— आचार्य दादा धर्माधिकारी —
डॉ. लोहिया को अपना मित्र मानने में मैं स्वयं को गौरवान्वित महसूस करता हूं । 1933-34 में जर्मनी से स्वदेश लौटने पर वे जमनालाल बजाज के पास आए थे। किसी प्रवास में हम सब साथ थे। हमारे मित्र श्री गोपालराव काले के साथ लोहिया का अखंड संवाद चलता रहता, लेकिन मेरा उनसे मिलना कभी–कभार संयोग से हुआ। फिर भी मेरे मन में उनके लिए आदर और सौहार्द्र कायम है । उनके मत का या उनके व्यवहार का क्या इस मित्रता के साथ कोई संबंध नहीं है । अपने मित्र की हर चीज हमें पसंद आती हो ऐसा नहीं और मत का तो ‘बदलना‘ अनिवार्य धर्म है । इसलिए मैत्री का और मत का संबंध अविभाज्य नहीं हो सकता। पहली मुलाकात में ही लोहिया की तेज और तीक्ष्ण बुद्धि का अनुभव मुझे आया था। किसी भी प्रश्न पर विचार करने की उनकी अपनी एक अलग ही मौलिक पद्धति थी ।
हमारे देश में राजनीति के क्षेत्र में जो प्रमुख लोग हैं उनमें लोहिया का नाम पहली कतार में माना जा सकता है । उनका व्यक्तित्व प्रखर और ध्यान खींचने वाला है भिन्न–भिन्न लोगों के मन में वे अपने विशिष्ट विचार और आचरण के कारण परस्पर–विरोधी, लेकिन उत्कट भावना उत्पन्न करते हैं । उनका व्यक्तित्व प्रक्षोभकारी भी कहा जा सकता है। समकालीनों के सामने वे चुनौती के रूप में ही पेश आएंगे। कुछ लोगों को इसमें पुरुषार्थ और सक्रिय सहयोग प्रतीत होता है तो कुछ लोगों को यह युद्ध की ललकार लगती है। उनके विषय में उपेक्षा, उदासीनता की वृत्ति रखना असंभव हो जाता है। जिस–जिस क्षेत्र में वे प्रवेश करेंगे वहां–वहां उनकी जीवंतता, मौलिकता और उत्कटता का असर हुए बिना नहीं रहता । इसी उत्कटता के कारण उनकी भाषा में तीव्रता आती है, उनके शब्दों में तीक्ष्ण धार चढ़ती है और उनका उपरोध और धारदार बन जाता है । जो सत्य प्रतीत होता है उसे साफ शब्दों में व्यक्त करने में वे विश्वास करते हैं। अपने सिद्धांत और नीति के तौर पर उन्होंने जेल, फावड़ा और वोट यह तीन प्रतीक अपनाए हैं। अब फावड़े को प्रतीक माना है फिर भी यह नहीं कह सकते कि आवेग की चपेट में आने पर वे फावड़े का आदर रखेंगे।
डॉ. लोहिया ने कोर्ट में दिए अपने एक बयान में इतिहास के तीन प्रमुख सत्याग्रहियों का जिक्र किया है। सुकरात, थोरो और गांधी। एथेन्स के लोगों से सुकरात कह रहा था, ‘तुम सब सुस्त और निस्तेज घोड़े जैसे सुस्त पड़े हो । मक्खी बनकर तुम लोगों को जागृत करने मैं आया हूं।‘ सुकरात के ये शब्द इस मौके पर याद आ रहे हैं। सुकरात सत्याग्रही थे । अपने वाक्बाणों से किसी को घायल या आहत करें, यह उनका इरादा नहीं हो सकता था, लेकिन लोग सचेत हो जाए इसलिए वाक्प्रहार कर उन्हें बेचैन कराने का उनका यह एक तरीका था। उनकी वाणी की कठोरता लोगों को अखर गई, लेकिन लोककल्याणकारी तत्वों की तरफ लोगों का ध्यान नहीं गया।
