— आनंद कुमार —
आज़ादी के बाद की स्वराज-यात्रा और लोकतांत्रिक राष्ट्रनिर्माण के दौर में १९७४ एक ऐतिहासिक मोड़ रहा है. इसने परिवर्तन के सपने को सच बनाया और परिवर्तन के सच में निहित अंतर्विरोधों को भी बेपर्दा किया. सत्ता की असलियत का पता चला और सत्ता-परिवर्तन की सीमाओं से साक्षात्कार हुआ. १९७४ में उत्पन्न जनजागरण और जन-आन्दोलन ने एक तरफ जनसाधारण में ‘आत्मविश्वास’ को गहराई दी और दूसरी तरफ आन्दोलनकारियों की ‘आत्ममुग्धता’ को कम किया. स्वतंत्रता और जनतंत्र के प्रति नयी आस्था का संचार हुआ.
लेकिन आन्दोलन के बाद के दौर में जाने-अनजाने धनबल, बाहुबल और मीडिया-बल के त्रिदोष का भी प्रकोप बढ़ा. इसलिए जनतंत्र में भरोसा मजबूत हुआ लेकिन जनतांत्रिक राजनीति और चुनाव की प्रक्रिया के प्रति मोहभंग हुआ. जहाँ कस्बों, जिलों और प्रदेशों में वैकल्पिक व्यवस्था की दिशा में नए आन्दोलनों, संगठनों और मंचों का सर्जन संभव हुआ और वहीं बहुदलीय संसदीय जनतंत्र की रचना से जुड़े कई पुराने आन्दोलनों, दलों और संगठनों का विसर्जन हो गया. फिर तात्कालिक तौर पर धीरे धीरे छात्र-युवा आन्दोलन की खाद से संसदवादी दलों की नयी फसल लहलहाने लगी. विद्यार्थी युवा शक्ति के लिए गठित छात्र-युवा संघर्ष समितियों और लोकशक्ति के लिए शुरू लोकसमितियों का ‘परिवारवाद’ और ‘पूंजीवाद’ के गंठजोड़ पर आधारित नवोदित चुनाववादी क्षेत्रीय और राष्ट्रीय दलों में विलयन होने लगा. लोकनायक जयप्रकाश के आवाहन पर सत्तर के दशक के उत्तरार्ध में सम्पूर्ण क्रांति के लिए सामने आये हजारों समर्पित आन्दोलनकारियों के अभूतपूर्व समागम का अस्सी के दशक के समापन होते होते ‘मंडल, कमंडल और भूमंडलीकरण’ की तीन नयी धाराओं में विघटन हो गया.
कवि नागार्जुन के शब्दों में:
‘कुछ कुंठित औं’ कुछ लक्ष्य अष्ट हुए;
रण की समाप्ति के पहले ही जो वीर रिक्त तुणीर हुए..
विनायक की रचना का संकल्प था और वानरों की जमात का जनम हुआ. ‘भीलन लूटी गोपियाँ, वही अर्जुन वही बाण….!’.
शुभ और अशुभ की शक्तियों के सनातन संघर्ष में जेपी के देहांत के बाद अशुभ की शक्तियों की बाढ़ आ गयी. इस बाढ़ में शुभ के लिए संकल्पबद्ध सेनानियों को कालचक्र ने हाशिये पर धकेल दिया. लखनऊ से छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी में जुड़े और आजीवन सहभागी लोकतंत्र के लिए लोकपहल की रचना में जुटे राजीव जी हाशिये पर सक्रिय नायक थे. उनके सार्वजनिक जीवन में प्रवेश का मुहूर्त ७४ के घटनाक्रम ने बनाया था. उनकी दशकों की निष्काम सक्रियता की साख ने उन्हें पुनः पुनः प्रासंगिकता दी. वह भारत को ‘दरिद्रता मुक्त’ बनाने के लिए बेचैन थे. युवा भारत को लील रही बेरोजगारी से बहुत व्यथित थे. हमने उनको एक आदर्शवादी युवक के रूप में
अस्सी के दशक में श्री चन्द्रदत्त तिवारी के सौजन्य से जाना था. वह सादगी, सरोकार, साहस, विनम्रता और सहजता की प्रतिमूर्ति थे. इन्हीं गुणों ने उनकी जीवन यात्रा को सार्थक बनाया. इससे उनमें पैगम्बरी और रहबरी दोनों की झलक दीखती थी. इस शताब्दी के शुरू में हमारी निकटता बढ़ी. ‘जन लोकपाल आन्दोलन’ के प्रति हम दोनों आशावान थे. २०२२ से लोकतांत्रिक राष्ट्रनिर्माण अभियान ने हमें फिर से सहयात्री बना दिया था. उनका आकस्मिक महाप्रस्थान बहुत शोकजनक है. उनकी स्मृति को समर्पित यह आलेख एक बड़े सपनोंवाले नायक के प्रति कर्तव्यबोध से प्रेरित है.
