भारत में चुनावी व्यवस्था का संक्षिप्त इतिहास – दीपक धोलकिया

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1946 से 1950

1. संविधान सभा में

संविधान सभा ने 9 दिसंबर 1946 से अपना कार्य आरंभ किया और 1948 में पहला मसौदा प्रस्तुत किया गया। इस मसौदे में देश में लोक सभा (House of People) का चुनाव कैसे होगा इसकी कोई व्यवस्था नहीं दर्शाई गई थी। उसके बाद 16 जून 1949 को अनुच्छेद 289 के साथ चुनाव आयोग की रचना का प्रावधान किया गया। यह व्यवस्था संविधान में होनी चाहिए या नहीं इस पर भी बहस हुई। आख़िर में इसे संविधान में रखने के प्रस्ताव को बहुमत मिला।

ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष डॉ. बी. आर. आंबेडकर ने अनुच्छेद 289 के अंतर्गत 289 (A) के बाद 289 (B) जोड़ने का संशोधन पेश किया जिसमें House of People और राज्यों की Legislative Assemblies का गठन 21 वर्ष की आयु के हर नागरिक के मत द्वारा करने का प्रस्ताव था।

(https://www.constitutionofindia.net/debates/16-jun-1949/#135949)

हालाँकि अनुच्छेद 149 में भी वयस्क मताधिकार को पहले ही मान्यता दे दी गई थी। यही अनुच्छेद 289 (B) अब भारतीय संविधान में अनुच्छेद 326 है।

संविधान सभा में लोकसभा के चुनाव के लिए कई सदस्यों ने आनुपातिक प्रतिनिधित्व का समर्थन किया। आनुपातिक प्रतिनिधित्व के लिए एक-सदस्यीय मतक्षेत्र नहीं हो सकता। यह बहु-सदस्यीय प्रतिनिधित्व में ही हो सकता है। इसका मतलब है कि एक क्षेत्र से, जो बहुत बड़ा हो, दो प्रतिनिधि चुने जाए। आनुपातिक प्रतिनिधित्व में भी ज़्यादातर सदस्य एकल संक्रमणीय मतदान के पक्षधर थे। पूर्ण बहुमत या सर्वाधिक मत यह भी चर्चा का विषय रहा। अंत में देश की जनता का शिक्षा का स्तर इत्यादि को देखते हुए, वर्तमान First Past the Post यानि सर्वाधिक मत (pluralist votes) की पद्धति का स्वीकार कर लिया गया।

26 जनवरी 1950 को संविधान कार्यान्वित हुआ उसके एक दिन पहले 25 जनवरी को चुनाव आयुक्त का गठन किया गया। शुरु से चुनाव आयोग सिर्फ एक व्यक्ति का था। 1993 में इसमें दो अन्य आयुक्त जोड़े गये। इस तरह पिछले 30 से अधिक वर्षों से 3-सदस्यीय चुनाव आयुक्त काम कर रहा है।

2. संविधान में

भारतीय संविधान के 15वें खंड में शामिल अनुच्छेद 324, 325, 326, 327, 328, 329 के द्वारा संसद और राज्य विधानसभाओं, राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनावों का प्रावधान किया गया है।

चुनाव आयोग, मुख्य चुनाव आयुक्त और अगर ज़रूरी हो तो अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की भी व्यवस्था की गई है। चुनाव आयोग की जरुरत के अनुसार क्षेत्रीय चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की भी व्यवस्था है। मतदाता सूची बनाने का कार्य चुनाव आयोग को सौंपा गया है।

a. इस खंड में अनुछेद 324 में 1966 में 19वें संवैधानिक संशोधन द्वारा कुछ शब्द हटा दिये गये।

b. उससे पहले, 1956 में 7वें संवैधानिक संशोधन द्वारा 324 (6) में से ‘राजप्रमुख’ शब्द हटा दिया गया था। देसी रजवाड़ों के भारत संघ में विलय के बाद भूतपूर्व शासकों को ‘राजप्रमुख’ नाम दिया गया था।

c. 1988 में 61वें संविधान संशोधन द्वारा अनुच्छेद 326 में सूचित मताधिकार की आयु 21 से घटा कर 18 की गई। संविधान ने वयस्क मताधिकार का सिद्धांत अपना कर हर नागरिक को जाति, धर्म. लिंग, सामाजिक दर्जा आदि के भेदभाव के बिना मतदाता सूची में शामिल करने का प्रावधान बनाया है।

d. 1975 में 39वें संशोधन के द्वारा अनुच्छेद 329 के साथ 329 (A) जोड़ा गया लेकिन 1978 में 44 वें संशोधन द्वारा 329 (A) को हटा दिया गया।

e. क्या परिवर्तन किये गये वह तत्समय की राजनीतिक सोच के अनुसार था, इसका विस्तृत विवरण देना यहाँ संभव नहीं है।

1951 से 1960

1. 1951 में लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम (Representation of People’s Act) बनाया गया। संविधान की मंशा को इस अधिनियम के माध्यम से आकार दिया जाता है। हर संवैधानिक संशोधन, जो संविधान के 15वें खंड के लिए प्रभावी थे, लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम पर भी लागू होते हैं।

2. 1956 में नामांकन संबंधी संशोधन

1. 1951 में लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम लागू हुआ तब नामांकन संबंधी प्रावधान यह था कि किसी विशेष मतक्षेत्र के उम्मीदवार के नाम का प्रस्ताव उसी क्षेत्र के एक मतदाता द्वारा रखा जाएगा और उसका कोई अन्य मतदाता समर्थन करेगा।

2. 1956 में लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम के 33 वें अनुच्छेद में सुधार किया गया और अनुमोदक की आवश्यकता को निरस्त कर दिया गया। (Representation of the People (Second Amendment) Act, 1956 (27 of 1956).

