— अम्बेदकर कुमार साहु —
फ्रांसीसी समाजशास्त्री और दार्शनिक जीन बॉडरिलार्ड (1929) ने मीडिया, समकालीन संस्कृति और तकनीकी संचार की व्याख्या ‘हाइपररियलिटी’ के संदर्भ में किया है। यानि, आधुनिकता के दौर में वास्तविकता का अभाव हैं। इस अभाव की स्थिति में समकालीन फिल्मी दुनिया ‘लोगों का जीवन’ अर्थात दर्शकों के दैनिक संघर्षों में उलझा हुआ है। जीन बॉडरिलार्ड के शब्दों में टी.वी. चैनल और फिल्मों में जो चीज़ें दिखाई जाती है उसकी वास्तविकता से कोई संबंध नहीं होता हैं। इस प्रकार, आधुनिक समय में, फोटोग्राफी और ग्रामोफोन जैसी अन्य पुनरुत्पादक तकनीकों की तरह, फिल्मों ने भी अपने दर्शकों को मृतकों की एक जीवित छवि को संरक्षित करने की संभावना का सुझाव दिया है जो जीवन और मृत्यु की अवधारणाओं के इतिहास में एक घटना के रूप में प्रकट हुई हैं। हालांकि लोगों की व्यक्तिगत ‘चेतना’ से पता चलता है कि दुनियाभर में अधिकांश फिल्में सामाजिक वास्तविकता को प्रदर्शित करता हैं। आखिर हाइपररियलिटी जैसी फिल्में निजी जिंदगी और व्यवहार को कैसे प्रभावित कर रही हैं तथा लोग किस तरह फिल्मों की काल्पनिक दुनिया से आत्मसात करते हैं। प्रस्तुत आलेख ‘सय्यारा’ (Saiyaara) फिल्म के माध्यम से भारतीय नागरिक संबंधों का मूल्यांकन करता है।
वस्तुत: साहित्य, लोककथा, शास्त्रीय नाटक और फिल्म समाज का दर्पण होता है जिसके माध्यम से व्यक्ति स्वयं को, अपनी सामाजिक भूमिका और अपने समूह के मूल्यों को समझता है। यह एक ऐसा माध्यम भी है जिसके द्वारा व्यक्ति घटनाओं के उस ब्रह्मांड में खुद को उन्मुख करता है जो बेतरतीब और अव्यवस्थित रूप से घटित होती प्रतीत होती है। फिल्मों के माध्यम से देश और राष्ट्र के बीच एक ‘नागरिक समाज’ भी निर्मित होते हैं। हालांकि कई फिल्में हमारी भविष्य उन्मुख चिंता को भी प्रकट करती हैं। इस संदर्भ में भारतीय फिल्म ‘सय्यारा’ भी भविष्यउन्मुख सामाजिक संबंधों की ओर प्रश्न चिह्न लगाती हैं तथा इस संशय को मज़बूत बनाती हैं कि हमारी परंपरात सामाजिक और व्यक्तिक संबंध कमज़ोर होती जा रही हैं। यद्यपि मोहित सूरी द्वारा निर्देशित अहान पांडे और अनीत पड्डा की ‘सय्यारा’ फिल्म (2025) तथाकथित युवा प्रेमियों को भावुक बनाती हैं। यह फिल्म दिल टूटने, मरहम लगाने और आशा की कहानी पेश करती है। सय्यारा फिल्म की शुरुआत वाणी के अपने मंगेतर द्वारा छोड़े जाने और अंततः संघर्षरत संगीतकार कृष से होने वाले रास्ते से होती है जिसमें पारस्परिक रिश्ते, साझा दर्द और सपना धीरे- धीरे पनपता है।
अधिकांश अध्ययनों से पता चलता हैं कि फिल्म और मानव व्यवहार के बीच घनिष्ठ संबंध है। किंतु प्रारंभिक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि इन संबंधों को किस प्रकार समझा जाए। इस आलोक में परिवार और विवाह जैसी संस्था महत्वपूर्ण हो जाती हैं। परिवार इसलिए, क्योंकि व्यक्ति के संबंधों की शुरुआत घर से होती है जिसे समाजशास्त्रीय भाषा में समाजीकरण की प्रक्रिया कहा जाता है। यद्यपि मानवशास्त्री जी. पी. मर्डोक ने दुनिया के 250 समाजों के अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया है कि परिवार एक सार्वभौमिक प्राथमिक संस्था हैं। सदियों से परिवार का अर्थ यौन सम्बन्धों पर आधारित एक ऐसे समूह से रहा हैं जहां बच्चों का जन्म और लालन-पालन होता है। भारतीय संदर्भ में परिवार का मतलब संयुक्त परिवार से हैं जहां एक ही छत के नीचे तीन पीढ़ी तक के लोग एक साथ रहते हैं। हालांकि भारतीय समाज में संयुक्त परिवार की परंपरागत शैली बदल रही हैं तथा दिन-
