समय से संवाद: जनतांत्रिक सत्य की नए सिरे से तलाश 

1

Poonam

— पूनम —

किसी व्यक्ति के संवेदनशील मनुष्य बनने की यात्रा में साहित्य पूरे समाज का हाथ थमता है और वही उसे विभेद की तंग गलियों और असमानता की खाइयों को पार करवाता है । साहित्यिक रचनाएं हमारी अंतर्मन और बाहरी जटिलताओं की न केवल साक्षी होती है अपितु उन्हें सुलझाने में सक्रिय भागीदारी भी दर्ज करवाती है । यही मोर्चा जब संपूर्ण राजनीतिक सामाजिक व्यवस्था और रूढ़िवादी परंपरा के खिलाफ संभाला जाता है तो वह जनतंत्र को एक जीवन शैली के रूप में स्थापित करने का पुरजोर प्रयास करता है। हर युग का साहित्यकार तमाम बंदिशों और जोखिमों की परवाह न कर रूढ़ियों और संकीर्णताओं  की दीवार को ढहाने का एक जरिया हमें बताता है। इसी कड़ी में ‘समय से संवाद’पुस्तक में कवि अजमेर सिंह काजल ने जनतंत्र की पूरी परंपरा में मौजूद खामियों से अवगत करवाया है। वे उत्तर आधुनिक समाज में जनतंत्र की बुनियाद संभालने वाले विषय आम जनता के हालात,विमर्शों की स्थिति और शिक्षा व्यवस्था आदि पर सवाल खड़े करते हुए समतावादी समाज  के जीवन मूल्यों की नए सिरे से छानबीन करते है । वे अपनी कविताओं के जरिए सत्ता में जन भागीदारी ,पारदर्शिता और जनोन्मुख  रवैया सुनिश्चित करने की आवाज को बुलंद करते हैं।

संविधान की व्यावहारिक कार्य प्रणाली की जांच पड़ताल करने का प्रयास वे अपनी कविताओं के जरिए करते है । जहां संवैधानिक संस्थाओं के विकृत होते स्वरूप की यथार्थ स्थिति हमारे सामने लाते है और वे इस जर्जर हो चुकी व्यवस्था की लोकतांत्रिक तरीके, पारदर्शी प्रक्रिया और समावेशिता से मरम्मत की मांग को उठते हुए अपनी कविता ‘अंधेरे के सौदागर’ में लिखते है कि 

“जनतंत्र में

जनता की आवाज

होती हैं सबसे ऊपर 

इसे अनदेखा 

तो किया जा सकता है

पर बच नहीं सकते 

इसकी मार से”
आम आदमी के जीवन में लोकतंत्र की विडंबना का पर्दाफाश करते हुए लिखते हैं कि
“सत्ता का सच क्रूर है बाबू
बहुत क्रूर
आंखों में इसके केवल कुर्सी बसती है”

भ्रष्ट राजनैतिक स्थिति में व्यक्ति की हैसियत मात्र एक मतदाता की रह जाती है ।  स्वतंत्रता के बाद से ही  जनता की मांगे मूलभूत सुविधाओं रोटी,कपड़ा और मकान के इर्द गिर्द ही घूमती है और सत्ता आंख मूंदे बस शक्ति बटोरने की जद्दोजहद में लगी रहती है । कवि रघुवीर सहाय भी अपनी कविता ‘आपकी हंसी’ में इसी स्थिति पर लिखते हैं

“निर्धन जनता का शोषण है
कह कर आप हंसे
लोकतंत्र का अंतिम क्षण है
कह कर आप हंसे
चारों ओर है बड़ी लाचारी
कहकर आप हंसे”
समानता और स्वतंत्रता के प्रबल समर्थन के रूप में कवि अजमेर सिंह काजल हमारे सामने बाबा साहेब अंबेडकर के ‘शिक्षित बनो, संगठित हो,संघर्ष करो’ का आदर्श और संविधान का प्रारूप हमारे सामने रखते हुए अपनी कविता ‘चाहत’ में लिखते हैं कि
“जात मजहबी बंटवारे को