1961 से 1970

1. 1952 और 1957 के चुनावों में मतपत्रों पर उम्मीदवारों के नामों वाली सूची नहीं हुआ करती थी। सभी उम्मीदवारों के लिए अलग मतदान बॉक्स रखा जाता था। 1961 में केरल और ओडिशा के मध्यावधि चुनावों में पहली बार उम्मीदवारों की सूची के रूप में मतपत्र लागू किया गया। प्रत्येक उम्मीदवार के नाम के साथ चुनाव चिह्न भी दिया गया। मतदाता को अपनीपसंद के उम्मीदवार के नाम के सामने × लगाना होता था। व्यवहार में, गिनती के समय किसी भी उम्मीदवार के नाम के आगे x के सिवा भी किसी भी प्रकार का चिह्न होता तो मान लिया जाता कि मतदाता संबंधित उम्मीदवार को मत दे रहा है।

1971 से 1980

1. संयुक्त संसदीय समिति -1971

1971 में जगन्नाथ राव की अध्यक्षता में संसद के दोनों सदनों की एक संयुक्त संसदीय समिति का गठन किया गया। समिति ने 18 जनवरी, 1972 और 10 मार्च, 1972 को दो रिपोर्ट प्रस्तुत कीं। पहली रिपोर्ट में 1950 और 1951 के लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम में संशोधन की सिफारिशें थीं, जबकि दूसरी रिपोर्ट में मतदान की आयु, चुनाव प्रणाली आदि जैसे कुछ बुनियादी सवालों पर विचार किया गया था।

समिति द्वारा सुझाए गए जनप्रतिनिधित्व अधिनियमों में कुछ संशोधनों को 1973 में लोकसभा में प्रस्तावित एक विधेयक (1973 का लोकसभा विधेयक संख्या 100) में शामिल किया गया था। इस विधेयक में कुछ महत्वपूर्ण प्रावधान शामिल थे जैसे-

1. मतदाता बनने की योग्यता के लिए एक वर्ष के बजाय चार तारीखें (चार अवधियाँ) तय करनी (अभी सिर्फ 1 जनवरी को कितनी उम्र थी यह देखा जाता है)।

2. चुनाव की पूर्व संध्या पर चुनाव कर्मचारियों के मनमाने तबादलों पर रोक लगाना;

3. सरकार या किसी सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम के साथ अनुबंध करने वाले व्यक्तियों को चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य ठहराना;

4. चुनाव खर्च का हिसाब गणना नामांकन की तारीख के बजाय चुनाव के लिए अधिसूचना की तिथि से करना;

5. कुछ अपराधों के लिए बढ़ी हुई सज़ा आदि।

लेकिन, 1975 में लोकसभा भंग हो गई और यह विधेयक भी उसके साथ रद्द हो गया। (चुनाव खर्च संबंधित धारा 77 में कुछ संशोधन किए गए जो विवादास्पद रहे)।

2. पांचवें आम चुनाव संबंधी चुनाव आयोग की रिपोर्ट (1972)

चुनाव आयोग ने 1972 में पाँचवा आम चुनाव समाप्त होने के बाद अपनी रिपोर्ट जारी की। तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त एस. पी. सेन-वर्मा द्वारा लिखित यह रिपोर्ट बहुत हद तक चिंतनात्मक है लेकिन कुछ उल्लेखनीय मुद्दे भी हैंः

a. तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त सेन-वर्मा अनुमोदक की आवश्यकता को खत्म करने के निर्णय को ‘प्रतिगामी निर्णय’ बता कर कहते हैं कि युनाइटेड किंगडम में दस मतदाताओं का समर्थन हासिल करना ज़रूरी है, जिसमें से एक प्रस्तावक होगा, एक अनुमोदक होंगे और अन्य 8 मतदाता इस नामांकन से सहमति जताएंगे। कनाड़ा में नामांकन के लिए 25 मतदाताओं की आवश्यकता है। ऑस्ट्रेलिया में 6 प्रस्तावक का होना ज़रूरी है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत जैसे विशाल देश में भी 25 मतदाताओं के द्वारा नामांकन का प्रस्ताव अनिवार्य बनाना चाहिए।

b. आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति (एकल संक्रमणीय मत अथवा लिस्ट सिस्टम) को चुनाव आयोग ने यह कहते हुए नकार दिया है कि देश में शिक्षा का स्तर देखते हुए यह लागू नहीं किजा सकता है। दूसरा कारण यह कि मतक्षेत्र बहुत बड़े हैं।

3. जयप्रकाश नारायण की पहल 1975

A. लोकनायक जयप्रकाश नारायण की पहल से जनतंत्र समाज (Citizens for Democracy -CFD) ने 1975 में चुनाव सुधार कमेटी का गठन किया था लेकिन प्रत्यक्ष रूप से उसका कोई दस्तावेज़ नहीं मिला है, सिर्फ उसके बाद बनाई गई तारकुंडे कमेटी की रिपोर्ट में पहले वाली कमेटी की कार्यवाही का ज़िक्र है।

i. कमेटी में ई. पी. डब्ल्यू द’कॉस्टा संयोजक के अलावा जस्टिस वी. एम तारकुंडे, मीनू मसानी, पुरुषोतम गणेश मावलंकर, ए. जी. नूरानी और के. डी. देसाई सदस्य थे।

ii. कमेटी को चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशी को सरकार की ओर से वित्तीय सहाय देने संबंधी सिफारिशें देनी थी।

iii. 1975 की कमेटी प्रत्याशी का पूरा खर्च राज्य पर डालने के पक्ष में नहीं थी लेकिन कुछ सुझाव दिये, जैसे वोटर को छपा हुआ कार्ड दिया जाए जिसका प्रयोग वह 

