— रोहिन भट्ट —
संविधान में लोगों की आस्था ही भारत में विधि व्यवस्था के काम करने का मूलाधार है। संविधान की तरह ही, यह आस्था भी तीन तरफ से इस व्यवस्था को सँभाले हुए है- न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की निरंकुश सरकार ने चूँकि संसद को अर्थहीन बना दिया है, न्यायपालिका हम जैसे लोगों के लिए उम्मीद की आखिरी किरण है, जो मानते हैं कि भारत का संविधान ही इसके वैविध्यपूर्ण लोगों को एक रख सकता है जो भिन्न-भिन्न पोशाक पहनते हैं, भिन्न-भिन्न भाषाएँ बोलते हैं, जिनका खानपान भिन्न-भिन्न है, और जिनके आराध्य भी भिन्न-भिन्न हैं (यहाँ तक कि एक ही आराध्य की अनेक तरह से आऱाधना की जाती है)।
भारत की अदालतों को इस पर फख्र रहा है कि उन्होंने नागरिकों के मौलिक अधिकारों तथा संविधान के संरक्षक की भूमिका निभायी है। हालांकि पिछले कुछ वर्षों में न्यायपालिका ने राज्य (शासन) के स्टेनोग्राफर की भूमिका अख्तियार कर ली है। इन बरसों में सुप्रीम कोर्ट मौलिक अधिकारों की रक्षा करने में लगातार नाकाम साबित हुआ है। दो तरह से। एक तो अपने संवैधानिक कर्तव्य से जान-बूझकर तब तक आँखें मूँदे रहना, जब तक उसके समक्ष विचाराधीन मामला बेमतलब न हो जाए। दूसरे, इसने राज्य को अर्थात सरकार को अनुचित, अनैतिक, अवैधानिक काम बेरोकटोक करने दिया है। नतीजतन, संविधान में लोगों की आस्था का क्षरण हुआ है।
जब मैं संवैधानिक आस्था की बात कर रहा हूँ तो इसका मतलब उस आस्था से है जिसे हम भारत के लोगों ने संविधान को स्वार्पित करते हुए जताया था, जब हममें से प्रत्येक एक सामाजिक अनुबंध में शामिल हुआ था। इसका अर्थ यह था कि हम विश्वास करते हैं कि संविधान अपना काम करेगा और राज्य (शासन) की ज्यादतियों से हमारी रक्षा करेगा। संस्थाएँ संविधान की रूपांतरकारी भूमिका को स्वीकार करेंगी और संविधान को इस प्रकार से लागू करेंगी कि इसके बुनियादी मूल्यों की रक्षा हो। जो लोग चाहते थे कि संविधान के प्रति यह आस्था कमजोर हो जाए, उनके अच्छे दिन आ गए हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने किस तरह काम किया, इसके हाल के दो उदाहरण लें। जब हिजाब पर पाबंदी के मामले में कर्नाटक हाईकोर्ट के फैसले का जिक्र प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली एक खंडपीठ के सामने किया गया, तो प्रधान न्यायाधीश ने वकीलों से कहा, मामले को सनसनीखेज न बनाएँ। फिर मामले को मुल्तवी कर दिया गया। कुछ दिन पहले उन्होंने वकीलों से यह भी कहा कि इस मुद्दे को ‘राष्ट्रीय मुद्दा’ न बनाएँ। इससे उन उपद्रवी तत्त्वों को क्या संदेश गया होगा, जो सांप्रदायिक वैमनस्य की लपटों को हवा देना चाहते हैं। और भी अहम बात यह है कि इससे मुसलमानों और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों को क्या संदेश गया होगा, जिनके अधिकारों से संबंधित मामले अदालत के समक्ष विचाराधीन हैं।