असल में ‘७४ आन्दोलन के तीन और नाम हैं बिहार आन्दोलन, जे. पी. आन्दोलन और सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन. बिहार के सरोकारी लोगों को ‘बिहार आन्दोलन’ सही लगता है. इससे बिहार का सम्मान बढ़ता है और आन्दोलन की भौगोलिक आधारभूमि का स्मरण होता है. बिहार सरकार ने बिहार आन्दोलन नाम से समाजशास्त्री महेंद्र नारायण कर्ण के सम्पादन में १० खण्डों का एक प्रकाशन भी प्रस्तुत किया है.
सर्वोदयी बिरादरी और कम्युनिस्टों में ‘जे.पी. आन्दोलन’ जादा प्रचलित है. यह जयप्रकाश नारायण की क्रांतिकारिता, लोकनिष्ठा, नेतृत्व क्षमता और गांधीमार्ग के प्रति समर्पण को रेखांकित करता है (देखें; एम्. जी. देव्सहयम जे. पी. मूवमेंट, इमरजेंसी एंड द सेकंड फ्रीडम मूवमेंट (वितिस्ता, नयी दिल्ली, २०१७), जेपी आन्दोलन और भारतीय लोकतंत्र संपादक शिवदयाल (प्रलेक प्रकाशन, मुंबई, २०२४). इसमें एक सत्याग्रही की चमक और एक लोकसेवक के करिश्में की आभा है. ‘७४ के आन्दोलन को जे. पी. से जोड़ने में आन्दोलन विरोधी शक्तियों का भी योगदान था. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं से लेकर उनके समर्थक बुद्धिजीवियों-पत्रकारों ने ने अपने भरसक इसे विद्यार्थी-विद्रोह से प्रेरित जन-आन्दोलन की बजाए जे. पी. का कारनामा बनाकर पेश किया. इंदिरा सरकार के समर्थकों के प्रदर्शन में मुख्यतः जे.पी. की आलोचना की जाती थी. जे. पी. के खिलाफ नारे लगाए जाते थे. जैसे ‘जयप्रकाश मुर्दाबाद’, ‘जयप्रकाश पर हमला बोल, हमला बोल हमला बोल’, ‘अमरीका को दे दो तार, जयप्रकाश की हो गई हार.’ आदि (देखें; राजेश्वर राव आदि (१९७५) इमरजेंसी एंड कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इण्डिया (नयी दिल्ली, कम्युनिस्ट पार्टी), बिपन चन्द्र इन द नेम ऑफ़ डेमोक्रेसी (नयी दिल्ली, पेंगुइन, २००३).
अनेकों व्यक्तियों में इसकी ‘सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन’ के रूप में आशावादी स्मृतियाँ हैं. यह नाम भारतीय समाज में गहराते आत्मविश्वास और असंतोष दोनों को पहचान देता है. यह समाज के बहुमुखी ‘क्रान्तिकरण’ का आवाहन करता है. इसमें भविष्य के प्रति जिम्मेदारी की भी प्रतिध्वनि है. जे. पी. के निकट सहयोगी ब्रह्मानंद ने ‘टुवर्ड्स टोटल रेवोल्यूशन’ नाम से चार खण्डों में एक किताब भी १९७८ में प्रकाशित की थी. राजीव जी चारों पहचानों के प्रति अनुराग रखते थे. हमें भी यही सही लगता है.