मतदान के समय कर सके, प्रत्य्ताशी को प्रत्येक वोटर को अपना संदेश डाक से बिना खर्च भेजने की सुविधाः चुनावी सभाओं के लिए स्कूलों के कमरे की सुविधा; मतदाता सूची की 12 प्रतियाँ मुफ्त देना, आदि।

iv. इस चुनाव सुधार कमेटी ने चुनावी खर्च दोगुना करने का और उसकी पार्टी या मित्रों के द्वारा किया जाने वाला खर्च भी उसमें जोड़ देने की सिफारिश की और कहा कि सभी पार्टियों को अपने खर्च का ऑडिट करवाना चाहिए। कॉर्पोरेट फंड पर प्रतिबंध था उसे जारी रखने की सिफारिश भी की।

B. तारकुंडे कमेटीः CFD की दूसरी कमेटी-1977: CFD की दूसरी कमेटी का गठन लोकनायक जय प्रकाश नारायण के ही सुझाव पर 1977 के चुनाव के बाद किया गया जिसमें (1) जस्टिस वी. एम तारकुंडे (2) मीनू मसानी (3) पी. जी. मावलंकर, (4) सुरेन्द्र मोहन, और (5) के. डी. देसाई (सदस्य-सचिव थे)

कमेटी ने अपनी अहमदाबाद बैठक के बाद सभी संसद सदस्यों, विधान सभा सदस्यों, राजनीतिक पार्टियों को प्रश्नावली भेजी लेकिन जवाब में निराशा मिली। कमेटी ने पोस्टर, अन्य मुद्रित सामग्री, प्रसारण माध्यम पर पांच मिनतारकुंडेट का समय, 3600 लीटर डीजल आदि सुविधा उम्मीदवार को देने की सिफारिश की।

इन खर्चों की एवज में सिक्युरिटी डिपोज़िट ₹. 10,000 तक बढ़ाने की भी सिफारिश की गई। कुछ और भी उल्लेखनीय सिफारिशें हैं। तारकुंडे कमेटी की रिपोर्ट को पूरी तरह लागू करने के क़दम उठाए जाए उससे पहले 1977 में मोरारजी देसाई की सरकार गिर गई।

1981 से 1990

1. दलबदल विरोधी क़ानून

a. 1984 में राजीव गांधी के नेतृत्व में कॉग्रेस को भारी बहुमत हासिल हुआ। उसके बाद 1985 में संविधान में 52वां संशोधन कर के दलबदल विरोधी कानून लाया गया। संविधान में इसे 10वीं अनुसूची के रूप में स्थान दिया गया।

3. जयप्रकाश नारायण की पहल 1975

A. लोकनायक जयप्रकाश नारायण की पहल से जनतंत्र समाज (Citizens for Democracy -CFD) ने 1975 में चुनाव सुधार कमेटी का गठन किया था लेकिन प्रत्यक्ष रूप से उसका कोई दस्तावेज़ नहीं मिला है, सिर्फ उसके बाद बनाई गई तारकुंडे कमेटी की रिपोर्ट में पहले वाली कमेटी की कार्यवाही का ज़िक्र है।

i. कमेटी में ई. पी. डब्ल्यू द’कॉस्टा संयोजक के अलावा जस्टिस वी. एम तारकुंडे, मीनू मसानी, पुरुषोतम गणेश मावलंकर, ए. जी. नूरानी और के. डी. देसाई सदस्य थे।

ii. कमेटी को चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशी को सरकार की ओर से वित्तीय सहाय देने संबंधी सिफारिशें देनी थी।

iii. 1975 की कमेटी प्रत्याशी का पूरा खर्च राज्य पर डालने के पक्ष में नहीं थी लेकिन कुछ सुझाव दिये, जैसे वोटर को छपा हुआ कार्ड दिया जाए जिसका प्रयोग वह मतदान के समय कर सके, प्रत्य्ताशी को प्रत्येक वोटर को अपना संदेश डाक से बिना खर्च भेजने की सुविधाः चुनावी सभाओं के लिए स्कूलों के कमरे की सुविधा; मतदाता सूची की 12 प्रतियाँ मुफ्त देना, आदि।

iv. इस चुनाव सुधार कमेटी ने चुनावी खर्च दोगुना करने का और उसकी पार्टी या मित्रों के द्वारा किया जाने वाला खर्च भी उसमें जोड़ देने की सिफारिश की और कहा कि सभी पार्टियों को अपने खर्च का ऑडिट करवाना चाहिए। कॉर्पोरेट फंड पर प्रतिबंध था उसे जारी रखने की सिफारिश भी की।

B. तारकुंडे कमेटीः CFD की दूसरी कमेटी-1977: CFD की दूसरी कमेटी का गठन लोकनायक जय प्रकाश नारायण के ही सुझाव पर 1977 के चुनाव के बाद किया गया जिसमें (1) जस्टिस वी. एम तारकुंडे (2) मीनू मसानी (3) पी. जी. मावलंकर, (4) सुरेन्द्र मोहन, और (5) के. डी. देसाई (सदस्य-सचिव थे)

कमेटी ने अपनी अहमदाबाद बैठक के बाद सभी संसद सदस्यों, विधान सभा सदस्यों, राजनीतिक पार्टियों को प्रश्नावली भेजी लेकिन जवाब में निराशा मिली। कमेटी ने पोस्टर, अन्य मुद्रित सामग्री, प्रसारण माध्यम पर पांच मिनतारकुंडेट का समय, 3600 लीटर डीजल आदि सुविधा उम्मीदवार को देने की सिफारिश की।

