हमारी खेल नीति क्या हो – योगेन्द्र यादव

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र कोई मान रहा है कि टोक्यो ओलंपिक ने भारत में खेलों के लिए आगे की राह खोली है। लेकिन यह पूछने की जहमत कोई नहीं उठा रहा कि आगे की यह राह किस दिशा से खुली हैभारत में खेलों की दुनिया के लिए टोक्यो ओलंपिक से दो राहें निकलती हैं। एक राह का नाम जाना-पहचाना है। इसे TOPS कहते हैंआसान भाषा में कहें तो यह ऊपरवालों की राह है यानी टॉप पर रहने वालों की राह। औरइसी तर्ज पर दूसरी राह का नाम रखें तो वह होगा BASE यानी नीचेवालों की राहवह राह जो सिर्फ ऊपरवालों तक सीमित नहींबल्कि सबकी राह हो सकती है। हमें इन दो राहों में से कोई एक राह चुननी ही होगी। हम राह चुनने का ये काम प्रशासकों या फिर विशेषज्ञों पर नहीं छोड़ सकते। राह चुनने का ये सवाल हमारे मूल्यों और हमारी भविष्य-दृष्टि से जुड़ता है तो हमारी नीति और राजनीति से भी।

ऊपरवालों की राह बनाम सबकी राह

TOPS एक संक्षेपाक्षर हैपूरेपन में इसे टारगेट ओलंपिक पोडियम स्कीम कहा जाता है। यह भारत सरकार की एक पहल का नाम है और टोक्यो ओलंपिक में मिले पदकों के लिए कुछ श्रेय इस स्कीम को दिया जा सकता है। इस पहल के नाम (टॉप्स) से ही इसके बारे में सबकुछ जाहिर हो जाता हैजैसे कि : यह एक सरकारी स्कीम है और इसका स्पष्ट लक्ष्य ओलंपिक में भारत के लिए मेडल जीतना है। भले ही इस पहल की शुरुआत ऐसी घोषणा के साथ ना हुई हो लेकिन हमारी खेल-नीति की टेक यही है। इससे पता चलता है कि कैसे आधुनिक खेलों के चलन से मनुष्य के जीवन में खेलों की जगह बड़ी व्यवस्थित रीति से कम होती गयी है। इस सिलसिले की पहली बात तो यही कि खेलों की दुनिया एक खुली हुई दुनिया हैइसमें नानाविध खेल शामिल हैं लेकिन खेलों की विविधता भरी यह बहुरंगी दुनिया अब सिकुड़कर चंद खेलों तक सिमटकर रह गयी है जिनके बड़े स्पष्ट नियम-कायदे होते हैंजिनपर संस्थानों के कायदे-कानून चलते हैं और जो खेल निर्धारित रूपाकार (फॉर्मेट) में खेले जाते हैं। दूसरी बात,

खेल अब सिर्फ इसके भागीदारों के आनंद के लिए नहीं रह गये बल्कि इनका प्रधान उद्देश्य दर्शकोंखासकर टीवी-देखवा लोगों का मनोरंजन करना हो गया है। तीसरी बातअब हर खेल प्रतिस्पर्धा का मामला बन गया है जिसके अंत में किसी को हारना होता है और किसी को जीतना। चौथी बातखेलों में जीत का सीधा संबंध नकद इनाम और राष्ट्रीय गौरव से बन गया है। जैसे कोई राष्ट्र-राज्य सैन्य और आर्थिक ताकत बनने के लिए होड़ में लगा होता है उसी तरह वह खेलों की दुनिया में भी महाशक्ति बनने की होड़ में होता है।

आश्चर्य नहीं कि भारत सरकार ओलंपिक में पदकों की संख्या बढ़ाने के लिए स्कीम चलाना चाहती है। यह तो जाहिर ही है कि ओलंपिक सबसे ज्यादा पेशेवरप्रतिस्पर्धात्मक और दर्शक-उन्मुखी करतब-लीला का रंगमंच है जिसे हम अपने भोलेपन में अब भी खेल कहते हैं।