दूसरे, देखें कि जब कृषि कानूनों की वैधता को चुनौती दी गयी तब क्या हुआ था। उन कानूनों को ठंडे बस्ते में डालकर उनका क्रियान्वयन रोक देने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने किसानों से बातचीत करने के लिए एक कमेटी गठित कर दी। संवैधानिक न्याय-निर्णय के इतिहास में शायद ही पहले कभी ऐसा हुआ कि सरकार के फैसले की वैधानिकता को चुनौती दिए जाने पर मामले को एक कमेटी के सुपुर्द कर दिया गया हो। यह हाल के समय में कर्तव्य से आँख मूँदने का शायद सबसे खराब उदाहरण होगा। जब सरकार पर बहुत-से वरिष्ठ पत्रकारों, विपक्षी दलों के नेताओं और खुद सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व जज की जासूसी करने का आरोप लगा, सुप्रीम कोर्ट ने रिपोर्ट देने के लिए एक और कमेटी बना दी।
बेशक जजों से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे टेकनोलॉजी के भी विशेषज्ञ होंगे और उन्हें टेकनोलॉजी से संबंधित मामले में न्यायिक रुख तय करने के लिए एक कमेटी की मदद जरूरी मानी जा सकती है। लेकिन इस मामले में सीधा-सा सवाल यह था : क्या सरकार ने पेगासस का इस्तेमाल करके निजता (प्राइवेसी) के अधिकार (यहाँ तक कि न्यायिक स्वतंत्रता के अधिकार) में दखल दिया? नियम-भंग के ऐसे मामले में अदालत अमूमन सरकार और कानूनी अफसरों को फटकार लगाती, पर अदालत ने, परम बुद्धिमत्ता का परिचय देते हुए, ऐसा नहीं किया।
ऐसे मामलों की सूची, जिसे मैं कोर्ट की भूलों से निर्मित पाप-सूची कहूँगा, लंबी है : अनुच्छेद 370, इलेक्टोरल बांड, बंदी प्रत्यक्षीकरण के कश्मीर के मामले, यूएपीए, प्रवासी मजदूरों का मसला, जस्टिस अकील कुरैशी जैसे जजों की नियुक्ति का मामला, अभिव्यक्ति की आजादी के मामले और हिजाब पर पाबंदी का मामला। यह अंतहीन सूची न सिर्फ संविधानविदों के लिए बल्कि नागरिकों के दिमाग में भी खतरे की घंटी की तरह बजनी चाहिए।
संविधान के प्रति आस्था पर हाल में (2021 में) लिखे अपने एक लेख में अरुण तिरुवेंगाडम ने लिखा : “कोई यह तर्क दे सकता है कि यह एक सामान्य या साधारणीकृत पहचान बनाती है, क्योंकि बहुत सारे अन्य संविधानों की तरह यह भी ढेरों अंतर्विरोध को समाहित किये हुए है। लेकिन लोकलुभावन अस्मिता की राजनीति ओछी, इतिहास से असंगत, तथा मिथों और गलत जानकारी पर आधारित होती है। हालांकि यह सामान्य पहचान और संविधान के प्रति आस्था को आधार माननेवाली हो सकती है और तब यह कुछ हद तक लोकलुभावन राजनीति की एक काट भी पेश करती है।”
संविधान के प्रति आस्था की इस धारणा को कोई कैसे उस न्यायपालिका के बरअक्स रख सकता है जो कार्रवाई नहीं करना चाहती? संविधान के प्रति लोगों की आस्था पर इसका क्या असर पड़ेगा, जो लोकुभावन राजनीति के द्वारा हमें प्रदत्त तमाम समस्याओं और गरीबी के बावजूद, निस्संदेह आशा की अंतिम किरण है?
