इस दुनिया में अजनबी की तरह आया और इसे छोडते समय भी मैं अजनबी ही हूं”, लिखा था औरंगजेब ने अपने एक खत में अपनी जिन्दगी के आखिरी वक्त में। वह जानता था कि उससे गलतियां हुयीं। उसने अपने बेटे से कहा, “मैंने राजधर्म का पालन नहीं किया। मैं प्रजावत्सल नहीं था। मैंने अपना जीवन व्यर्थ में गंवा दिया..ㅣ उसने यह भी लिखा, “प्रभु हम परिणाम निराशा।” प्रभु मेरे पास हैं, लेकिन मेरी आंखों की ज्योति क्षीण है, इसलिये उनकी प्रोज्ज्वल प्रभा को मै नहीं देख पा रहा हूं।” इस आत्मस्वीकृति में सूरदास की प्रार्थना “मो सम कौन कुटिल खल कामी”, तुलसीदास के विनय भाव “अब लौं नसानी, अब न नसैहों” या George Herbert की भक्तिभावना “Love bade me welcome; yet my soul drew back, Guilty of dust and sin” की अनुगूंज है।
औरंगजेब जन्मजात योद्धा था और एक महत्वाकांक्षी और निपुण सेनापति के रूप में उसे बहुत-सारी सफलताएं मिलीं जिनमें उत्तर में चटगांव और दक्षिण में दक्कन सल्तनत और कर्नाटक क्षेत्र पर विजय सम्मिलित है। उसने निश्चित तौर पर भौगोलिक रूप से भारत के एकीकरण मे योगदान दिया, लेकिन चूंकि उसकी प्रशासनिक दृष्टि एक धर्म विशेष से प्रभावित थी, वह सफल प्रशासक नहीं बन पाया। अपने साम्राज्य की वैचारिक आधारशिला को मजबूत करने के उद्देश्य से उसने अनेक मंदिरों को धराध्वस्त किया, लेकिन उसका परिणाम उल्टा निकला। वह नहीं समझ पाया कि भारत के सफल सम्राटों की राजनैतिक विचारधारा “सर्व धर्म समभाव” पर आधृत रही है।
हर व्यक्ति के जीवन में कुछ सकारात्मक पहलू होते हैं। औरंगजेब का व्यक्तिगत जीवन सीधा-सादा था। वह आलमगीर था, जिल्ले इलाही था, लेकिन कहा जाता था कि वह अपने खर्च के लिये सरकारी खजाने नहीं खोलता था। वह कैलिग्राफी (सुलेखन) में सिद्धहस्त था और कुरान की नकल करने से जो कुछ पैसे वह कमाता था, उसी से उसकी जरूरतें पूरी हो जाती थीं। उसने सार्वजनिक स्थानों पर मदिरापान, बादशाह को सोने से तौले जाने, पटाखों और आतिशबाजी के उपयोग आदि प्रथाओं पर रोक लगायी जिससे मुल्क में सादगी को बढावा मिला। गांधीजी को भी औरंगजेब की सादगी पसन्द थी। उन्होंने कहा, औरंगजेब अपने हाथ से बनायी टोपी पहनता था जिससे स्पष्ट होता है कि चर्खा स्वावलंबन का प्रतीक है। उन्होंनें एक बार यह भी कहा, मुगल जिसके शासनकाल में राणा प्रताप और क्षत्रपति शिवाजी जैसे प्रतिद्वंदी शासक पैदा हुये, की अपेक्षा ब्रिटिश शासक जिसने विरोध की हर आवाज को निर्ममता से कुचलने का प्रयास किया, अधिक निरंकुश है। विलासिता में आकंठ डूबे हुये आज के धनकुबेर राजनेताओं को औरंगजेब के निजी जीवन की सादगी से सबक लेनी चाहिए।
चूकि औरंगजेब तत्कालीन विश्व के सबसे शक्तिशाली और समृद्ध साम्राज्य का सम्राट था, उसकी ख्याति सात समुद्र पार फैली और उसके जीवनकाल में ही इग्लैंड के पोएट-लाॅरियेट जाॅन ड्राइडेन ने उस पर Aureng-Zebe नामक नाटक लिखा। फारसी कवियो और लेखकों ने उस पर कवितायें लिखीं, किताबें लिखी। गुरु गोविंदसिंह ने “जफरनामा” (विजय पत्र) जो वस्तुतः चमकौर के युद्ध के बारे में औरंगजेब के नाम लिखा गया लम्बा पत्र है, की रचना की। भवानीदास समेत अनेक चित्रकारों की तूलिका ने औरंगजेब के चित्र बनाये जो आज भी लंडन के ब्रिटिश म्युजियम, विक्टोरिया एंड अल्बर्ट म्युजियम और युएसए के हार्वर्ड आर्ट म्युजियम, क्लीवलैंड आर्ट म्युजियम, मेट्रोपोलिटन म्यूजियम ऑफ आर्ट, स्मिथसोनियन, , एशियन आर्ट म्युजियम, न्यूजीलैंड के औकलैड म्युजियम आदि स्थानों में सुरक्षित हैं।