इस संदर्भ में एक वैकल्पिक राह भी हो सकती है। मैंने इस राह का नाम TOPS की तर्ज पर BASE रखा है यानी ब्रॉड बेस्ड एप्रोच टु स्पोर्ट्स फॉर एवरीवन। इस उलझाऊ किस्म के नामकरण के लिए मुझे माफ करें (वैसे TOPS भी कोई कम उलझाऊ नहीं है) लेकिन मुझे उम्मीद है इस नामकरण से वह अन्तर उभरकर सामने आएगा जिसने खेलों की आधुनिक करतब-लीला को राष्ट्रीय गौरव का रणक्षेत्र बना डाला है। यहां BASE नाम की जिस वैकल्पिक राह की बात की जा रही है उसमें खेलों को खेल-भावना के नजदीक रखने की कोशिश है। खेल का पहला और जरूरी अर्थ होता है कि वह भागीदारों को आनंद दे। खेल तो हर कोई खेलता हैयह अपने हुनर और कौशल में प्रवीण चंद खेल-वीरों के करतब तक सीमित थोड़े ही है! बेशक किसी खेल में उत्कृष्टता मायने रखती है और उत्कृष्टता हासिल करने के लिए जतन करने होते हैं लेकिन यह जतन इस बात को परे रखकर नहीं किया जा सकता कि जो खेल रहा हैउसे पदकों की होड़ लगाने में कोई मजा ही नहीं आ रहा। खेल के दर्शक खेलों से दूर और तटस्थ नहीं होतेवे खेलों में शामिल होते हैं बल्कि यों कहें कि खेल देख रहे दर्शक की भावनाएं मैदान में किसी ना किसी तरफ से खेल रही होती हैं। खेल सिर्फ नकद इनाममेडल और सम्मान के लिए नहीं खेले जातेखेलने का एक आंतरिक सुख भी होता है. ऐसी व्यापक और सामिलाती खेल-संस्कृति को बढ़ावा देने से पदकों की संख्या में और भी इजाफा हो सकता हैलेकिन पदकों की संख्या बढ़ाना मात्र इस खेल-संस्कृति का प्रधान उद्देश्य नहीं।

TOPS का मतलब सबकुछ ऊपर से ही होना है

एक ऐसी खेल-नीति की जरूरत है जो इन दो राहों में से किसी एक को चुने या फिर कोई तीसरा रास्ता सुझाए। अभी राष्ट्रीय खेल-नीति के नाम पर हमारे पास एक 20 साल पुराना दस्तावेज हैएक ऐसा दस्तावेज जिसमें ढेर सारी अंग्रेजी लिखी हैहर बात में हां जी- हां जी’ का सुर मिलाया गया है लेकिन दस्तावेज में मुद्दे की बात खोजें तो वह छटांक भर भी ना मिले।

पहला रास्ता तो बहुत स्पष्ट है। आधुनिक खेलों का इतिहास बताता है कि एक बार आपके पास खेल-प्रतिभाओं का ठीक-ठीक भंडार हो जाता है तो फिर खेलों में उत्कृष्टता हासिल करने का मसला राजकीय मददकॉरपोरेट जगत की सहायता और मीडिया में दिखने भर की बात रह जाती है। तो फिर टोक्यो ओलंपिक से निकलती इस राह को अपनाएं तो हमें सबसे अव्वल तो कुछ खेलों के लिए इंडियन प्रीमियम लीग की तर्ज पर दर्शक तैयार करने होंगे। भारत में मीडिया-भोगी वर्ग के आकार को देखते हुए कहा जा सकता है कि खेलों की मांग को बनाये और कायम ऱखते हुए इस व्यवसाय को साधा जा सकता है। निजी क्षेत्र में चलनेवाले स्पोर्ट्स एकेडमिज जो लाभ हासिल करने के लक्ष्य से काम करती हैं या फिर जिन्हें कॉरपोरेट जगत से राशि हासिल होती हैपूर्ति का पक्ष सँभाल लेंगी। सरकार का काम होगा कि खेलों से जुड़े जो भी निकाय और प्राधिकरण हैंउनमें जारी अव्यवस्था को दूर करेमौजूदा नियम-कायदों को ठीक से लागू करे और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के जरिए कुछ खेलों को समय-समय पर सहायता मुहैया कराए। अगर सरकार इतना भर काम ठीक से कर लेती है तो फिर हम मानकर चल सकते हैं कि हमारी पदकों की संख्या बढ़ती जाएगी।

