— राजेंद्र रंजन चतुर्वेदी —
विक्रम-पंचांग के अनुसार तो उनकी जन्मतिथि श्रावण शु. एकादशी, संवत १९६४ है, किन्तु तारीख के हिसाब से आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्मदिन आज है। आचार्य द्विवेदीजी भारतीय संस्कृति के मर्मज्ञ-पंडित ही नहीं थे, वे भारतीय संस्कृति के मनोमय परिवेश में जी रहे थे। सच बात तो यह है कि वे आर्ष परंपरा का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। यही कारण है कि वे अपने युग में हिन्दी ही नहीं, भारतीय साहित्य-संस्कृति संबंधी जगत में आभा बिखेरते रहे। और आज शताब्दी से भी अधिक समय हो गया, वे प्रकाश दे रहे हैं! उनकी स्मृति को श्रद्धामय प्रणाम!
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को कोई समझे कि वे विशाल संस्कृत-साहित्य के मर्मज्ञ पंडित थे, तो यह बात सही तो है, किन्तु अधूरी है। वास्तव में तो उन्होंने समकालीन पश्चिम के विचारकों का भी मनन किया, उसका महत्व समझा और आंका भी। अठारहवीं शताब्दी में ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में जो क्रान्ति हुई, उसके कारण-तत्त्व पर भी उन्होंने विचार किया। वे कहते हैं कि —
“अठारहवीं शताब्दी में यूरोपियन लोग सुदूर देशों और द्वीपों में पहुँचने लगे, वहाँ के लोगों के आचार-विचार, रीति-नीति को जानने-समझने का प्रयास करने लगे, इससे नये सिरे से सोचने की दृष्टि मिली।”
आगे चलकर यह उपलब्धि अन्तर्भेदिनी सिद्ध हुई। मनुष्य को समझने के प्रयासों ने नया रूप ग्रहण किया। भाषा, धर्म, आचार, नैतिकता, यौन संबंध, शिल्प — सबको नई दृष्टि से देखा जाने लगा। इससे लोकवार्ताशास्त्र का जन्म हुआ और मानवविज्ञान की नयी शास्त्रीय विवेचना का विकास हुआ।
(लालित्यतत्त्व, पृ. ११–१२)
ज्ञान-विज्ञान किसी सीमा में बंधे नहीं हैं, बंध ही नहीं सकते। मनुष्य-मात्र ज्ञान-विज्ञान के केन्द्र में है। मनुष्य के अन्तर्जगत को अभिव्यक्त करने का एक महत्वपूर्ण माध्यम है — मिथक। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने मिथक का विवेचन करते हुए कहा कि —
“मिथक प्रस्तुत को अप्रस्तुत विधान के द्वारा उपभोग्य बनाने की प्रक्रिया का चालक है। मिथक वस्तुतः भाषा का पूरक है।”
“कलाकार के हृदय में जो मिथकीय सिसृक्षा उदित होती है, वह अवचेतन चित्त की वेगवती शक्ति है। आगे चलकर यही शक्ति पुराणकथा या माइथोलॉजी के रूप में विकसित होती है। उसे आर्कटाइप कहिए, समष्टि-चेतना कहिए या सर्वात्मिका संवित। संसार भर के मनुष्यों में आरंभिक मिथक सामान्य रूप से कार्य करते हैं। काव्य, नाटक, उपन्यास आदि मिथक तत्व की सहायता से कुछ महत्वपूर्ण उपलब्धियों को पा लेते हैं। मिथ: पूरक:: इसलिए मिथक। हर्डर मानते थे कि भाषा की उत्पत्ति मिथकीय प्रक्रिया से हुई है। मनुष्य ने मिथक तत्व को भुलाया नहीं है — कविता उसका प्रमाण है, चित्र और मूर्तिशिल्प उसके साक्षी हैं।”
काल की व्याख्या करते हुए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा कि —
“काल वस्तुतः निरन्तर परिवर्तमान स्थितियों की संयोजक एक प्रतीति-मात्र है। अभी एक क्षण पूर्व सचमुच कोई अतीतकाल था या नहीं, या एक क्षण बाद कोई भविष्यत्काल आने वाला है कि नहीं — इसके लिये कोई प्रमाण हमारे पास नहीं है। केवल हमारा मन कहता है कि वह था भी अवश्य और आयेगा भी अवश्य। यदि हमें ऐसी जगह बैठा दिया जाय जहाँ स्थितिमात्र की उपलब्धि का कोई साधन न हो, तो काल की प्रतीति नहीं होगी। वस्तुतः काल गति मात्र है।”
(लालित्यतत्त्व, पृ. ९४)
‘आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के पत्र’ नामक पुस्तक इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र ने १९९४ में प्रकाशित की थी। इसमें उनके द्वारा पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी को लिखे गये १४० पत्र हैं, जो न केवल उनके जीवन-क्रम पर प्रकाश डालते हैं, अपितु वे विगत शताब्दी के साहित्य-जगत की अन्तर्कथा भी हैं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी को अपना मार्गदर्शक, गुरु और मित्र मानते थे और उन पर अगाध विश्वास करते थे।
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