बिना १९७४ के हालात के बिहार में विद्यार्थी आन्दोलन की निरन्तरता असम्भव थी. फिर बिहार के जन- असंतोष की बुनियाद कैसे बनती.? ‘बिहार आन्दोलन’ का ध्वजवाहक कौन बनता? बिना बिहार में जन असंतोष और विद्यार्थी विद्रोह के जे. पी. का नेतृत्व कौन स्वीकारता? विनोबा के मौन और सर्वोदय के एक पक्ष में आन्दोलन-आग्रह के बीच विखंडन की ओर बढ़ रहे सर्वोदय परिवार में उत्पन्न गतिरोध की दशा में ‘जे. पी. आन्दोलन’ के विशेषण को और कौन स्वीकारता? गुजरात में भ्रष्टाचार और महंगाई के खिलाफ सड़कों पर उतरी विद्यार्थी जमातों और गृहिणियों के ‘नवनिर्माण आन्दोलन’ के लिए रविशंकर महाराज और मोरारजी देसाई के बीच किसी और नायक की कोई भूमिका नहीं संभव थी. ‘सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन’ का आवाहन जयप्रकाश नारायण की जीवन भर की साधना का सारांश था. उन्होंने तो दिसम्बर, ‘७३ तक जनतंत्र बचाओ की ही पुकार
की थी. लेकिन बिहार में १८ मार्च (पटना में गोलीबारी और कर्फ्यू) और १२ अप्रैल (गया में पुलिस की गोली से ८ लोगों की मौत) के बीच हुए सत्ता-तांडव ने उन्हें आत्ममंथन की प्रेरणा दी. जन-असंतोष की व्यापकता, विद्यार्थी नेतृत्व के बार-बार मार्ग दर्शन निवेदन और सर्वोदय के लोगों के सहयोग ने उनको आत्मबल दिया. इस सबके सम्मिलित प्रभाव से उन्होंने ‘सत्ता के रस्मी परिवर्तन की बजाय व्यवस्था में आमूल परिवर्तन’ की अनिवार्यता को मूलमंत्र बताते हुए ५ जून को पटना के गांधी मैदान में हुई अभूतपूर्व महारैली में ‘सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन’ का आवाहन किया था. यह नामकरण हमें देश (बिहार), काल (७४ आन्दोलन’), और व्यक्ति (जे.पी. आन्दोलन) से परे और आगे ले जाता है. लेकिन बिना ‘७४, बिहार और जे. पी. को जोड़े इसमें निर्गुणता का दोष आ जाएगा. इसलिए इस बहुआयामी सच को कई नामों वाली पहचान देने में कोई दोष नहीं है.
‘७४ के माहौल में क्या खास बात थी?
सत्ता-व्यवस्था की दृष्टि से यह इंदिरा गांधी की दिग्विजय का ‘उत्तर काण्ड’ था. कांग्रेस पार्टी १९६९ में दो टुकड़ों में टूट गयी थी लेकिन इंदिरा गांधी ने १९७१ के लोकसभा मध्यावधि चुनाव में संसद में प्रबल बहुमत से अपने प्रधानमंत्रित्व को सुरक्षित करने में सफलता हासिल की थी. उनका सत्ताधारी कांग्रेस पर भी पूर्ण नियंत्रण हो चुका था. घरेलू मोर्चे पर समस्त संसदीय प्रतिपक्ष पराजित और हतप्रभ था. संसदीय दायरे के बाहर मार्क्सवादियों का क्रांतिकारी हिस्सा (‘माओवादी’) जेलों में बंदी था. रेल मजदूर हड़ताल विफल हो चुकी थी. किसान आन्दोलन के शिविर में सन्नाटा था.
सोवियत संघ के साथ मैत्री संधि करके पाकिस्तान के गृहयुद्ध में पूर्वी पाकिस्तान के जन-आन्दोलन को सहारा देने और बांग्लादेश के जनम के साथ पकिस्तान के दो टुकड़े होने से पड़ोसियों की एक बड़ी समस्या का समाधान किया जा चुका था. इससे देश की हिंदूवादी शक्तियों का समर्थन सहज हो गया. १९६९-७१ के बीच बैंकों के राष्ट्रीयकरण, राजाओं के ‘प्रीवी-पर्स’ की समाप्ति, भारत-सोवियत संधि, ग्रामीण मजदूरों को आवासीय भूमि आवंटन जैसे फैसलों से कम्युनिस्ट और समाजवादी इंदिरा गांधी के साथ समर्थन में खड़े थे.
