी के मकान की खुले छत पर जगह मिली. बिछावन के लिए एक बड़ी दरी. भोजन के लिए आपसी चरचा के बाद तय हुआ कि लिट्टी बनाई जाए. कोई लिट्टी का सामान लाने गया और कोई गोईठा के इंतज़ाम में निकला. दिन भर की भाग दौड़ से मैं थक गया था. मेरी आँख लग गई थी. आज भी बहुत शौक़ से मैं लिट्टी खाता हूँ. लेकिन हमारे लिए लिट्टी का मतलब सत्तू का मसाला भरी हुई लिट्टी. ख़ैर, लिट्टी तैयार हुई तो मुझे जगाया गया. मैंने लिट्टी तोड़ी तो उसमें सत्तू नहीं था. लिट्टी खोखली थी. मुझे लगा कि मेरे हिस्से में जो लिट्टी आई है उसमें गलती से सत्तू का मसाला नहीं डला है. मैंने पूछा तो शिवपुजन भाई ने बताया कि सत्तू वाली लिट्टी महँगी हो जाती है. इसलिए सत्तू के बग़ैर खोंखर लिट्टी बनी है. मैं पहली बार ऐसी लिट्टी खा रहा था. किसी तरह मैंने लिट्टी खाई.
इस घटना का जानबूझकर मैंने ज़िक्र किया है. एक भूतपूर्व विधायक ने दरी बिछाकर किसी के घर की छत पर बाहर से आये अपने अतिथि साथी के सोने का इंतज़ाम किया और मुफ़लिसी की वजह से बग़ैर सत्तू के खोखली लिट्टी खा और खिला रहा है. उनकी जमात प्रायः समाज के पिछड़े, दलित और आर्थिक रूप से कमजोर तबके के लोगों की थी. अभी हाल में शिवपुजन भाई के पोते विक्की को, जो अशक्त अवस्था में उनकी देखभाल करता था, मैंने फ़ोन कर कहा कि सभी पुराने साथियों का मोबाइल नम्बर भेजो. ताकि अपना लिखा मैं उनके वॉट्सऐप पर भेज दिया करूँ. उसने बताया कि ‘सब छोटका फ़ोन वाला लोग है.’ इसी से आप उनकी जमात का अंदाज़ा लगाइए.
79 के आसपास की घटना है. पानी के अभाव में किसानों की खेती सूख रही थी. शिवपुजन भाई और उनके साथियों ने दिनारा प्रखंड कार्यालय के सामने धरना शुरू कर दिया. वे और उनके चार अन्य साथी गिरफ़्तार कर लिए गए. उनका संकल्प था कि हम ज़मानत करा कर जेल के बाहर नहीं जाएँगे. शिवपुजन भाई के अलावा धरना पर बैठने वाले साथी थे विक्रमा सिंह (धनधुआं), नागेश्वर सिंह तथा राजनारायन साह (प्रवर) तथा रामव्यास सिंह (हरिदास पुर). जिस दफ़ा में उन लोगों की गिरफ़्तारी हुई थी वह ऐसी नहीं थी कि जिसमें ज़मानत नहीं मिलती . लेकिन परिवार की ख़ास्ता हालत के कारण शिवपुजन भाई के अलावा बाक़ी लोगों ने छह महीना बाद ज़मानत करा लिया. शिवपुजन जी अकेले जेल में रह गए. वह समता संगठन का जमाना था. जेल में उनको रहे साल भर से अधिक हो गया.
लेकिन हमारे यहाँ की सरकारें और प्रशासन स्पंदनहीन है. कौन सुनने वाला है ! जेल में उनको लंबा समय हो गया था. संगठन ने तय किया कि उनकी रिहाई के लिए दिनारा से ज़िला मुख्यालय सासाराम तक पैदल मार्च निकाला जाय. उसकी तैयारी की ज़िम्मेदारी मुझे दी गई.
सात-आठ दिन मैं उस इलाक़े में गाँव गाँव घूमता रहा. सवारी तो कोई थी नहीं. ठहरने के लिए दिनारा में मैंने ख़ुद व्यवस्था की. मेरे एक परिचित का वहाँ एक मकान था. उसमें पंजाब नेशनल बैंक की शाखा भी थी. उसी में उपर के कमरे में मकान मालिक रहते थे. उसी कमरे में मेरी भी चौकी लगी. दिन भर में पाँच सात गाँव घूमता था. कोई औपचारिक सभा का इंतज़ाम तो था नहीं. किसी के दरवाज़े पर दस बीस लोग बैठ जाते थे. किसानों के अमुक सवाल पर शिवपुजन भाई सासाराम जेल में बंद हैं. उनको किसानों का समर्थन मिलना चाहिए. इसलिए उनकी रिहाई के लिए हमलोगों को पैदल चल कर ज़िला प्रशासन पर दबाव डालना चाहिए. सबलोग ध्यान लगाकर हमारी बात सुनते थे. जैसा कि हमारे समाज का हाल है. सब लोग हाँ हाँ कर देते थे.