इन खर्चों की एवज में सिक्युरिटी डिपोज़िट ₹. 10,000 तक बढ़ाने की भी सिफारिश की गई। कुछ और भी उल्लेखनीय सिफारिशें हैं। तारकुंडे कमेटी की रिपोर्ट को पूरी तरह लागू करने के क़दम उठाए जाए उससे पहले 1977 में मोरारजी देसाई की सरकार गिर गई।

1981 से 1990

1. दलबदल विरोधी क़ानून

a. 1984 में राजीव गांधी के नेतृत्व में कॉग्रेस को भारी बहुमत हासिल हुआ। उसके बाद 1985 में संविधान में 52वां संशोधन कर के दलबदल विरोधी कानून लाया गया। संविधान में इसे 10वीं अनुसूची के रूप में स्थान दिया गया।

कमेटी ने आरक्षित सीटों में हर बार बदलाव करने की हिमायत की। और 1981 की जन गणना के आधार पर मतक्षेत्रों का नये सिरे से परिसीमन करने की भी सिफारिश दी। समिति ने आशा व्यक्त की कि राजनीतिक पार्टियाँ महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाने के लिए आगे आएगी।

एक से अधिक प्रतिनिधियों वाले मत क्षेत्र बनाने संबंध में कमेटी कोई एक राय नहीं बना पाई लेकिन फोटो वाले पहचान पत्र देने के मुद्दे पर सर्वसम्मति बनी। कमेटी के सदस्य सहमत थे कि किसी कैण्डीडेट को दो से ज्यादा बैठकों पर चुनाव लड़ने की इजाजत नहीं देनी चाहिए। कमेटी ने कहा कि मतदान की पात्रता की आयु 21 से 18 कर दी गई है तो हुनाव लड़ने की उम्र भी 25 की जगह 21 कर देनी चाहिए।

पंजीकृत पार्टी के प्रत्याशी का नामांकन 10 मतदाताओं के द्वारा किया जाना चाहिए। 31 मार्च 1990 को कमेटी ने विशेषज्ञों द्वारा इलैक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन का निदर्शन देखा और संतोष व्यक्त किया। आनुपातिक मत पद्धति के बारे में कमेटी में एक राय नहीं थी।

कमेटी ने कई सुझाव दिये और इस के आधार पर चार विधेयक राज्यसभा में पेश किये गये। लेकिन केवल एक ही, मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति संबंधित विधेयक पारित किया जा सका। इसके बाद लोकसभा भंग हो जाने से बाकी तीन विधेयक निरस्त हो गये।

1991 से 2000

चुनाव आयोग का पुनर्गठन

1.1993 में, दिनेश गोस्वामी कमेटी की सिफारिश के मुताबिक़ चुनाव आयोग की संरचना में बड़ा परिवर्तन किया गया। सिर्फ एक ही मुख्य चुनाव आयुक्त का संवैधानिक प्रावधान था। इसमें संशोधन किया गया और 

दो चुनाव आयुक्त जोड़े गये। इसके साथ 1-सदस्यीय आयोग 3-सदस्यीय आयोग बन गया। कमेटी ने सुझाव दिया था कि मुख्य चुनाव आयुक्त का चयन राष्ट्रपति, मुख्य न्यायमूर्ति और नेता-विपक्ष की समिति द्वारा होना चाहिए। अन्य आयुक्तों की नियुक्ति के लिए मुख्य न्यायमूर्ति, नेता-विपक्ष और मुख्य चुनाव आयुक्त की समिति द्वारा की जानी चाहिए।

2. वोहरा कमेटी 1993

a) गृह सचिव एन. एन. वोहरा के नेतृत्व में गठित कमेटी का काम प्रत्यक्ष रूप से चुनाव संबंधित नहीं था, समाज में बढ़ते अपराधीकरण के बारे में अध्ययन कर के उस पर लगाम लगाने के रास्ते ढूँढने का कार्य सौंपा गया था। इस प्रक्रिया में अपराधियों और राजनीतिकों की सांठगांठ प्रकाश मे आई। कमेटी ने R&AW, CBI, ED जैसे संस्थानों के बीच संकलन पर जोर दिया। इन संस्थानों ने माफिया के बचाव में स्थानीय स्तर के राजनेताओं के हस्तक्षेप पर ध्यान आकर्षित किया।

b) वोहरा कमेटी ने बताया कि गुंडों की गैंग खास कर के ज़मीनों पर क़ब्ज़ा करती है, या बिल्डरों से पैसे एंठती हैं। ज़बरदस्ती मकान खाली करवाना, कजा कर लेना, यह उसके तरीक़े होते हैं। अपना काम किसी तरह की चुनौतियों से बचा रहे इस लिए वे ब्यूरोक्रेटों और राजनीतिकों से संपर्क बढ़ाते हैं और उनकी मदद करते हैं।

3. इन्द्रजित गुप्ता कमेटी – 1998

3 जून 1998 को इंद्रजीत गुप्ता कमेटी का गठन हुआ। चुनावी फंडिंग के मुख्य मुद्दे पर कमेटी ने गहन विचार-विमर्श किया। इसने 30 दिसंबर 1998 को अपनी रिपोर्ट को अंतिम रूप दिया। समिति इस बात पर स्पष्ट थी कि चुनावों का राज्य द्वारा वित्तपोषण ही धन-बल को जनादेश पर हावी होने से रोकने का एकमात्र तरीका है।

वित्तपोषण को चुनाव आयोग द्वारा राष्ट्रीय या राज्य स्तरीय दलों के रूप में मान्यता प्राप्त दलों तक ही सीमित रखा जाना चाहिए। शुरुआत में, राजनीतिक दलों के वित्तीय बोझ का केवल एक हिस्सा राज्य पर डाला जा सकता है। धीरे-धीरे एक बड़ा बोझ राज्यों पर डाला जा सकता है ताकि अंततः उनके सभी वैध खर्च राज्य द्वारा किये जाएं। लेकिन समिति ने यह सुझाव भी दिया कि राज्य द्वारा वित्तपोषण वस्तु के रूप में हो, नकद नहीं।

