— डॉ. सुरेश खैरनार —
रवींद्रनाथ ठाकुर ने स्वयं यह नाम रखा क्योंकि इस बालक का जन्म शांतिनिकेतन में अपने नाना क्षितिमोहन के घर में 3 नवंबर 1933 को हुआ था। आज वह 92 साल के हो रहे हैं। उनके जन्म से लेकर अब तक की यात्रा का जायजा लिया जाए तो, उनकी मां अमिता बंगाल की पहली भद्र बंगाली घर की लड़की थीं, जिन्होंने स्टेज पर आधुनिक नृत्य करने की शुरुआत की थी और आत्मरक्षार्थ जूडो-कराटे की विधिवत शिक्षा जापानी शिक्षकों से प्राप्त की थी। यह सब कुछ आज से सौ वर्ष पहले की बात है।
अमिता के नृत्य से प्रभावित होकर रवींद्रनाथ ठाकुर ने अपने द्वारा लिखे गानों को अमिता के नृत्यों के साथ स्टेज पर प्रस्तुत करना शुरू किया था। आजकल सभी भद्र बंगाली अपनी लड़कियों को रवींद्रनाथ ठाकुर के गीतों पर आधारित नृत्य की विशेष शिक्षा देने की कोशिश करते हैं। अब तो भद्र बंगाली परिवारों में शादी-ब्याह में भी बंगाली लड़की को नृत्य या गाना आना एक अतिरिक्त गुण माना जाता है, जो उसे वधू के रूप में स्वीकार करने के लिए महत्व रखता है। सौ वर्षों में बंगाल के नवजागरण के परिणामस्वरूप यह परिवर्तन हुआ है, और इस परिवर्तन में अमर्त्य सेन की मां अमिता का भी योगदान है।
लेकिन तत्कालीन मीडिया में तारीफ कम और आलोचना ज्यादा होती थी क्योंकि अमिता से पहले भद्र बंगाली घर की किसी लड़की ने स्टेज पर ऐसा प्रदर्शन नहीं किया था। उस समय इस तरह के प्रदर्शन के लिए विशेष रूप से नटी विनोदिनी जैसे खास कलावंतीण परिवार की लड़कियां होती थीं, जैसे महाराष्ट्र, कर्नाटक और गोवा में देवदासियां होती थीं।
इस मां की कोख से जन्मा वह लड़का, जिसका नाम खुद रवींद्रनाथ ने “अमर्त्य” रखा। रवींद्रनाथ कभी-कभी बिना कोई सूचना दिए अमर्त्य के नाना क्षितिमोहन के घर रोज सुबह आ जाते थे, यह देखने कि क्षितिमोहन अभी तक सो रहे हैं या नहीं। फिर अपनी त्वरित कवि प्रतिभा से कहते, “रवि (सूर्य) तो आ गया है, पर क्षिति (पृथ्वी) अभी तक जागी नहीं है।” यह सब अमर्त्य ने अपनी नानी से सुना है। इसके बाद रवींद्रनाथ और क्षितिमोहन सुबह की सैर पर निकल पड़ते थे।
अमर्त्य के जन्म से आठ साल तक उन्हें रवींद्रनाथ की सोहबत मिली, और पाठभवन की स्थापना के समय से ही विश्व स्तर के अतिथियों का शांतिनिकेतन में आना-जाना लगा रहता था। एक बार माओ त्से तुंग से पहले चीन के नेता जनरल चांग काई शेक ने पाठभवन में आकर भाषण दिया, जिसका उल्लेख अमर्त्य सेन ने अपनी आत्मकथा में किया है। इसी तरह महात्मा गांधी भी रवींद्रनाथ ठाकुर की 1941 में मृत्यु के चार साल बाद, 1945 में शांतिनिकेतन आए थे। गांधीजी ने तब अपने भाषण में रवींद्रनाथ की मृत्यु के बाद शांतिनिकेतन के भविष्य की चिंता जताई थी।
अमर्त्य ने बताया कि उन्होंने गांधीजी से उनका ऑटोग्राफ लिया था। लेकिन उससे पहले गांधीजी ने हरिजन फंड के लिए उनसे पांच रुपए का चंदा मांगा। अमर्त्य ने अपनी पॉकेट मनी से बचाए पैसे में से गांधीजी को पांच रुपए दिए। यह चंदा उनके जैसे महान व्यक्तित्व के लिए बड़ी बात नहीं थी, पर अमर्त्य को आज भी याद है कि गांधीजी ने सुंदर मुस्कान के साथ कहा, “यह चंदा मैंने हमारे देश की जाति व्यवस्था को समाप्त करने के लिए लिया है।” फिर गांधीजी ने देवनागरी लिपि में “मो. क. गांधी” का हस्ताक्षर उनकी नोटबुक में किया, जिसे अमर्त्य ने आज भी सहेजकर रखा है।