 उखाड़ फेंक दे साथ सभी
संकट खड़ा हो द्वार देश
संविधान के ज़रिए 

देश बचाए साथ सभी”।
समाज की आधी आबादी स्त्रियों के प्रति बढ़ते  अत्याचार,स्त्री अस्तित्व के वस्तुकरण, पितृसत्ता के पिंजरे में उनके टूटे पंखों  की दर्दनाक स्थिति को उन्होंने गहरी संवेदना के साथ ‘समय से संवाद’  कविता में अभिव्यक्ति दी है। वे लिखते है
“समय से संवाद
समझता है इतिहास
औरतें क्यों हो रही है बेइज्जत ?
हाथरस से मणिपुर तक
फैला है रोग लिंगवाद का”।

फातिमा बीबी और  सावित्रीबाई फुले ने जिस शिक्षा,चेतनाशीलता और स्वजागरण की लौ को  जलाया उसकी ज्योति हमें ‘नयी सुबह’और ‘लोकतंत्र’ जैसी कविताओं में भी दिखाई पड़ती है ।

स्वस्थ लोकतंत्र में न्याय,प्रशासन ,चिकित्सा व शिक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ करने की जिम्मेदारी जनता द्वारा चुनी सरकार की होती है परंतु क्षेत्र,जाति  और संप्रदाय आदि के नाम पर गुमराह करके सत्ता हथियाना ही यदि सत्ता के संचालन का तरीका बन जाए तो कविता को प्रतिरोध का स्वर उठाना ही पड़ता है। पसीना बहाने पर भी रोटी को तरसते किसान और संसाधनों के लुटेरे लोगों की तलाश न होने के विषमतापूर्ण स्थिति का हिसाब मांगते है ।जैसे कवि दुष्यंत अपनी कविता ‘हो गई है पीर पर्वत’में लिखते हैं कि
‘सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं

 मेरी कोशिश है कि यह सूरत बदलनी चाहिए’

इसी  प्रतिरोध की इसी कड़ी में ‘समय से संवाद’ काव्य संग्रह में अपने समकालीन समाज की विसंगतियों को सूक्ष्मतापूर्वक वर्णन हुआ है और सत्ता के झूठे दावों के एक एक रेशे को उधेड़ा है चाहे वह न्याय की उम्मीद करते रोहित वेमुला और नजीब का दमन हो, दिल्ली बॉर्डर पर देश के अन्नदाता किसानों की उपेक्षणीय स्थिति हो,महामारी के समय  चिकित्सा व्यवस्था की दुर्दशा हो, ओबीसी, दलित और ट्राइबल नागरिकों के गरिमापूर्ण जीवन के हक की बात हो । ये कविताएं तथाकथित लोकतांत्रिक सरकार को कटघरे में खड़ा कर जवाब तलब करती है क्योंकि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मीडिया तो पहले ही जाति संप्रदाय के चश्मे लगाकर सत्ता के पाले में खड़ा दिखाई देता है । कवि अजमेर सिंह काजल अपनी कविता ‘मीडिया’ में पत्रकारिता के गिरते स्तर पर व्यंग्य करते हैं कि

‘विटामिन्स की खुराक लेकर
मीडिया हर रोज
खड़ा करता है एक नया वितंडा
यह काम
नाच दिखाने जैसा है
फेंके गए सिक्कों पर’ ।
यही मीडिया जर्जर होकर ढहते  स्कूलों, कोचिंग संस्थानों की अंधेरी कोठरियों में दम तोड़ते युवाओं, चुनाव जीतने के अवैध तरीकों और जाति धर्म के आधार पर दमित हो रही व्यक्ति अस्मिताओं की ओर आंख उठाकर भी नहीं देखता। 

संवैधानिक मूल्य और सामाजिक समानता हेतु  सुदामा पाण्डेय धूमिल, केदारनाथ सिंह और मुक्तिबोध जैसे कवियों ने निरंतर सत्ता को आईना दिखाया। सुदामा पाण्डेय का प्रजातंत्र में कवि धूमिल लिखते है कि 

