बराबरी के लिए विशेष अवसर – गुंजेश्वरी प्रसाद

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Ram Manohar Lohiya

कार्ल मार्क्स का सर्वहारा इतिहास का वह वर्ग है, जो प्रभुवर्ग द्वारा शोषित, पीड़ित, और अनाहत है। महात्मा गांधी का हरिजन भारतीय समाज का वह वर्ग है, जो सवर्णों द्वारा तिरस्कृत और पददलित है। मगर समाजवादी चिंतक डॉ. राममनोहर लोहिया की पिछड़ी जातियां भारतीय इतिहास की उन रुग्ण संतानों में से हैं, जो सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और शैक्षणिक बराबरी से वंचित हैं। वे इस बराबरी के लिए छटपटा रही हैं।

कार्ल मार्क्स ने इतिहास को जिस वर्गवादी दृष्टिकोण से देखा और जिस सर्वहारा वर्ग की उसने परिकल्पना की यह सामाजिक दृष्टि से तिरस्कृत नहीं, अपितु राजनैतिक और आर्थिक दृष्टि से शोषित और पीड़ित है तथा अपने राजनैतिक एवं आर्थिक अधिकारों की प्राप्ति के लिए संघर्षशील है। लेकिन डॉक्टर लोहिया की दृष्टि में भारत की पिछड़ी जातियां भारतीय इतिहास के उन तिरस्कृत वर्गों में है, जो सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक अधिकारों से रहित होकर वर्णों के रूप में जम चुकी है। महात्मा गांधी का हरिजन, जो सवर्णों द्वारा शोषित, पीडित और पददलित है, सिर्फ सामाजिक सम्मान के लिए ही आवाज उठाता है। इस प्रकार डॉ. राममनोहर लोहिया की पिछड़ी जातियां महात्मा गांधी के हरिजन और कार्ल मार्क्स के सर्वहारा से भिन्न और अधिक रुग्ण है। इसी रुग्ण वर्ग को, जो भारतीय समाज में वर्ण के रूप में हजारों वर्षों से स्थिर है, डॉ. लोहिया सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक परिवर्तनों के उस हिरावल दस्ते के रूप में स्वीकार कर आगे लाये, जहां दंद्ववादी विचारक कार्ल मार्क्स का वर्ग संघर्ष भी असहाय हो जाता है।

डॉ. लोहिया के पूर्व समाजवादी आंदोलन में मात्र वर्ग की मार्क्सवादी धारा का प्रभाव था, क्योंकि समाजवादी नेताओं को किसी न किसी रूप में द्वंद्ववाद से ही प्रेरणा मिलती थी। मार्क्स के द्वंद्ववाद से प्रेरित भारत का समाजवादी आंदोलन भारत के उन असंतुष्ट सवर्णों का आंदोलन था, जो आर्थिक दृष्टि से पिछड़े रह गये थे। भारत के कम्युनिस्टों को इस परिप्रेक्ष्य में अच्छी तरह से देखा जा सकता है और १९५५ के पूर्व तक भारत के लोकतांत्रिक समाजवादी दल के आंदोलनों का भी अध्ययन किया जा सकता है। १९५५ के पूर्व तक समाजवादियों का आंदोलन भारत के उन शोषितों, पीड़ितों और तिरस्कृतों को अपनी ओर आकृष्ट करने में विफल रहा, जिनको महात्मा गांधी ने हरिजन कहा था । समाजवादी आंदोलन का नेतृत्व संभालने के बाद डॉ. लोहिया ने भारत के समाजवादी आंदोलन की उस आधारशिला को बदल दिया, जो कार्ल मार्क्स के विचारों से प्रभावित थी। समाजवादी आंदोलन को तीव्र गति देने के लिए उन्होंने भारत के उस वर्ग की ओर ध्यान दिया जो वर्गों के रूप में पिछड़ा हुआ था और सामाजिक, राजनैतिक और सामाजिक अधिकारों से वंचित था। भारत की आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक व्यवस्थाओं पर हजारों वर्षों से जिन मुट्ठी भर द्विजों का वर्चस्व था, उस वर्चस्व को समाप्त करने के उद्देश्य से लोहिया जी ने पिछड़ी जातियों के लिए विशेष अवसर के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। ‘विशेष अवसर’ का यह सिद्धांत यूरोप से उधार लिये गये ‘अवसर की समानता’ के सिद्धांत से बिल्कुल अलग और विपरीत था। कोई आश्चर्य नही कि परंपरागत समाजवादियों ने इस पर अक्सर प्रहार किया। जबाब में डॉ. लोहिया ने एक ही बात कही “जिसे हजारों साल से दबा कर रखा गया है उसे भी वंश परंपरा से सुसंस्कृत, संपन्न, सुशिक्षित के बराबर अवसर दोगे, तो दबा हुआ समता के स्तर पर कैसे आयेगा ? सचमुच बराबर बनाने के लिए पिछड़ों को सहारा देकर ऊपर उठाना पड़ेगा।” उन्होंने ऊंची जातियों के समाजवादियों को खाद-पानी बनने को कहा, ताकि “दबे-कुचलों में से नया नेतृत्व खिले ।”