प्रतिदिन के व्यवहारिक संबंधों में संरचनात्मक बदलाव आया हैं जिसमें एकल परिवार की संख्या महत्वपूर्ण हो गई हैं। इसके विपरीत अमरीका जैसे देश में एक विमर्श जारी हैं कि आधुनिकता के दौर में परिवार जैसी संस्था प्रासंगिक नहीं रहा तथा लोग अब बिना परिवार के भी सुखद जीवन व्यतीत कर लेते हैं। भारतीय संदर्भ में विवाह एक सामाजिक और धार्मिक प्रथा रही है। यद्यपि
हिन्दू विवाह का अर्थ जन्म-जन्मांतर का संबंध और मुस्लिम विवाह को एक समझौता माना जाता हैं। लेकिन आधुनिकता के साथ विवाह संबंध प्रेम-संबंधों में तब्दील हो चुकी हैं। वर्तमान समय में बिन ब्याही औरत मां बन रही है। स्थिति यह है कि आज अमेरिका में ही नहीं अपितु दुनियाभर में परिवार जैसी प्राथमिक संस्था संकट के दौर से गुजर रहा हैं। विवाह-विच्छेद की घटनाएं बढ़ रही है, विवाह से पहले यौन सम्बन्ध सामान्य हो गए हैं। इस प्रकरण में भारतीय परिवार भी शामिल हैं जिसे सय्यारा फिल्म के माध्यम से देखा जा सकता हैं। गौरतलब है कि सय्यारा फिल्म सिर्फ प्रेम-संबंधों को उजागर किया है तथा वर्तमान समय में प्रेम के साथ परिवार की संबंधों को पृथक करता हैं। यह एक ऐसी स्थिति है जिसे देखकर दर्शक प्रेम की ऐतिहासिक गली में पहुंच जाता हैं जहां परिवार नाम की कोई संस्था उपलब्ध नहीं हैं। सय्यारा फिल्म ने कई युवा दर्शकों की आंखे भर दी। कई दम्पति इस कश्मकश के साथ रोने लगे कि शायद हमारा रिश्ता भी सय्यारा की तरह सीमित न हो जाए। यह परिदृश्य परिवार और विवाह जैसी संस्था को नजरअंदाज करती है जबकि प्रेम-संबंध को उदारवादी दृष्टिकोण से मज़बूत बनाती है।
निष्कर्ष
दुनिया में युवाओं की अभूतपूर्व संख्या राजनीतिक और सांस्कृतिक विकास को प्रभावित करने वाले महत्वपूर्ण कारकों में से एक माना जा सकता है। अक्सर पाया गया हैं कि व्यक्ति कैरियर सहित जीवन के प्रमुख लक्ष्यों का निर्णायक निर्धारण युवा अवस्था में ही किया हैं। इस स्थिति में सय्यारा फिल्म एक युवा प्रेमी जैसे नागरिक समाज की कल्पना करता हैं जो कैरियर और परिवार से विलग प्रेम- संबंधों पर बल देती हैं। समाजशास्त्री आर. के. मर्टन (1910) के विचार में सय्यारा फिल्म युवा वर्ग को ‘एनोमी’ का शिकार बनाती हैं जिसके प्रभाव से वे निर्धारित लक्ष्य और संसाधन के चुनाव में फंस जाते हैं। मेरे स्वयं के एक अध्ययन में पाया गया कि दिल्ली स्थित करोल बाग में अधिकतर यूपीएससी प्रतियोगी छात्र प्रेम-संबंध के कारण इम्तिहान में असफलता हासिल की हैं। इसके अतिरिक्त सय्यारा फिल्म जीन बॉडरिलार्ड के ‘हाइपररियलिटी’ के सिद्धांत को भी चुनौती देती हैं जहां युवा समूह प्रेम-संबंध के कारण हाइपररियलिटी को वास्तविक तथ्य मान लेते हैं।
Discover more from समता मार्ग
Subscribe to get the latest posts sent to your email.

















