वक़्त की धूप
वक़्त
धीरे-धीरे सरक गया
जैसे दोपहर की धूप
छाँव में बदलती चली गई।
बचपन
कंचों और कहानियों में बीता,
जवानी
भागती रही, स्कूल में क्रिकेट और हॉकी के पीछे,
कॉलेज और विश्वविद्यालय में स्टूडेंट और टीचर एक्टिविज्म और सिस्टम बदलने की दौड़ में,
और फ़िर विवाहित आनंद
और पारिवारिक जिम्मेदारियों में ।
अब आई है
एक शांत सी उम्र—
जहाँ आवाज़ें धीमी हैं
पर भीतर का संगीत अब भी बजता है।
आँखों के कोने
थोड़े नम हैं,
पर उनमें अब भी
कुछ नये रंगों की तलाश बाकी है।⁰
हाथ काँपते हैं,
पर कलम नहीं छूटी।
मन थकता नहीं,
बस थोड़ा ठहरकर सोचता है।
मैं सीनियर हूँ
पर बुढ़ा नहीं हूँ।
रचना अब भी जन्म लेती है
ख्वाहिशें अब भी हैं
हर सुबह,
हर शाम
मेरे भीतर।
मैं उम्र नहीं,
एक सतत यात्रा हूँ।
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