पाठभवन की पढ़ाई के दौरान मुझे बहुत अच्छे दोस्तों का लाभ मिला। उनमें से एक थे चीना भवन के संस्थापक प्रोफेसर तान युन शान के बेटे तान ली, जो मुझसे एक साल छोटे थे। तान ली जिंदगी भर मेरे दोस्त रहे और हाल ही में 2017 में उनका निधन हुआ।
पाठभवन में शुरुआती शिक्षा के समय कुछ लड़कियों से भी दोस्ती थी। लड़कों में साधन, शिब, चित्ता, चालुता, भेलतु और मृणाल मेरे सबसे करीबी मित्र थे। वहीं, लड़कियों में मंजुला, जया, बिथि, तपति और शांता भी मेरे अच्छे दोस्त थे। शांतिनिकेतन के मेरे इन दोस्तों के बारे में मेरी राय है कि हर एक पर एक चरित्र कथा लिखी जा सकती है।
दूसरों से दोस्ती करना अमर्त्य सेन की सबसे प्रिय आदतों में से एक लगती है। अपने रिश्तेदारों में भी उन्होंने कई नामों का जिक्र किया है। इसी तरह, ट्रिनिटी कॉलेज में विद्यार्थियों से लेकर शिक्षकों तक के साथ जो गहरे संबंध बनाए, वह उनके स्नेहपूर्ण स्वभाव का परिचायक है। अपनी आत्मकथा का नाम “Home in the World: A Memoir” रखना भी उनके इस स्नेहमय स्वभाव को दर्शाता है।
अमर्त्य सेन भले ही एक अर्थशास्त्री के रूप में विश्वविख्यात हुए हों, लेकिन मानवीय संबंधों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता अद्वितीय है। भारत के विभाजन के बाद भी, उन्होंने अपने विदेशी भूमि पर बसे पाकिस्तानी मित्रों से मिलने का प्रयास जारी रखा, जिनमें महिलाओं का भी समावेश था। केवल मित्रता के नाते, लाहौर, कराची और अन्य शहरों में अपने मित्रों से मिलने के लिए उनका अचानक चले जाना और उन परिवारों का हिस्सा बन जाना एक गहरी वैश्विक संवेदनशीलता की मांग करता है।
उनकी इस भावना का विस्तार केंब्रिज में उनके अंग्रेज मित्रों तक भी था, जिनमें महिलाओं का भी समावेश था। यह सब लगभग पचहत्तर साल पहले की बात है, जो उनकी इंसानियत और मानवीय संबंधों के प्रति उनके समर्पण की एक विलक्षण कहानी बयां करती है।
भारत जैसे देश में महिलाओं के साथ होने वाले पारंपरिक भेदभाव को लेकर मुझे हमेशा से चिढ़ रही है। इसी कारण, स्त्री-पुरुष संबंधों में आज भी यह मेरा चिंता का विषय बना हुआ है। अमर्त्य सेन तो पाठभवन से लेकर प्रेसिडेंसी कॉलेज, फिर केंब्रिज, ऑक्सफर्ड और एमआईटी जैसे वैश्विक संस्थानों में पढ़ने और पढ़ाने गए हैं। वहीं, मेरा अनुभव मेरे गांव की जीवन शिक्षण शाला, शिंदखेड़ा के न्यू इंग्लिश स्कूल, अमरावती के मेडिकल कॉलेज, और राष्ट्र सेवा दल तक सीमित रहा है। इन सभी जगहों पर लड़कियों और लड़कों से मेरी दोस्ती मेरे लिए हमेशा बहुत महत्वपूर्ण रही है।
कई बार मित्रों ने मुझसे पूछा है कि मेरी महिला मित्र अधिक हैं या पुरुष मित्र? इसका कोई हिसाब तो नहीं रखा, लेकिन मेरे लिए दोस्ती, दोस्ती होती है—उसमें स्त्री और पुरुष का भेद नहीं करना चाहिए। बचपन से ही मेरी सोच यही रही है। और अमर्त्य सेन के जीवन में भी लगभग यही दृष्टिकोण देखकर लगता है कि यह इंसान जैसे जीवन में प्रेम और मानवता का प्रसार करने के लिए ही पैदा हुआ है।
1952 में, 19 साल की उम्र में अमर्त्य सेन ने कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज (अब विश्वविद्यालय) में दाखिला लिया। कॉलेज के सामने स्थित ऐतिहासिक कॉफी हाउस में, वे अपनी पढ़ाई के साथ-साथ देश और दुनिया की स्थितियों पर चर्चा करने के लिए नियमित रूप से जाते थे। इन चर्चाओं में द्वितीय विश्व युद्ध, भारत के स्वतंत्रता आंदोलन और 1942-43 के बंगाल अकाल जैसे गंभीर मुद्दों पर गहन विचार-विमर्श होता था।