प्रशासन और न्यायपालिका में ‘प्रतिबद्धता’ के दबाव को प्रगतिशील प्रचारित किया जा रहा था. लेकिन चुनाव में धनशक्ति के बढ़ते असर, सोवियत खेमे से निकटता और सर्वोच्च न्यायालय में पदोन्नति में हस्तक्षेप को लेकर जागरूक व्यक्तियों में चिंता भी थी. एक तरफ देश में लोकतांत्रिक प्रक्रिया से प्रधानमंत्री का महत्व बढ़ रहा था. तो दूसरी तरफ सत्ता के केन्द्रीयकरण, महंगाई, भ्रष्टाचार और युवा असंतोष की अनदेखी को बढ़ावा मिल रहा था. स्वतंत्रतासेनानी, समाजवादी आन्दोलन के शिखरपुरुष और सर्वोदय नायक जयप्रकाश नारायण ने इस परिस्थिति की समस्याओं को सामने रखने का प्रयास किया, लेकिन सत्ता-प्रतिष्ठान ने उनकी चेतावनी की अनदेखी की. जबकि जे. पी. की आलोचना में निर्दलीयता का आग्रह था. कुछ बुनियादों सुधारों का अनुरोध था.
कवि दुष्यंत कुमार ने एक कविता में सन ‘७४ के माहौल का बेमिसाल वर्णन प्रस्तुत किया था जिसकी कुछ पंक्तियाँ बहुत काम की हैं:
एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है
आज शायर यह तमाशा देखकर हैरान है
एक बूढ़ा आदमी है मुल्क में या यों कहो –
इस अँधेरी कोठरी में एक रोशनदान है
मस्लहत-आमेज़ होते हैं सियासत के कदम तू न समझेगा सियासत, तू अभी नादान है कल नुमाइश में मिला हमें चीथड़े पहने हुए मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिन्दुस्तान है
इस सन्दर्भ में हिंदी के यशस्वी साहित्यकार धर्मवीर भारती की कालजयी कविता ‘मुनादी’ में लिखी गयी बात का एक हिस्सा उधृत करना भी प्रासंगिक होगाः
हर खासो आम को आगाह किया जाता है खलक ख़ुदा का मुलुक बाश्शा का हुकुम शहर कोतवाल का कि ख़बरदार रहें और अपने-अपने किवाड़ों को अंदर से कुंडी चढ़ाकर बंद कर लें गिरा लें खिड़कियों के परदे और बच्चों को बाहर न भेजें क्योंकि एक बहत्तर बरस का बूढ़ा आदमी अपनी कमज़ोर कांपती आवाज़ में सड़कों पर
सच बोलता हुआ निकल पड़ा है…
इसी भाव को सम्पूर्ण आन्दोलन के आवाहन गीत के रूप में जानकी बहन, अरुण और कारो जैसे तरुण शांति सैनिक छोटी बड़ी जनसभाओं में लय ताल के साथ गाने के लिए आगे आ गए थेः
जयप्रकाश का बिगुल बजा है जाग उठी तरुणायी है, तिलक लगाने तुम्हें जवानों क्रान्ति द्वार पर आई है….