इसके अलावा, प्रत्येक मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय दल को राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में एक किराया-मुक्त आवास और एक किराया-मुक्त टेलीफोन आवंटित किया जा सकता है। प्रत्येक मान्यता प्राप्त राज्य स्तरीय दल को, जिस राज्य में उसका मुख्यालय स्थित है, उसी राज्य में समान सुविधाएँ प्रदान की जा सकती हैं। संसद या राज्य विधानसभा के आम चुनाव के समय, दलों को उनके चुनाव प्रचार के लिए सरकारी दूरदर्शन और आकाशवाणी पर पर्याप्त मुफ़्त प्रसारण समय दिया जा सकता है। केबल ऑपरेटरों सहित अन्य निजी चैनलों को भी आम चुनावों के दौरान मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय दलों के उपयोग के लिए पर्याप्त मुफ़्त प्रसारण समय उपलब्ध कराना आवश्यक होना चाहिए।

किसी मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल के प्रत्येक उम्मीदवार को चुनाव प्रचार के लिए ज़रुरी वाहनों के लिए पेट्रोल या डीज़ल की निश्चित मात्रा, चुनाव साहित्य और मतदाताओं के अनौपचारिक पहचान पर्चियों छपवाने के लिए कागज़, डाक टिकटें, निर्वाचन क्षेत्र की मतदाता सूची की पाँच प्रतियाँ, प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र या संसदीय क्षेत्र के प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र के लिए लाउडस्पीकरों का एक सेट (अर्थात एक माइक्रोफ़ोन और दो लाउडस्पीकर), पूरे संसदीय क्षेत्र के लिए अधिकतम छह ऐसे सेट, प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र में मुख्य प्रचार कार्यालय के लिए निःशुल्क कॉल के साथ एक टेलिफोन आदि सुविधाएं देनी चाहिए।

राजनीतिक दलों को अपने वार्षिक खाते नियमित रूप से आयकर अधिकारियों को प्रस्तुत करने होंगे, जिसमें प्राप्तियों और व्यय का विवरण हो। यदि पिछले कर निर्धारण वर्ष का वार्षिक रिटर्न आयकर अधिनियम के अंतर्गत दाखिल नहीं किया गया है, तो किसी भी पार्टी या उसके उम्मीदवारों को राज्य वित्त पोषण प्रदान नहीं किया जाना चाहिए। राजनीतिक दलों को अपने चुनावी खर्च का पूरा लेखा-जोखा चुनाव आयोग के पास भी दाखिल करना चाहिए। इस खाते में सामान्य पार्टी प्रचार और व्यक्तिगत उम्मीदवारों, दोनों पर प्राप्तियों और व्यय को दर्शाया जाना चाहिए।

निजी दान के संबंध में, समिति ने सिफारिश की है कि राजनीतिक दलों द्वारा प्राप्त 10,000 रुपये से अधिक के सभी दान चेक /ड्राफ्ट के माध्यम से स्वीकार किए जाने चाहिए और ऐसे दानदाताओं के नाम उनके खातों में प्रकट किए जाने चाहिए। इन खातों का लेखा-जोखा एक चार्टर्ड अकाउंटेंट ‌द्वारा किया जाना चाहिए। 

राजनीतिक उ‌द्देश्यों के लिए सरकारी कंपनियों द्वारा दिए जाने वाले दान पर प्रतिबंध जारी रहना चाहिए। राजनीतिक उ‌द्देश्यों के लिए अन्य कंपनियों और कॉर्पोरेट निकायों द्वारा दिए जाने वाले दान का निर्णय सरकार और संसद द्वारा किया जा सकता है। राजनीतिक दलों और अन्य संघों व व्यक्तियों के चुनावी खर्च को उम्मीदवारों के चुनावी खर्च के खातों में शामिल किया जाना चाहिए या नहीं, इसका निर्णय भी सरकार/संसद द्वारा किया जा सकता है।

चुनावों के लिए राज्य वित्त पोषण पर होने वाले खर्च को पूरा करने के लिए एक अलग चुनाव कोष बनाया जा सकता है। शुरुआत में, केंद्र सरकार देश के लगभग 60 करोड़ मतदाताओं के लिए प्रति मतदाता 10 रुपये की दर से सालाना 600 करोड़ रुपये का योगदान दे सकती है। केंद्र और राज्यों के बीच मौजूदा वित्तीय व्यवस्था के अनुसार, जिसमें चुनावी मदों पर होने वाले सभी पूंजीगत खर्च राज्यों द्वारा 50:50 के आधार पर साझा किए जाते हैं, राज्य सरकारें, सभी मिलकर, आनुपातिक रूप से समान राशि या सालाना 600 करोड़ रुपये का योगदान दे सकती हैं। (https://www.india seminar.com/2001/506/506%20books.htm)

4. EVM का उपयोगः 1998 में पहली बार मध्य प्रदेश, राजस्थान और दिल्ली के 16 विधानसभा

क्षेत्रों में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों का प्रयोग हुआ। 1999 में 45 संसदीय सीटों में और 2000 में हरियाणा 

के 46 विधानसभा सीटों में EVM से वोटिंग हुई।

5. विधि आयोग – 1999

विधि आयोग की मई 1999 में जारी 170वीं रिपोर्ट के द्वारा निर्वाचन विधियों में सुधार संबंधी कई सिफारिशें प्रस्तुत की गई।