इस अकाल में लाखों लोग केवल अन्न की कमी के कारण मारे गए थे। वास्तविकता यह थी कि अन्न की भौतिक कमी नहीं थी; लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के कारण, भारत से अनाज जहाजों में भरकर सैनिकों के लिए विदेश भेजा जा रहा था। इस नीति ने बंगाल में एक मानव-निर्मित अकाल की स्थिति पैदा कर दी। अंग्रेजी शासन की इस नीति ने भारत के लोगों के मुंह से निवाला छीनकर जबरदस्ती अनाज इकट्ठा किया और उसे युद्ध भूमि पर भेजा।
तत्कालीन समय में, कलकत्ता और ढाका की सड़कों पर हजारों लोग, अन्न की आशा में गांव-देहात से आकर, भूख के कारण दम तोड़ रहे थे। यह त्रासदी आम दृश्य बन चुकी थी, जो अमर्त्य सेन और उनके साथी छात्रों पर गहरा प्रभाव छोड़ गई।इस तरह के अत्यंत महत्वपूर्ण विषयों पर लिखने और बोलने वाले अमर्त्य सेन की वर्तमान सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ आवाज उठाने की बात ‘मन की बात’ करने वाले लोगों को नागवार लगती है। इसी कारण उन्हें अपमानित करने के लिए नए-नए हथकंडे अपनाए जा रहे हैं। यह स्थिति इस बात का संकेत है कि हमारे देश में अघोषित आपातकाल और सेंसरशिप का दौर पिछले दस वर्षों से बदस्तूर जारी है।
अमर्त्य सेन जैसे बुद्धिजीवियों की आवाज़ को दबाने के प्रयास यह दर्शाते हैं कि स्वतंत्र विचार और आलोचना को अस्वीकार किया जा रहा है। यह केवल व्यक्तिगत अपमान नहीं, बल्कि एक व्यापक विचारधारा के खिलाफ एक अभियान है, जिसका उद्देश्य dissent (विरोध) की आवाज़ों को खत्म करना है। इस प्रकार की नीतियों और व्यवहारों के खिलाफ आवाज उठाना अत्यंत आवश्यक है, ताकि लोकतांत्रिक मूल्यों और मानवाधिकारों की रक्षा की जा सके।
डायलॉग करना जनतंत्र का प्राथमिक कार्य है, लेकिन वर्तमान समय में “मन की बात” जैसे एकतरफा संवाद के चलते, “आर्ग्यूमेंटिव इंडिया” जैसे तर्कशीलता को बढ़ावा देने वाले अमर्त्य सेन को केंद्र सरकार ने सत्ता में आते ही सबसे पहले नालंदा विश्वविद्यालय के कुलाधिपति के पद से हटा दिया। यह कदम उनके विचारों और आलोचनाओं को चुप कराने का एक प्रयास था।
यह भी कम नहीं था कि अमर्त्य सेन के पिता ने 1942 में शांतिनिकेतन की पश्चिम दिशा में “प्रतिचि” नामक घर के लिए एक भूमि का टुकड़ा खरीदा था। इस घर से उन्हें निकालने के लिए, तत्कालीन कुलपति प्रो. विद्युत चक्रवर्ती ने 90 वर्ष की आयु में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध अर्थशास्त्री को मकान से निकालने की अत्यंत अपमानजनक कार्रवाई की। यह सब कुछ पिछले कुछ दिनों से विश्वभारती विश्वविद्यालय के कुलपति विद्युत चक्रवर्ती ने किसके इशारों पर किया, यह सवाल महत्वपूर्ण है।
हालांकि, हाल ही में शिउडी के कोर्ट ने इस कार्रवाई को खारिज कर दिया है, जो इस बात का प्रमाण है कि न्यायपालिका में अभी भी स्वतंत्रता और न्याय का एक स्थान है। यह घटनाक्रम न केवल अमर्त्य सेन की प्रतिष्ठा के लिए, बल्कि समग्र जनतंत्र और स्वतंत्र विचार के लिए भी एक महत्वपूर्ण घटना है।
अमर्त्य सेन जैसे विश्व के सर्वश्रेष्ठ बुद्धिजीवियों को उनके घर से बाहर निकालने की कृत्य को एक तरह का पाखंड ही कहा जाएगा। जब हम “वसुधैव कुटुंबकम” के नारे की बात करते हैं, जो हवाई अड्डों से लेकर रेलवे स्टेशनों पर गूंजता है, तब इसे केवल दिखावे के रूप में लिया जाता है। नरेंद्र मोदीजी आपातकाल की घोषणा के 25-26 जून के दिनों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हरण पर बोलते हैं, और भारत के लोकतंत्र की हत्या के बारे में गंभीरता से चर्चा करते हैं।