गांधी, बर्नार्ड शॉ और आइंस्टीन को लोहिया बीसवीं शताब्दी के महान व्यक्ति मानते हैं। बर्नार्ड शॉ ने अपने एक निबंध में उन सत्यवीरों की वृत्ति की मीमांसा की है जिन्हें सत्य के प्रतिपादन की खातिर यातनाएं या मृत शासन का वरण करना पड़ा। शॉ कहता है, ये सत्यवीर हुतात्मा अगर कलाकार होते तो उनके लिए इतना तीव्र क्रोध लोगों के मन में उत्पन्न नहीं होता । सत्य का प्रतिपादन जब अहिंसा के माध्यम से होता है तब उसे कलात्मकता प्राप्त होती हैं । लोहिया की बनावट में कलात्मकता और रसिकता भरी हुई है। चित्रकला या कोई शिल्प देखते–देखते वे स्वयं को भूल जाते हैं। यह जिन लोगों ने देखा है वे उनकी रसिकता भाप जाते हैं । जब लोहिया चाहते हैं तब उनकी भाषा में भी यह रसिकता और कलात्मकता व्यक्त होती है । सत्य की अभिव्यक्ति कलात्मकता से होती है तब वह सर्वत्र धन्यता फैलाती है।
शीघ्रकोपी शिव का कोप भी ‘वरेण तुल्यः‘ – वरदान बनकर जगत का कल्याण करता है | क्रांति के प्रेरक तत्व के तौर पर लोहिया को यही मंगलकारी क्रोध अभिप्रेत होगा। उनका अंतःकरण दलित, दीन और दरिद्रों के प्रति असीम करुणा से भरा है । इसीलिए वे आग्रहपूर्वक कहते हैं कि देश के 60% अधिकारों के स्थान, गुणवत्ता का विचार किए बिना आदिवासी, शूद्र, हरिजन और स्त्रियों के लिए सुरक्षित रखे जाने चाहिए। दलितों और पीड़ितों की दुरावस्था देखकर करुणावान मनुष्य के अंतःकरण में जो तीव्र प्रक्षोभ उठता है उसी को लोहिया ने क्रोध की संज्ञा दी होगी।यह क्रोध करुणा की कोख से जन्मा हो तभी वह श्रीराम के शील के अनुसार मर्यादा में रहेगा।
सहृदय मनुष्य को अन्याय से चिढ़ होना स्वाभाविक है। अन्याय और जुर्म को देखकर चुपचाप रहना कोई शांति नहीं है। पौराणिक स्त्रियों में से लोहिया की आदरपात्र द्रौपदी ने ऐसी जड़ता का अत्यंत कठोर शब्दों में निषेध किया है। अन्याय और जुर्म देखकर जिसका हृदय नहीं हिलता, वह मनुष्य ही कैसा! ऐसी स्थिति में प्रतिकार केवल पराक्रम नहीं रह जाता, मानवता का धर्म बन जाता है।
मानवीय सहानुभूति, अथक प्रतिकार–प्रवृत्ति, राष्ट्र–निरपेक्ष लोकनिष्ठा, स्वयंप्रज्ञा और अविरल कर्मशीलता इन पांच तत्वों से लोहिया बने हैं । अकुंठित प्रतिभा और तर्कपूर्ण वाक्पटुता के चलते उनका व्यक्तित्व सप्त धातुओं की मूर्ति की तरह था। प्रतिभा और मौलिकता उनमें मानवेंद्रनाथ राय, विनोबा – जयप्रकाश की तरह हैं। यह तुलना नहीं है और न ही मेरी भूमिका समीक्षा या टीका करने की है। हां, सामान्य मनुष्य की, गुणग्राही भूमिका है। बड़े लोगों के उदाहरण देने तक ही उन लोगों के नामों का जहां जिक्र किया है । मासत्तर क्रांति के विज्ञान में और समाजशास्त्र में मानवेंद्रनाथ राय का योगदान सराहनीय है। उनके नवमानवतावाद और अभिनव क्रांति–तंत्र ने अनेक बुद्धिजीवियों को अभिभूत किया। विनोबा ने आर्थिक क्षेत्र में अहिंसा के क्रांति–तंत्र के अपूर्व प्रयोग किए। सत्याग्रह के विचार का अमूल्य परिवर्द्धन किया।
जयप्रकाश ने समाजवाद का विकसित स्वरूप सर्वोदय के रूप में किस तरह आविर्भूत हुआ इसकी तर्कयुक्त मीमांसा की। लोहिया कहते हैं, हमारे युग में केवल दो विचार सामने आए – गांधी और अणुशक्ति। विगत छह सौ वर्षों में गांधी की बराबरी का दूसरा महान व्यक्ति हुआ नहीं। इन शब्दों में वे गांधी के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हैं। वे यह भी कहते हैं कि मैं मार्क्सवादी नहीं हूं और न ही मार्क्सवाद का विरोधी हूं, लेकिन मैं गांधीवादी या गांधीवाद का विरोधी भी नहीं हूं । स्वयं मार्क्स या गांधी मार्क्सवादी या गांधीवादी तो थे नहीं । लोहिया लोहिया ही हैं और इसीलिए उनका महत्व है। पंचमढ़ी का प्रबंध उन्होंने अपने सहयोगियों के समक्ष रखा तब समाजवाद के उस नवदर्शन का वर्णन जयप्रकाश जी ने एक महान विचार–यज्ञ के रूप किया। एक दूसरे प्रसंग पर उस प्रबंध को जयप्रकाश जी ने ही ‘नवविचारों की अभिजात सृष्टि‘ कहा ।