1. मुख्य सिफारिश जर्मनी की तर्ज पर ‘लिस्ट सिस्टम’ अपनाने की थी। आयोग ने कहा कि हमारी ‘फर्स्ट पास्ट दि पोस्ट” (FPTP) सिस्टम में राजनीतिक दलों की भरमार के कारण अनेक असमानताएं और विकृतियाँ उत्पन्न हो गई हैं। ऐसी स्थिति में यह हो रहा है कि जीतने वाले उम्मीदवारों के पक्ष में 30% या उससे कम वैध मत पाड४ अते हैं। बाक़ी 70% या इससे अधिक मत जो निर्दळीय उम्मीदवारों सहित हारे हुए उम्मीदवारों के पक्ष में डाले जाते हैं, व्यावहारिक रूप से बेकार चले जाते हैं, जिन्हें न तो प्रतिनिधित्व मिलता है, न तो उनकी आवाज़ संसद या विधानसभाओं में पहुँचती है।

2. विधि आयोग की रिपोर्ट कहती है कि FPTP सही तसवीर पेश नही कर रही है। जिस राजनीतिक दल को 32% वोट मिल जाते हैं, वह संसद में 70% सीटें जीत लेता है। और जिसे 29% प्रतिशत वोट मिलते हैं वह दल संसद में 25% सीटें ही पाता है।

3. जर्मनी की लिस्ट सिस्टम यहाँ पूरी तरह लागू नहीं की जा सकती, इसलिए लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में 25% सीटें बढ़ा देनी चाहिए जो लिस्ट सिस्टम से भरी जाएं।

4. विधि आयोग ने कहा कि सभी दल नामांकन के साथ लिस्ट सिस्तम से भरी जाने वाली सीटों के लिए एक सूची भी भेजेंगे। बड़े राज्य को एक ‘प्रादेशिक इकाई’ माना जाएगा और छोटे राज्यों को मिलाकर प्रादेशिक इकाई बनाई जाएगी। लिस्ट सिस्टम से आने वाले उम्मीदवारों का चय्न प्रादेशिक इकाइयों से होगा।

5. आयोग ने राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र के लिए राजनैतिक दलों का गठन, कार्य, आय-व्यय का ब्यौरा, और कार्यप्रणालि संबंधित संशोधन का भी सुझाव दिया।

6. लिस्ट सिस्टम पर चार शहरों में सेमिनार किये गये और अंतिम सेमिनार में बड़ी पार्टियों के नेताओं ने लिस्ट सिस्टम का विरोध किया लेकिन छोटी पार्टियों और स्वतंत्र बौ‌द्धिकों ने न केवल समर्थन किया बल्कि, लिस्ट सिस्टम के लिस्ट सिस्टम में 25% की जगह 50% सीटें रखने का सुझाव दिया।

7. जयपाल रेड्डी (तेलुगु देशम) विरोध करते हुए कहा कि इस सिस्टम में निर्वाचन क्षेत्र और उम्मीदवार के बीच घनिष्ट संबंध नहीं बन पाएगा। कपिल सिब्बल (कोंग्रेस-आई), जन कृष्णमूर्ति (भाजपा) ने विरोध किया। तत्कालीन शहरी विकास मंत्री राम जेठमलानी ने विरोध करते हुए कहा कि ऐसा प्रतिनिधित्व राज्यसभा में है। अकालीदल कम्यूनिस्ट पार्टियाँ और कई बौ‌द्धिकों ने समर्थन किया।

8. आयोग ने अपनी सिफारिश में फिर से लिस्ट सिस्टम को रखा। राम जेठमलानी द्वारा राज्यसभा का उदाहरण दिया गया था उसे विधि आयोग ने खारिज करते हुए कहा कि राज्यसभा का चुनाव विधानसभाओं के सदस्यों द्वारा होता है, जो स्वयं त्रुटिपूर्ण FPTP से चुनकर आए हैं, इस तरह राज्यसभा का चुनाव उसी FPTP की खामियों को प्रतिबिंबित करता है।

9. 1999 की रिपोर्ट में निर्दलीय उम्मीदवारों को चुनाव से बाहर रखने के लिए आग्रह किया गया। विधि आयोग ने कहा कि 650 दलों ने पंजीकरण करवाया है, जिसमें से अधिकतर को मान्यता नहीं दी गई है।

i. लिस्ट सिस्टम में 5% से कम वोट लाने वाले दल का पंजीकरण रद्द कर दिया जाएगा। इससे बचने के लिए ये दल निर्दलीय उम्मीदवार बन के चुनाव लड़ेंगे। चूँकि निर्दलीय उम्मीदवारों पर कोई रोक नहीं है, इसलिए उनका पंजीकरण बच जाएगा। उसके बाद ऐसे निर्दलीय इकठ्ठा होकर अपना हक जताएंगे।

ii. विधि आयोग का कहना था कि राजनीतिक दल का काम लोगों की राजनीतिक समझ को बढ़ाना और उनकी आवाज को संगठित करना है। निर्दलीय उम्मीदवार का इसमें कोई योगदान संभव नहीं है।

2001 से 2011

1. राष्ट्रीय संविधान समीक्षा आयोग की रिपोर्ट

वर्ष 2000 में संविधान के कार्यान्वयन की समीक्षा करने के लिए राष्ट्रीय आयोग का गठन किया गया था। आयोग ने अपनी रिपोर्ट 2002 में सरकार को सौंपी। आयोग ने (अध्याय 4 में) चुनाव संबंधी चर्चा करते हुए धन बल, बाहु बल, माफिया नेटवर्क और जातिवाद के प्रभाव के बारे में चिंता जताई और कुछ समस्याओं को रेखांकित किया, जैसे,

10. चुनावों का बढ़ता खर्च, जिसकी वजह से माफिया के धन. काले धन का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है और चुनावों का अपराधीकरण हो रहा है।

