जयप्रकाश गांधीजी के बाद वे देश में सबसे बड़े सत्ता-विरक्त जन नेता थे – लोकशक्ति के अनन्य उपासक। लोकतंत्र को मूल्य और व्यवस्था के रूप में वास्तविक बनाने, उसे मानव मुक्ति का सुलभ साधन बनाने के लिए उन्होंने अपना जीवन लगा दिया। लोकतंत्र को लेकर जितनी भी संकल्पनाएं हो सकती हैं, उन सब पर उन्होंने विचार किया है। जयप्रकाश लोकतंत्र के बारे में जितना जानते हैं और समझते हैं, जिस गहनता और व्यापकता से उन्होंने इस पर विचार किया है, वह अन्यतम और अतुलनीय है।
वे कहते हैं ‘लोकतंत्र एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें अधिकतम लोग अपना अधिकतम शासन कर सकें’। इस छोटी-सी, किंतु सारगर्भित परिभाषा में लोकतंत्र के मूल्य, उद्देश्य और लक्ष्य एक ही साथ स्पष्ट हो जाते हैं। इसी लक्ष्य के लिए वे वैचारिक रूप से, चिंतन के स्तर पर तथा कर्म के स्तर पर भी जीवन के अंतिम क्षणों तक सक्रिय और समर्पित रहे। भारत के अतीत, परंपराओं तथा वर्तमान की वास्तविकताओं के अनुरूप लोकतांत्रिक शासन के वैकल्पिक मॉडल की खोज में लगे रहे।
इस विचार यात्रा में वास्तव में जीवन सत्य की खोज है जो परिवर्तन की आकांक्षाओं, आग्रहों और उपक्रमों में प्रकट होती है, और राजनीति जिसका माध्यम बनती है। यही कारण है कि जेपी के यहां राजनीति सत्ता प्राप्त करने का जरिया और युक्ति भर नहीं रहती, उसका एक बहुत व्यापक, लोकसंग्रही स्वरुप सामने आता है। जेपी इस अर्थ में क्रांति-शोधक के रूप में वास्तव में सत्य-शोधक हैं। वे जीवन भर सत्य कहने और उसी पर टिके रहने की कीमत चुकाते हैं विदेशी शासन में भी, और स्वदेशी शासन में भी।
जयप्रकाश जी, उनकी वैचारिकी और उनके राजनीतिक कर्म-अभिक्रम पर मेरे विचार इस किताब में समाविष्ट हैं। आज आपातकाल की आधी सदी पर इसके प्रकाशन की सूचना बहुत सुखद है, संतोष देनेवाली है। क्योंकि यह जेपी को याद करने का समय है!
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