उन्होंने कहा की इस देश में वर्ण व्यवस्था के द्वारा हजारों वर्षों से जो राष्ट्रीय रोग पल रहा है उस रोग से पिछड़े वर्गों में बराबरी की भूख मर गयी है और इनमें राजनीति के प्रति गहरी उदासीनता व्याप्त है। पिछड़े वर्गों की राजनैतिक उदासीनता से ही भारत की हर विदेशी आक्रमण के समय हार हुई है। भारत के इस राष्ट्रीय रोग को समूल नष्ट करने के लिए और भारत को शक्तिशाली बनाने के लिए समाजवादी आंदोलन की यह आवश्यक शर्त्त है कि वर्ण व्यवस्था पर आधारित भारत की सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक व्यवस्थाएं समाप्त हों। इसलिए राजनीति, पलटन, व्यापार और ऊंची नौकरियों में पिछड़ी जातियों के लोगों के लिए विशेष अवसर देकर उनकी मरी हुई बराबरी की भूख जगायी जाये । यों तो आबादी की दृष्टि से सभी जातियों की महिलाओं को मिला कर पिछड़ों की संख्या ८५-८६ प्रतिशत के आसपास है। मगर इन्हें
राजनीति, पलटन व्यापार और ऊंची नौकरियों में यदि उनको ७०-७५ प्रतिशत जगहें न मिलें, तो कम से कम आधे से अधिक, ६० प्रतिशत जगहें तो जरूर मिलें ।

अपने विशेष अवसर के सिद्धांत में डॉ. लोहिया ने सभी जातियों की औरतों को क्यों शामिल किया ? संवेदनशील लोहिया की पैनी दृष्टि में भारत की सभी जातियों की औरतें पिछड़ी जातियों से भी अधिक पीड़ित और पदद‌लित हैं और उनको हर वर्ण के पुरुषों ने ऐसी नरकीय स्थिति में बंद करके रखा है, जो राष्ट्र और मानवता के लिए अभिशाप है। डॉ. लोहिया ने कहा कि समाजवादी आंदोलन, जो हर प्रकार की समता की वकालत करता है, तब तक अधूरा और लंगड़ा रहेगा जब तक समाज के दवे-पिछड़े लोगों और औरतों में बराबरी की भूख नहीं जागती ।

विशेष अवसर का सिद्धांत समता का ही नहीं, अब तो राष्ट्रीय एकता का भी औजार है। जैसे-जैसे पिछड़ी जातियों में राजनैतिक चेतना बढ़ रही है, वे, अपनी दारुण दशा के प्रति भी सजग हो रही है। तमिलनाडु के ई. वी. रामस्वामी नायकर जैसे नेताओं के प्रोत्साहन पर कहीं-कहीं तो पृथकतावाद की भी आवाज उठने लगी है। इसी तरह से राजनीतिक रूप से सक्रिय नागा और मिजो जनजातियां भी पृथकाव की भाषा में न सिर्फ सोच रही है, बल्कि बरसों से इस दिशा में सक्रिय भी हैं। इस आग को फैलने से रोकने के दो ही उपाय है- पिछड़ी जातियों के लिए सब कहीं विशेष अवसर और डॉ. लोहिया द्वारा प्रतिपादित चौखंभा राज के सिद्धांतों पर आधारित विकेंद्रित राज्यव्यवस्था ।


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