11. First Past the Post सिस्टम के तहत पूर्ण बहुमत से कम वोट प्राप्त करने वाला उम्मीदवार जीतता है। इस तरह वह सही मायने में बहुमत का प्रतिनिधित्व नहीं करता होता है।

12. दलबदल और दसवीं अनुसूची की समस्या खत्म नहीं हुई।

13. मतदाता सूचियाँ बहुत दोषपूर्ण होती हैं।

14. मतगणना में धाँधली।

15. नकली और अगंभीर प्रत्याशियों की भरमार।

16. राजनीतिक नैतिकता का अधःपतन

आयोग ने अपराधीकरण को रोकने के लिए कई सुझाव दिये जिसमें चुनाव आयोग को अधिक शक्तियाँ देना, चुनावी गड़बड़ियों के लिए हाइकोर्ट के स्तर पर विशेष अदालतें, बनाना, इन अदालतों के निर्णयों के विरुद्ध केवल सुप्रीम कोर्ट में अपील का प्रावधान आदि हैं। पार्टियों और प्रत्याशियों के चुनावी खर्च का ऑडिट वगैरह कुछ और सिफारिशें हैं। आयोग ने 50%+1 वोट को जीतने के लिए आवश्यक माना लेकिन उसकी सिफारिश करना टाल दिया और गहन अध्ययन करने की राय दी।

2. ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश सरकार मामले में 2001 में दिए गए सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश से राजनीति के अपराधीकरण पर अंकुश लगाने में प्रोत्साहन मिला। इस मामले के कारण उम्मीदवारों के लिए अपना आपराधिक रिकॉर्ड प्रकाशित करना अनिवार्य बना और राजनीतिक दलों को मिलने वाले फंड की जांच बढ़ा दी गई, और राजनीतिक प्रणाली के भीतर अधिक जवाबदेही पर जोर दिया गया।

2011 से 2021

1. चुनाव आयोग की चुनावी खर्च संबंधी मार्गदर्शिका -2014

राजनीतिक दलों की आय पर टैक्सः राजनीतिक दल ज़रूरी खाता बहियों और अन्य दस्तावेज़ रखेंगे जिनसे उनकी आय की उचित कटौती की जा सके। राजनीतिक दल के कोषाध्यक्ष या दल द्वारा अधिकृत व्यक्ति को सभी राज्य और निचले स्तरों पर खातों का रखरखाव सुनिश्चित करने के अलावा, केंद्रीय दल मुख्यालय में समेकित खाते बनाए रखना होगा। उसके द्वारा बनाए गए खाते का ऑडिट चार्टर्ड अकाउंटेंट्स द्वारा किया जाएगा। इसकी कॉपी चुनाव आयोग को भी देनी होगी।

पब्लिक रैलियों में मिली नक़द राशि के अलावा अन्य कोई भी नकद राशि पर टैक्स लगेगा। दानदाता का नाम आदि विवरण दल को रखना होगा और यन राशि बैंक खाते में एक सप्ताह में डाल देनी होगी। नकद भुगतान किसी एक दिन में रू. 20,000 से अधिक नहीं किया जाएगा। यदि पार्टी अपने उम्मीदवारों को उनके चुनाव खर्च के लिए कोई वित्तीय सहायता प्रदान करना चाहती है, तो ऐसी सहायता निर्धारित सीमा से अधिक नहीं होगी। इस संबंध में पार्टी द्वारा कोई भी भुगतान केवल क्रॉस्ड अकाउंट पेयी चेक या ड्राफ्ट या बैंक खाते में हस्तांतरण के माध्यम से किया जाएगा, नकद में नहीं।

2. विधि आयोग -2014

1. विधि आयोग ने फ़रवरी 2014 में उम्मीदवार की अपात्रता संबंधी रिपोर्ट जारी की (रिपोर्ट संख्या 244)। वैसे, विधि आयोग संपूर्ण सुधार के सुझाव देने की तैयारी कर रहा था, लेकिन बीच में ही उच्चतम न्यायालय ने पब्लिक इण्टरेस्ट फाउंडेशन की याचिका पर अपनी राय ज़ाहिर की कि विधि आयोग पूरी रिपोर्ट बना पाए इसमें समय लग सकता है, इसलिए यह उचित होइगा कि विधि आयोग सबसे पहले राजनीति के अपराधीकरण और ग़लत एफिडेविट पेश करने के लिए कोई रास्ता बताए। 244 वी रिपोर्ट इस तरह विशेष रूप से सिर्फ इन दो मुद्दों पर केंद्रित है –

उम्मीदवार को कब अयोग्य घोषित किया जाए?

आरोप साबित होने पर?

कोर्ट में उसके खिलाफ तोहमतनामा बनाया जाए तब?

जब जाँच के बाद रिपोर्ट पेश की जाए तब?

अगर एफिडेविट (शपथ पत्र) ग़लत होना अपात्रता के लिए काफी है? अगर “हाँ” तो शपथ पत्र सही है या गलत, यह तय करने के लिए क्या व्यवस्था होनी चाहिए?