आचार्य कृपलानी और राजाजी भी ऐसे ही सर्वतंत्र – स्वतंत्र हैं। किसी भी संगठन, संस्था, संप्रदाय या पक्ष में उनका व्यक्तित्व समा सके यह असंभव है। उनके व्यक्तित्व को किसी बाड़ या सीमा में नहीं बांधा जा सकता। विश्व – नागरिकता और विश्व – सरकार यह लोहिया के सपने नहीं, बल्कि उनकी व्यावहारिक आकांक्षा है। उनकी मांग है कि समाजवादी, विश्व–मन और विश्व दृष्टिकोण को स्वीकार करें।
अपने अभीष्ट क्रांति तंत्र के अनुरूप उन्होंने इतिहास की अभिनव मीमांसा की है। अखिल मानवीय संगठन के प्रमेय तथा गोरे और गैर–गोरे लोगों के परस्पर व्यवहार के निकष लोहिया ने समय–समय पर विचार प्रवर्तक सूत्रों में रखे हैं। उनकी किताबें और मैनकाइंड में लिखे लेख मुझे अत्यंत उद्बोधक और रोचक प्रतीत हुए। अंग्रेजी भाषा पर उनका जबर्दस्त प्रभुत्व है। मैं कोई भाषाविद नहीं हूं, लेकिन ऐसा लगा कि अंग्रेजी की तुलना में उनकी हिंदी कम संपन्न और कम रुचिर है। ‘सर्वतंत्र – स्वतंत्र‘ इन शब्दों के दोनों अर्थों में लोहिया को सर्वतंत्र – स्वतंत्र कहा जा सकता है इसका एक अर्थ है सर्व शास्त्र पारंगत । मैं इसका अर्थ सर्व शास्त्रों में अपने प्रयोजन– पर्याप्त गति निकालता हूं। किसी भी तंत्र या संविधान की लगाम जिसे काबू में नहीं रख सकती वह सर्वतंत्र – स्वतंत्र कहा जा सकता है । दोनों अर्थों में लोहिया सर्वतंत्र – स्वतंत्र हैं ।
ट्रावनकोर कोचीन राज्य में पट्टम् थानु पिल्ले की समाजवादी सरकार ने गोलीबारी कराई तब लोहिया में जो नैतिक शौर्य का दर्शन कराया वैसा इस देश के बड़े–से–बड़े गांधीवादियों ने भी नहीं दिखाया । स्वपक्ष के सरकार के द्वारा की गई गोलीबारी का उन्होंने कड़े शब्दों में निषेध कर सरकार के इस्तीफे की मांग की थी। इस उदात्त प्रसंग पर आचार्य कृपलानी ने उनके गौरव में कहा था कि गांधी जी के सिद्धांत व्यवहार में चरितार्थ करने में लोहिया एक कदम आगे रख रहे हैं । राजाजी और लोहिया पार्टी स्थापना का उपक्रम क्यों करें यह अल्पमति, अप्रबुद्ध सामान्य मनुष्य के लिए एक पहेली ही है। उसमें भी लोहिया का विश्व – लोकसभा यह आदर्श है । विश्व– नागरिकता उनका प्रण है और विश्व लोकसभा की स्थापना के लिए अपनी सरकार के खिलाफ अहिंसात्मक सत्याग्रह करने का सुअवसर आए यह उनकी आकांक्षा है। इसलिए छोटे–छोटे नीड़ बनाने का शौक उनके लिए बहुत अनुकूल नहीं होगा ।
सत्याग्रह में हिंसा का निषेध ये लोहिया की मूलभूत नीति का ध्रुव तत्व तथा वैश्विक लोकसभा और विश्व – नागरिकता उनकी वृत्ति के स्थिर भाव हैं, परंतु मौके पर उन्होंने जबरी भर्ती का भी प्रतिपादन किया है। विरोधी पक्षों का संयुक्त मोर्चा बनाना राजनीतिक डकैती के लिए मौका देने जैसा होगा यह प्रतिपादन करने वाले लोहिया ने ‘रथ्याचर्पट–विरचितकंथः पुण्यापुण्यविवर्जितपंथः ‘ इस प्रकार के संयुक्त मोर्चों का बड़े जोश से समर्थन किया और दक्षिणपंथियों के अग्रणी मीनू मसानी को प्रधानमंत्री पद दिया जाए यह सुझाव भी दिया । इसलिए काल और प्रसंग के बदलने वाली तत्कालीन नीतियों का विचार परे रखकर हम यहां–वहां बिखरे उनके अनुरूप राष्ट्रीय और विदेश किसी विषयक सुभाषितों का संग्रह करें। नमूने के लिए यहां कुछ प्रस्तुत है ।