ध्यान रहे कि TOPS का मतलब हैजो कुछ होना है सो ऊपर से होना है। चुनिन्दा लक्ष्य तय करके इसके मकसद को साधा जा सकता है। हम ऐसे खेलों और स्पर्धाओं को चुन सकते हैं जिसमें मेहनत अपने सूद समेत वसूल हो जाएटीम के रूप में खेले जानेवाले खेलों की जगह एकल स्पर्धाओं को चुन सकते हैंउन खेलों को चुन सकते हैं जिनमें हमारे खिलाड़ियों का प्रवेश ज्यादा सुकर हो। अपने देश और इसकी अर्थव्यवस्था के आकार को देखते हुए हमें TOPS वाले रास्ते में ज्यादा कुछ नहीं करनाबस खेलों की उत्कृष्टता के कुछ टापू जहां-तहां बना और बसा लेने हैं। जैसे चंद आईआईटी के जरिए हम दम भरा करते हैं कि देश ने प्रौद्योगिकी की शिक्षा के मोर्चे पर किला फतह कर लिया है और अर्थव्यवस्था के एक छोटे से हिस्से जिसे मध्यवर्ग कहा जाता हैके जरिए `अतुल्य भारतनाम की कथा को निरंतर जिलाये और जगाये रखा जाता है वैसे ही महानगरों में चंद स्पोर्टस् एकेडमी कायम करके हम इस संभावना को जगाये रख सकते हैं कि खेलों की दुनिया में पदकों की तालिका पर अब हमें निरंतर ऊपर चढ़ते जाना है।

उपेक्षा के विराट महासागर के बीच खेल की उत्कृष्टता के चंद टापू इधर-उधर बसे नजर आएंगेनजर आएगा कि हमारे पास चंद विश्वस्तरीय क्षमता और कौशल के खिलाड़ी हैं तो दूसरी तरफ देह की मेहनत-मशक्कत मांगने वाले खेलों से मुंह मोड़कर खड़ी कई-कई पीढ़ियां तैयार होती जा रही हैं। यों ऐसा होना भारतीय आधुनिकता के उस स्वभाव के अनुकूल ही है जिसमें हमारा समाज दो टुकड़ों में बंटा नजर आता हैएक टुकड़ा खूब सजा-संवरा छैल-छबीला और दुनिया की नजरों को दिखाने के काम आता है और इस हिस्से के पीछे होता है एक विशालउपेक्षित और जबर्दस्ती ढंक कर रखा गया बीहड़ और उजाड़।

अगर कोई राह ऐसी है तो फिर उसे चुनौती दी जा सकती है और चुनौती दी भी जानी चाहिए।

खेल : ओलंपिक्स की हदबंदियों से परे

TOPS के बरअक्स BASE वाला रास्ता चुनें तो उसका अर्थ होगा नीचे से ऊपर की तरफ बढ़नाखेल की दुनिया की प्रतिभाओं का दायरा बड़ा और विस्तृत करना और ये ध्यान में रखना कि भारत में खेलों की दुनिया बहुरंगी हैंदो-चार नहीं बल्कि इस देश में बीसियों की तादाद में खेल मौजूद हैं और खेले जाते हैं।