औरंगजेब एक व्यक्ति नहीं, भारतीय इतिहास के प्रवाह का अंग है। उसके कब्र को तोडा जा सकता है, लेकिन हम अतीत में प्रवेश कर इतिहास की उस धारा को नहीं बदल सकते जो औरंगजेब के सिंहासन से उठी थी। सत्रहवीं से लेकर इक्कीसवीं सदी के अनेक इतिहासकारों, साहित्यिकों और चित्रकारों ने अपने अपने ढंग से उस प्रवाह को अंकित किया या उसका आकलन और विश्लेषण किया जो आज दुनियाभर के पुस्तकालयों और अजायबघरों में सुरक्षित हैं और जिनकी डिजिटल काॅपी इन्टरनेट पर उपलब्ध है। क्या हम उन्हें भी मिटा सकते हैं? क्या हम औरंगजेब को विस्मृति के गर्भ में डाल सकते हैं?
हर युग में इतिहासकार युगबोध के आधार पर इतिहास के नये सवालों से जूझता है। बीसवीं सदी के आरंभ से लेकर आज तक पेशेवर इतिहासकारों ने हजारों पुस्तकें लिखी हैं। वे गलत इतिहास नहीं हैं और हम उन्हें खारिज नहीं कर सकते। वे इतिहास के अधूरे पन्ने हैं, अधूरी व्याख्यायें हैं। कोई भी इतिहासकार इतिहास की सम्पूर्ण, सम्प्रभु तथा सर्वमान्य व्याख्या नहीं कर सकता। शिबली नोमानी, यदुनाथ सरकार या Audrey Truschke ने औरंगजेब पर जो पुस्तके लिखी है या इरफान हबीब, सतीश चन्द्र आदि विद्वानों ने औरंगजेब के शासनकाल की राजनीति, अर्थतंत्र और समाज पर जो लिखा है, वे उसके युग, जीवन, कर्म, विचार या प्रभाव से सम्बन्धित सभी प्रश्नों का समुचित और समग्र उत्तर नहीं देते।
आज से पचास साल बाद कुछ नयी शोध सामग्रियां, नये पुरातात्विक साक्ष्य प्रकाश में आयेंगे, कुछ नये मुद्दे खडे होंगे और इतिहासकार नये ढंग से औरंगजेब का विश्लेषण करेंगे। हम इस बात पर ध्यान देने की जरूरत है कि अतीत कभी भी स्वतः और सहज भाव से इतिहास में परिणत नही होता। एएनयू की टेरेसा मौरिस सुजुकी और कुछ अन्य इतिहासकारों ने इस बात पर जोर दिया है कि अतीत के साक्ष्य जिनमें प्राचीन भाषाओं में लिखे शिलालेख, इतिहास-पुस्तक, पुरातात्विक उत्खनन में पायी गयी सामग्रियां और कलाकृतियां शामिल हैं, को समझने वाला और इतिहास-शोध की प्रविधि मे प्रशिक्षित व्यक्ति के शोधकार्य ही अतीत और वर्तमान के बीच सफल रूप से मध्यस्थता की भूमिका निभाते हैं और अतीत के कुछ पक्ष को हमारे सामने मूर्तिमान करते हैं, हमारा उससे साक्षात्कार कराते हैं। आज देश में मुगलकालीन इतिहास के इर्द-गिर्द भीषण समस्या इसलिये खडी हो गयी है क्योंकि मुस्लिम शासनकाल के अतीत और हिन्दुत्ववादी वर्तमान के बीच की मध्यस्थता हिन्दुत्ववादी संगठनों से जुडे संत समाज या भक्तगण कर रहे हैं और पेशेवर इतिहासकारों को पब्लिक डिस्कोर्स में हासिये पर फेका जा रहा है। ऐतिहासिक तथ्य के निर्णय मे जिसकी लाठी, उसका कब्जा, जिसकी सत्ता टीवी चैनल, फिल्म और अखबारों के माध्यम से पब्लिक डिस्कोर्स पर उसका कन्ट्रोल।
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