हालांकि, 2014 में सत्ता में आने के बाद से, वर्तमान सरकार ने बिना किसी औपचारिक आपातकाल या सेंसरशिप की घोषणा के, भारत को इससे भी बदतर स्थिति में ला दिया है। तथाकथित मुख्यधारा के मीडिया संस्थानों को सरकार के सामने झुकने के लिए मजबूर किया गया है, और यदि कोई पत्रकार या विचारक असहमति व्यक्त करता है, तो उसे जेल में डाल दिया जाता है।
उदाहरण के लिए, अतिश तासीर, जो भारत में जन्मे एक प्रसिद्ध पत्रकार हैं, उनकी मां तवलिन सिंह के लेख के कारण उन्हें भारत में आने से रोक दिया गया है। इसी तरह, न्यूजक्लिक के सभी पत्रकारों को चीन कनेक्शन के नाम पर जेल में डाल दिया गया है, जबकि उसी चीन सरकार के पीपुल्स डेली में प्रधानमंत्री के प्रशंसा में लेख को भारत के मुख्यधारा मीडिया द्वारा बड़े जोर-शोर से प्रचारित किया गया है। यह सब एक बड़ा विरोधाभास है।
इसके अलावा, हमारे देश के सर्वोच्च सदन, लोकसभा में, विरोधी दलों के सदस्यों को सरकार के खिलाफ बोलने पर सौ से अधिक सांसदों को बर्खास्त कर दिया गया है और कुछ की सदस्यता भी छीन ली गई है। यह उन मतदाताओं का अपमान है जिन्होंने इन सदस्यों को चुनकर भेजा था।
इस स्थिति में, वर्तमान सरकार अपनी सत्ता के लिए संवैधानिक संस्थाओं का उपयोग कर रही है, जैसे वे अपने दल की इकाई हों, और विपक्षी दलों की सरकारों को अस्थिर करने के लिए खुलकर इसका इस्तेमाल कर रही है। यह न केवल लोकतंत्र के लिए खतरा है, बल्कि हमारे संविधान और उसकी मूल्यों के लिए भी एक गंभीर चुनौती है।
मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार, पंजाब, झारखंड, कर्नाटक, तमिलनाडु, और केरल जैसे राज्यों में भाजपा के विरोधी दलों के खिलाफ ईडी और सीबीआई के माध्यम से दबाव बनाने की जो स्थिति बन रही है, वह चिंताजनक है। इससे स्पष्ट होता है कि राजनीतिक विरोधियों को खत्म करने के लिए केंद्रीय एजेंसियों का इस्तेमाल किया जा रहा है।
जब हम न्यायिक प्रणाली पर प्रभाव डालने के दर्जन भर उदाहरणों पर गौर करते हैं, तो यह स्थिति अघोषित आपातकाल की तरह प्रतीत होती है। भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने 2015 में इस सरकार की एक साल की कार्यकाल के दौरान कहा था कि पिछले चार दशकों में आपातकाल की स्थिति की चर्चा के बीच, उन्होंने इस बात पर ध्यान दिया कि बिना किसी औपचारिक आपातकाल के देश में जो हालात बने हैं, वे चिंता का विषय हैं।
आडवाणी के इस बयान से यह संकेत मिलता है कि उन्हें इस बात की गहरी चिंता थी कि कैसे केंद्रीय सत्ता और संस्थाएं अपनी शक्तियों का दुरुपयोग कर रही हैं। यह स्थिति न केवल लोकतंत्र के लिए खतरा है, बल्कि यह हमारी संवैधानिक व्यवस्थाओं और न्यायालयों की स्वतंत्रता के लिए भी एक गंभीर चुनौती है।
जब केंद्रीय एजेंसियों का उपयोग राजनीतिक प्रतिशोध के लिए किया जाने लगे, तब इसे लोकतंत्र की हत्या के रूप में देखा जाना चाहिए। यह आवश्यक है कि सभी नागरिक इस पर गंभीरता से विचार करें और संवैधानिक मूल्यों की रक्षा के लिए एकजुट हों
अमर्त्य सेन के जन्मदिवस के उपलक्ष्य में मै प्रार्थना करता हूँ कि “उन्हें अपने स्वास्थ्य को अच्छी तरह रखते हुए अपने जीवन के शतक पार करते हुए देखना चाहता हूँ !”