इस दिशा में हमारा पहला कदम होगा स्कूलों में खेल की सुविधा बढ़ाना और बेहतर करना। देश में लगभग 80 प्रतिशत स्कूलों में खेल के मैदान हैं (ग्रामीण क्षेत्रों के स्कूलों के लिए यह आंकड़ा 77 प्रतिशत का है जबकि ग्रामीण क्षेत्र के मान्यताविहीन स्कूलों के लिए 61 प्रतिशत)। लेकिनखेल के ये मैदान सिर्फ मैदान भर हैंजरूरी नहीं कि यहां खेल भी खेले जाते हैं। साल 2018 के असर (एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट) के मुताबिक ग्रामीण क्षेत्र के लगभग 17 प्रतिशत स्कूलों में ही फिजिकल एजुकेशन के पूर्णकालिक शिक्षक हैं। ग्रामीण क्षेत्र के केवल 26 प्रतिशत स्कूलों के बारे में ही कहा जा सकता है कि आप किसी कामकाजी दिन वहां जाएं तो आपको शारीरिक शिक्षा (फिजिकल एजुकेशन) की क्लास होती मिले या फिर सिखानेवाले की देखरेख में कोई खेल होता नजर आए। शेष बचे तीन चौथाई स्कूलों में खेल-कूद की सुविधाएं मुहैया कराना हमारी शीर्ष प्राथमिकता होनी चाहिए। हाल-फिलहाल तीन से पांच साल की उम्र के बच्चों की शिक्षा और देखभाल पर जोर दिया जा रहा है। यह एक ऐतिहासिक मौका है जब हम खेलों को शिक्षा के प्रमुख माध्यम के रूप में देखें।

इस यात्रा का दूसरा पड़ाव होना चाहिए देश में लगभग 40 हजार की तादाद में मौजूद कॉलेजों और 1000 से ज्यादा की संख्या में मौजूद विश्वविद्यालयों में बेहतर खेल सुविधा मुहैया कराना। साथ हीकेंद्र सरकार को बेहतर खेल-उपकरणों और साज-सज्जा वाले स्टेडियम के निर्माण में भी निवेश करना चाहिए। इसके अंतर्गत हर जिले में एक इनडोर फेसिलिटी मुहैया कराना भी शामिल है। ओड़िशा सरकार की पहल से अन्य राज्यों की सरकारों को सीखना चाहिए। ओड़िशा सरकार ने हाल में 89 मल्टी-परपज इनडोर स्टेडियम बनाने की घोषणा की है जिनका इस्तेमाल आपदा की स्थिति में शरणस्थली के रूप में भी किया जा सकता है।

इस सिलसिले की आखिर की बात यह कि हमें उन विभिन्न खेलों पर ध्यान देना होगा जो देश के अलग-अलग इलाकों और राज्यों में प्रचलित हैं और ऐसा करते हुए हमें इस खयाल का दूर झटकना होगा कि किसी खेल की ओलंपिक के लिहाज से क्या हैसियत है या फिर किसी खेल में हमारी पदक जीतने की संभावना कितनी बलवती है।

हो सकता हैवैश्विक स्तर पर होनेवाले फुटबॉल के खेल में हम विजय-मंच पर चढ़ने से दशकों दूर हों लेकिन बंगालगोवाकेरल और पूर्वोत्तर के राज्यों में यह सबसे लोकप्रिय खेलों में एक है। कबड्डी भले ही ओलंपिक में ना खेली जाती होलेकिन हमारे देश में यह कुश्ती से ज्यादा लोकप्रिय है। क्या ही बेहतर हो कि देश के अलग-अलग क्षेत्रों का विकास अलग-अलग खेलों के लिए बेहतर सुविधाओं की जगह के रूप में हो। अगर केन्या लंबी दूरी के महान धावकों की जन्मभूमि हो सकता है तो फिर कोई कारण नहीं कि छत्तीसगढ़ भी हमारे लिए ऐसे ही धावकों की जन्मभूमि ना बने। इस बार के ओलंपिक में हासिल सात पदकों में भारत के पूर्वोत्तर के राज्यों ने दो पदक का योगदान किया है और देश का पूर्वोत्तर का यह हिस्सा महिलाओं के लिए खेल-स्पर्धा की धुरी बनकर उभर सकता है।

(द प्रिंट से साभार)

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