‘व्यक्ति की उपेक्षा कर मार्क्सवाद परिस्थिति को अधिक महत्व देता है । मानव की उपेक्षा और मानवता का प्रेम की सीख देने वाले इस निर्गुण सिद्धांत के कारण क्रूर तानाशाही को प्रोत्साहन मिलता है ।‘
‘स्वदेश में रशियावादी और विदेशी व्यवहार में अमरीकावादी, यही सिद्धांत भारत के लिए उपयोगी होगा।‘
‘रोम से लेकर होनोलुलु तक फैली हुई एक और टोकियो से काहिरा तक की दूसरी – ऐसी दो दुनियां हैं।‘
‘यंत्रोत्पादन का नया तंत्र और उसके साथ सुसंगत मालिकाना अधिकारों की नई पद्धति खोजनी होगी।‘
‘प्रत्येक क्षण महाकाल–प्रवाह में एक कड़ी है, परंतु वह अपने में भी शाश्वत हैं।क्षण का यह द्विविध रूप भुला गया है। इसलिए भौतिक और आध्यात्मिक इस प्रकार मिथ्या द्वंद्व निर्माण हुआ है।‘
‘रचनाविरहित संघर्ष क्रियापद बिना वाक्य समान है।‘
‘संत (गांधीवादी) चालित होते हैं तो ढोंगी बनते हैं और ऋषि (मार्क्सवादी) चालित होते हैं तो क्रूर होते हैं।‘
‘हमारी राजनीति में समस्याएं उपस्थित होती हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि सिद्धांतों को सगुण रूप दिया नहीं जाता।‘
‘मन बदलेगा तो राजनीति का पावा बदलेगा और फिर देश बदलेगा। दाव–पेंच की नीति अपनाकर थोड़े देश बदलने वाला है? जो दूर का लग रहा है वही नजदीक का रास्ता है। नजदीक की लगने वाली पगडंडी ही वास्तव में लंबा रास्ता है। पगडंडी यानी मरुभूमि की मृगमरीचिका।‘
इसी संदर्भ में यह एक मजेदार प्रमेय देखें। ‘सत्ता – प्राप्ति की इच्छा राजनीतिक पक्ष के लिए बड़ी कसौटी है । सत्ताकांक्षा छिपाने की कोशिश करना और सत्ता को पाप मानना यह तो राजनीतिक पक्ष के अस्तित्व के ही खिलाफ है, लेकिन अपनी सत्ताकांक्षा असत्य और धोखाधड़ी से दूर रखना आवश्यक है।‘
ये सभी सूत्र और उनमें सूचित प्रमेय सबको मान्य हों ऐसा नहीं है, लेकिन विचारप्रवर्तक अवश्य लगेंगे। संत और ऋषि के भ्रष्ट होने पर उनकी क्या स्थिति होती है इसका वर्णन लोहिया ने तीखे शब्दों में किया है। उसी प्रकार सत्ताकांक्षी भ्रष्ट होने पर क्या होता है इस पर भी यदि वे टिप्पणी करते तो आज की स्थिति में वह बड़ा उद्बोधक सिद्ध होता। लोहिया की ‘चौखंभा राज्य‘ की कल्पना तथा उनका ‘समान पृथकत्व‘ का सिद्धांत सर्वविदित होने से उसका उल्लेख नहीं किया है।
1933 से 41 तक लोहिया से मेरा मिलना, वे जब जमनालाल जी और गांधी जी के पास आते थे तब बार–बार होता था। अक्सर उनके आतिथ्य का मौका हमें ही मिलता। तब उनके सहज प्रेम और खुलेपन का मैंने अनुभव किया ।
हया ने किसी से कहा था कि दो लोगों का उन पर प्रभाव पड़ा है। ‘दो लोग‘ से मतलब गांधी और नेहरू हैं। लोहिया ने यह भी कहा कि नेहरू बहुत सहृदय स्वभाव के हैं। मुझसे बात करते हुए लोहिया ने ऐसा ही कुछ कहा था– ‘इस देश में डेढ़ मनुष्य हैं, पूरा मनुष्य है गांधी और पचास प्रतिशत है जवाहरलाल।‘