समाजवादी चिन्तक और ‘७४ आन्दोलन / बिहार आन्दोलन / जे. पी. आन्दोलन / सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन में जे. पी. और छात्रों-युवाओं के सहयात्री किशन पटनायक ने भी उस दौर का विवरण देते हुए तीन बिन्दुओं को रेखांकित किया है १. हमें १९७४-७७ के घटनाक्रम को उससे पहले के तीन दशकों के घटनाक्रम की परिणति के
रूप में समझना चाहिए (१९७४ के आन्दोलन की पृष्ठभूमि के तीन दशकों का सजीव चित्रण क्रमशः फनीश्वरनाथ रेणु के ‘मैला आँचल’ और ‘परती परिकथा’, श्रीलाल शुक्ल के ‘राग दरबारी’ और ‘दारुलसफा’, शिवप्रसाद सिंह के ‘गली आगे मुड़ती है’, और काशीनाथ सिंह के ‘अपना मोर्चा’ देखें.). २. निश्चय ही जे. पी. १९७४ के राष्ट्रीय हालात के प्रति संवेदनशील होकर एक उग्र राजनीतिक हस्तक्षेप के लिए विद्यार्थी आन्दोलन के प्रति आकर्षित हुए. सर्वोदय वाला ‘वनवास’ खतम हुआ. इसलिए संघर्ष के लिए सामने आते ही उनका कद बहुत ऊंचा हो गया. उग्र हस्तक्षेप के लिए देश तैयार था, जे. पी. तैयार थे. इसलिए देश हिल भी गया. ३. आन्दोलन में जे. पी. ने सिर्फ निर्दलीय युवाओं को अपना समझा था और उनको प्रशिक्षित करने की उनमें आशा थी. वह उस समय के राजनीतिक दलों के चरित्र से भी परिचित थे. इसीलिए उन्होंने आन्दोलन में शामिल होने के आठ महीनों में ही छात्र युवा संघर्ष वाहिनी की स्थापना की. जो युवा वाहिनी से जुड़े उनकी बुनियादी मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता आजीवन बनी रही और वे सत्ता-पदों की होड़ में कभी नहीं पड़े. (मैं श्री राजीव की यशस्वी जीवन-यात्रा को इसका एक उल्लेखनीय उदाहरण मानता हूँ.)
‘७४ की सबसे महत्वपूर्ण बात के रूप में यह तथ्य अविस्मरणीय है कि स्वाधीनोत्तर भारत में जयप्रकाश नारायण पहले नेता थे जिनको लाखों लोगों का, विशेषकर बिहार में, व्यापक समर्थन मिला. केवल दर्शन के लिए कड़ी धूप या बरसात में हजारों छात्रों और नागरिकों का जमा हो जाना और घंटों इंतज़ार करना. मात्र दो शब्द सुनने के लिए देर रात में रेलवे स्टेशनों पर एकत्र होकर नारे लगाना. लाखों की भीड़ का सभा में एकत्र हो जाना और चुपचाप भाषण सुनना एक अद्भुत और अभूतपूर्व वास्तविकता थी. इनमें जादातर निर्दलीय लोग थे. हजारों की संख्या में छात्रों में छिपी शक्ति जैसे एकदम सामने आ गयी. इनमें सैकड़ों छात्र -छात्राएं ऐसे थे जिन्होनें जे. पी. के आवाहन पर एक साल के लिए अपनी पढ़ाई छोड़कर आन्दोलन में लग गये थे (देखें श्रवण कुमार गर्ग – बिहार आन्दोलनः एक सिंहावलोकन (सर्वसेवा संघ, वाराणसी; १९७४). छात्राओं और गृहिणियों की सतत भागीदारी इस आन्दोलन का अत्यंत महत्वपूर्ण पक्ष था. महिला शक्ति के उदय ने राजनीति के क्षेत्र में परुषों के लैंगिक वर्चस्व को तोड़ दिया. कवियों और रचनाकारों का आन्दोलन का अभिन्न अंग बनना भी अपूर्व पहलू था. इन कविताओं को शैलेन्द्र नाथ श्रीवास्तव के सम्पादन में ‘आन्दोलन की कवितायें’ नामक संग्रह में संकलित किया गया है. एक अन्य मूल्यांकन में यह भी याद कराया गया है कि सहभागिता के हिसाब से जातीय, वर्गीय और क्षेत्रीय दृष्टि से ‘७४ का आन्दोलन स्वतन्त्र भारत का सबसे बड़ा, समावेशी, सर्वस्पर्शी आन्दोलन था. समस्त उत्तर भारत, पश्चिम भारत, पूर्वी भारत से लेकर दक्षिण में कर्नाटक तक आन्दोलन का प्रभाव था (शिवदयाल जे. पी. आन्दोलन और भारतीय लोकतंत्र (प्रलेक प्रकाशन, मुम्बई, २०२४; पृष्ठ २३) इसलिए ‘७४ के बिहार आन्दोलन को जे. पी. आन्दोलन कहना एकदम सटीक है.