“न कोई प्रजा है 

न कोई तंत्र है 

यह आदमी के खिलाफ़

आदमी का खुला सा षड्यन्त्र है”। 

ठीक इसी क्रम में कवि अजमेर सिंह काजल स्वाभिमान की डगर, समता और शील की धुरी और संविधान की किताब हमें थमाते है ताकि हम भी कबीर की तरह चेतना की मुराड़ी लेकर झूठे वादों के भ्रमों और दंभी पवित्रता को सुलगा सके।

वे अपने आस पड़ोस के माहौल को देखने का एक नया नज़रिया हमें देते है। जैसे घरों की दुनिया को बौद्धिकता, सहयोग और श्रम की मज़बूत बुनियाद
देते है । घर के इतिहास व भूगोल को विश्वास और प्रेम की चारदीवारी से सजाते है। वे लिखते है कि 

“दुनिया बनी है घरों से

 घर बने हैं हाथों से

 हाथ बने हैं ऊर्जा से 

ऊर्जा बनी है विचार से 

विचार बदल देता है दुनिया 

बदल जाती है फिर घरों की दुनिया”।

 विकास के नाम पर जो पर्यावरण से समझौता कर हमने गांव से लेकर शहर के वातावरण में जो जहर घोला है। मशीनीकरण और उत्पादन की अंधी दौड़ में पारिस्थितिक संतुलन को जो अपूरणीय क्षति पहुंचाई है,उस स्थिति की विद्रूपताओं को भी उन्होंने अपनी कविता ‘ये कैसी रुत आई’ में वर्णित किया है 

“गांव के तालाब और जलते खेत-खलिहान 

नगरों के कारखाने और प्रदूषण के तूफान 

व्यवस्था ने विकास को चाल सिखाई।

यह कैसी रुत आई…”

 घरेलू परिवेश से लेकर देश की सर्वोच्च संस्थाओं की लोकतांत्रिक स्थिति के गहरी पड़ताल ही इनकी रचनाओं का मूल स्वर है, साथ ही वे जड़ हो चुकी स्थितियों में परिवर्तन की आहट भी महसूस करते है। आम जनता की पीड़ा को आम जनता के मुहावरों और सपाटबयानी के अलंकारों से सजाकर जनता को समर्पित किया गया काव्य संग्रह है।

इनकी कविताओं में वर्तमान सामाजिक राजनीतिक परिवेश के प्रति खीझ, बेचैनी व तिलमिलाहट तथा परिवर्तन की तीव्र चाहत दोनों मनोभाव आपस में मिश्रित रूप में व्यक्त हुए है। 

इनकी हर कविता अपनी भाषायी सरलता और संवेदनात्मक गहराई से युक्त है।वे भाषा शैली में जानबूझकर नाटकीयता और व्यंग्यात्मकता को स्थान देकर समाज के चरम यथार्थ को पूरी बेबाकी से अभिव्यक्त करते है। वे अपने काव्य में बिंब,प्रतीकों और उपमाओं को पैनेपन से प्रयोग कर सामाजिक विसंगति की कटुता का आभास पाठकों को कराते है। कविता सत्ता की आंख में लिखते है कि

“एक आँख होती है

सबसे ऊपर

बनती है जो लोकलाज से 

सत्ता फोड़कर इसे

लगा लेती है शीशे की आँख 

फूटी आँख को असली समझ

भ्रम में जीती है जनता”।

वे अपनी रचना में बौद्धिक विवेकशीलता,अधिकारों के प्रति जागरूकता और जनता की अन्याय के विरुद्ध उठी आवाज को लोकतंत्र के फूल के रूप में देखते हैं। जिससे ही स्वतंत्रता, समानता और बंधुता पर आधारित समाज की परिकल्पना साकार रूप लेगी। कवि लिखते हैं कि

“गैर बराबरी की रस्सियों से बुने 

समाज-जाल को तोड़ना 

आसान तो नहीं

पर तोड़ दिया जाता है।

मुक्ति संघर्ष से महान बनते हैं

मनुष्य!

समाज!

राष्ट्र!”

(पूनम, शोध छात्रा, महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय, रोहतक)


Discover more from समता मार्ग

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

1 COMMENT

Leave a Comment