उन्हीं दिनों कर्पूरी जी की सरकार ने आरक्षण लागू किया था. ऊँची जाति वाले गाँव में नौजवान इस सवाल पर हमलोगों को घेरते थे. अमूमन उन लोगों का तर्क होता था कि नौकरियों का आधार आरक्षण नहीं बल्कि मेरिट यानी उसके लिए क़ाबिलियत आधार होनी चाहिए. उन्हीं दिनों समता प्रकाशन की ओर से हमलोगों ने लोहिया की जाति प्रथा वाली किताब छापी थी. आरक्षण की लड़ाई लड़ी जा रही थी. लेकिन उसके सबसे बड़े उद्घोषक डाक्टर लोहिया की जाति प्रथा वाली किताब कहीं उपलब्ध नहीं थी. उस किताब को किशन जी की भूमिका के साथ हमलोगो ने समता प्रकाशन की ओर से पटना में छापा था. किशन जी ने उस भूमिका में आरक्षण के पक्ष में एक नया तर्क दिया था.
किशन जी का कहना था कि अगर किसी भी काम का आधार मेरिट होगा तो उसके लिए क्या क़ानून बनेगा ? यानी जिसकी जिस काम में योग्यता हासिल हो उसके ज़िम्मे वह काम होना चाहिए। इस क़ानून के अनुसार खेत तो उसको मिलना चाहिए जो खेती की योग्यता रखता हो. यानी जिसमें रोपनी, सोहनी, कटनी की योग्यता हो. जिनमें यह योग्यता नहीं हो उनसे खेती लेकर उनको दे देनी चाहिए जो इनकी योग्यता रखते हों. तब मेरिट की बात करने वाले चौंक जाते थे. यह कैसे होगा ! तब हमारा जवाब होता था कि यह हम कहाँ कह रहे हैं. यह तो आप लोग जो कह रहे हैं उसका निहितार्थ तो यही होगा. तब आरक्षण का विरोध और मेरिट की बात करने वाले धीरे-धीरे वहाँ से खिसक जाते थे.
शिवपुजन भाई की जमात में एक उदाहरण हैं जानकी भगत. उस दरम्यान उनके गाँव भी गया था. राजपूत लोगों की उस गाँव में अच्छी संख्या थी. इसलिए स्वाभाविक है कि उस गाँव में उन्हीं की चलती थी. जानकी भाई से मैंने पूछा कि आप लोग चुनाव में वोट डाल पाते हैं ? उन्होंने बताया कि पहली मर्तबा जब वे लोग बूथ पर पहुँचे तो रोक टोक हुई थी. उसके विरोध में सब लोग वहीं धरना पर बैठ गए. नारेबाज़ी करने लगे. खलबलाहट मच गई. उन सभी लोगों ने अपना अपना वोट डाला. उसके बाद कभी रोक टोक नहीं हुई.
याद नहीं है कि किस तारीख़ को हमारी यात्रा शुरू हुई. वहाँ से सासाराम की दूरी एक दिन में तय करना संभव नहीं था. रात में जबरा गाँव में ठहरने का इंतज़ाम था. बिछावन का बढ़िया इंतज़ाम था अगले दिन दोपहर में हम लोग सासाराम पहुँचे. वहाँ एक छोटी सभा हुई उसके बाद हमारा अभियान समाप्त हुआ. शिवपुजन भाई को जेल में रहते ढाई वर्ष से ज़्यादा हो चुका था. अंततोगत्वा किशन जी के अनुरोध पर वे ज़मानत करा कर बाहर आये.
अंतिम दिनों में काफ़ी अस्वस्थ हो गये थे.खबर मिली तो दिनारा के विधायक विजय मंडल और विधान परिषद के सदस्य अशोक पांडेय के साथ हमलोग उनके गाँव हरिदासपुर गये. पुराने साथियों को हमारे आने की खबर मिल गई थी. लगभग डेढ़ दो सौ लोग उनके दरवाज़े जमा थे. उन लोगों से मिलकर बहुत ख़ुशी हुई. शिवपुजन भाई भी बहुत प्रसन्न थे. उनको देख कर ही लग रहा था कि अब वे ज़्यादा दिन चलने वाले नहीं हैं. अभी सालभर पहले शिवपुजन भाई ने दुनिया छोड़ दी. मैं उनकी पावन स्मृति को प्रणाम करता हूँ.