संविधान का अनुच्छेद 32, बुनियादी अधिकारों के हनन की सूरत में, सर्वोच्च न्यायालय को यह अधिकार देता है कि वह राज्य (सरकार) को निर्देश जारी कर सकता है। अनुच्छेद 32 के इस न्यायाधिकार-क्षेत्र के बारे में बोलते हुए आंबेडकर ने कहा था, “अगर मुझसे पूछा जाय कि संविधान का कौन सा अनुच्छेद सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है- ऐसा अनुच्छेद जिसके बगैर संविधान बेमतलब हो जाता है- तो मैं इसी अनुच्छेद का जिक्र करूंगा, किसी अन्य अनुच्छेद का नहीं। यह हमारे संविधान का प्राण है, उसकी आत्मा है…।”
अपनी निष्क्रियता से अदालत ने नागरिक अधिकारों को, लिहाजा संविधान के प्रति लोगों की आस्था को भी, दिन पर दिन प्रभावहीन किया है। भारत का संवैधानिक ढाँचा रोक और संतुलन (चेक एंड बैलेंस) की व्यवस्था पर काम करता है- यह व्यवस्था यह सोच कर बनायी गयी है कि इसका एक अंग दूसरे अंगों पर नियंत्रण रखे ताकि शक्ति संतुलन बना रहे। जब एक अंग अपना कर्तव्य निभाने में नाकाम रहता है तो वह पूरी संवैधानिक व्यवस्था के बिगड़ जाने का खतरा पैदा करता है। सिद्दीक कप्पन को जेल में सड़ने के लिए डाल दिया जाना, राजनीतिक कैदियों को, उनके खिलाफ बेतुके मामले होते हुए भी, जमानत पर रिहा न किया जाना, जनसंहार और सामुदायिक सफाये का आह्वान, इन सब पर सर्वोच्च न्यायालय की खामोशी खूब जोर-शोर से बोलती है।
पाब्लो नेरूदा ने लिखा था : “आज की रात मैं सबसे उदास पंक्तियाँ लिख रहा हूँ […] मैं अब उसे प्यार नहीं करता, निश्चित रूप से नहीं करता, लेकिन हो सकता है मैं उसे अब भी प्यार करता हूँ।” मैं उसी भावना को प्रतिध्वनित कर रहा हूँ। अदालत से मेरी नाराजगी प्रेमजनित है, लेकिन शायद मुझे इससे अब भी लगाव है और इसकी शक्ति में विश्वास है, कि यह अपनी गरिमा को बहाल करेगी और हरेक भारतवासी को यह याद दिलाएगी कि संविधान सर्वोच्च है। मैं यह लेख अदालत या जजों की छवि खराब करने के लिए नहीं लिख रहा हूँ। मैं सचमुच यह विश्वास करता हूँ कि अपनी नाकामियों के बावजूद सुप्रीम कोर्ट एक ऐसे युग में प्रवेश करे जहाँ यह अपने पुराने गौरव को फिर से हासिल करे, और यह विश्व की सबसे शक्तिशाली संवैधानिक अदालत बन जाए, जहाँ जज ‘भय या लालच से, राग या दुर्भावना’ से प्रेरित होकर काम नहीं करते और उनके सामने केवल एक उद्देश्य होता है : “संविधान और कानून की रक्षा करना”। लेकिन इसके लिए मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व में इसे तेजी से काम करना होगा, कारगर और व्यवस्थित बदलाव करने होंगे।
कोलेजियम के मुखिया और रोस्टर के सर्वेसर्वा होने के नाते मुख्य न्यायाधीश के सामने सुधार का मेनिफेस्टो कैसा होना चाहिए? अहम मामलो की सुनवाई से शुरू करना बेहतर होगा- पेगासस, इलेक्टोरल बांड, अनुच्छेद 370 का निरस्तीकरण, तथा इसी तरह के अन्य मामले। वक्त आ चुका है कि न्यायपालिका स्त्रियों, दलितों और जेंडर के लिहाज से अन्य की श्रेणी में आनेवालों को जज के स्थान पर नियुक्त करके अपने को अधिक समावेशी बनाए, न सिर्फ संवैधानिक अदालत में बल्कि निचली अदालतों में भी, क्षैतिज आरक्षण (हारिजंटल रिजर्वेशन) को सुनिश्चित करके।
काफी समय से सुप्रीम कोर्ट इस बात को भूल गया है कि उसका प्राथमिक दायित्व राज्य और उसके औजारों की ज्यादतियों से नागरिक की रक्षा करना है। वक्त का तकाजा है कि हमारे न्यायाधीश स्मारक व्याख्यानों में मीडिया के लिए ध्यानाकर्षक टिप्पणियाँ करने के बजाय न्याय देने के काम में जुट जाएं, जो कि उनका असल काम है।
(theindiaforum.in से साभार)
अनुवाद : राजेन्द्र राजन