2. आयोग ने राजनीतिक दलों, राष्ट्रीय लॉ युनिवर्सिटियों, बार एसोसिएशनों और जानेमाने नागरिकों को अपनी प्रश्नावली भेजी। 157 उत्तर मिले जो ज़्यादातर व्यक्तियों और गैर सरकारी संगठनों के थे। केवल कोंग्रेस और एक अन्य पार्टी (वेलफेयर पार्टी) ने अपनी टिप्पणियाँ भेजीं।

3. पब्लिक इंटरेस्ट फाउंडेशन का प्रस्ताव था कि जिस अपराध के लिए पाँच साल की सज़ा हो सकती है, ऐसे अपराध का आरोपपत्र कोर्ट बनाती है तब से अपात्रता को लागू मानना चाहिए। लेकिन चार्जशीट चुनाव से 6 महीना पहले बना होना चाहिए।

4. Association of Democratic Reforms (ADR) ने कहा कि किसी भी उम्मीदवार के ख़िलाफ़ ऐसे केस के लिए, जिसमें दो वर्ष या उससे अधिक अवधि की सज़ा है, आरोप पत्र बनाया जाता है, उसे अपात्र मानना चाहिए और हत्या, बलात्कार जैसे केस में उम्मीदवार पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए।

5. राष्ट्रीय परामर्श के लिए राजनीतिक दलों में से केवल बीजू जनता दल, राष्ट्रवादी कॉग्रेस और दो कम्युनिस्ट पार्टियों ने हिस्सा लिया। पंजीकृत राष्ट्रीय और प्रादेशिक दलों में से अधिकतर नहीं आये।

आयोग की सिफारिशेंः

उन अपराधों को शामिल करना जिनकी अधिकतम सज़ा पाँच वर्ष या उससे अधिक होती है। नामांकन की जाँच की तिथि से एक वर्ष पहले तक दर्ज किए गए आरोप अयोग्यता का कारण नहीं बनेंगे। अयोग्यता निचली अदालत द्वारा किसी व्यक्ति के बरी होने तक, या छह वर्ष की अवधि तक, जो भी पहले हो, लागू रहेगी।

वर्तमान सांसदों/विधायकों के विरुद्ध आरोपों की सुनवाई तेजी से होनी चाहिए ताकि वे दैनिक आधार पर चलें और एक वर्ष की अवधि के भीतर समाप्त हो जाएँ। यदि उपरोक्त नहीं होता है, तो सांसद/विधायक को एक वर्ष की अवधि की समाप्ति पर अयोग्य घोषित किया जा सकता है। वैकल्पिक रूप से, सांसद/विधायक का सदन में सदस्य के रूप में मतदान का अधिकार, पारिश्रमिक और उनके पद से जुड़ी अन्य सुविधाएँ निलंबित कर दी जाएँगी।

अयोग्यता का उपर्युक्त तरीका पिछली तारीख से भी लागू होगा। इस नियम का केवल एक अपवाद होगा। नामांकन के समय से पहले एक साल के अंदर बने हुए आरोप पत्र को  अपात्रता तय करने के लिए स्वीकृत नहीं माना जाएगा।

विधि आयोग -2015

विधि आयोग ने मार्च 2015 में अपनी 255वीं रिपोर्ट प्रस्तुत की। प्रमुख सुझावों और विषयों का सारांशः

1. चुनावी वित्त सुधारः

यह रिपोर्ट राजनीतिक फंडिंग में अस्पष्टता के मुद्दे पर बताती है कि इसके कारण बड़े दानदाता सरकार पर “लॉबिंग और कब्ज़ा” कर लेते हैं। रिपोर्ट में यह पारदर्शिता बढ़ाने के लिए चुनावी खर्च, योगदान और प्रकटीकरण पर कड़े नियमों की सिफारिश करती है। काले धन को रोकने के उपाय भी दिये गये हैं।

2. उम्मीदवारों की अयोग्यताः

रिपोर्ट में राजनीति के अपराधीकरण को रोकने के लिए, दोषसि‌द्धि की प्रतीक्षा करने के बजाय, आरोप तय करने के चरण (पाँच वर्ष या उससे अधिक की सजा वाले अपराधों के लिए) में ही आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों को अयोग्य घोषित करने का प्रस्ताव है। यह लंबित आरोपों वाले उम्मीदवारों पर पिछली तारीख से लागू होता है। दुरुपयोग को रोकने के लिए सुरक्षा उपायों की सिफारिश की गई है, जैसे कि नामांकन जाँच के एक वर्ष के भीतर दायर किए गए आरोपों को राजनीति से प्रेरित मामलों से मान कर स्वीकृत नहीं माना जाएगा।

3. झूठे हलफनामेः

झूठे हलफनामे दाखिल करना अयोग्यता का आधार होना चाहिए। जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के तहत इस अपराध की सजा को अधिकतम छह महीने के कारावास से बढ़ाकर न्यूनतम दो वर्ष किया जाना चाहिए। झूठे हलफनामों को “भ्रष्ट आचरण” के रूप में वर्गीकृत किया जाना चाहिए, और त्वरित समाधान के लिए दिन-प्रतिदिन सुनवाई की जानी चाहिए।

4. चुनाव आयोग (ईसीआई) को मजबूत बनानाः

रिपोर्ट में ईसीआई की स्वतंत्रता और अधिकार को बढ़ाने पर जोर दिया गया है। यह मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) और चुनाव आयुक्तों (ईसी) की नियुक्ति के लिए प्रधानमंत्री, भारत के मुख्य न्यायाधीश और विपक्ष के नेता की एक चयन समिति के गठन हेतु पूर्व रिपोर्टी (जैसे, दिनेश गोस्वामी समिति, 1990) की सिफारिशों का समर्थन करता है।

5. दलबदल विरोधी कानूनः

स्पीकर -रिपोर्ट में दलबदल विरोधी कानून (संविधान की दसवीं अनुसूची) में सुधार का सुझाव दिया है। दलबदल करने वाले प्रतिनिधि के बारे में निर्णय लेने की सत्ता सदन के अध्यक्ष को है उसकी जगह राज्यपाल या राष्ट्रपति को देनी चाहिए।

पेड न्यूज़ और राजनीतिक विज्ञापनों का विनियमनः

यह निष्पक्ष मीडिया कवरेज सुनिश्चित करने और मतदाताओं पर अनुचित प्रभाव को रोकने के लिए पेड  न्यूज़ और राजनीतिक विज्ञापनों पर सख्त निगरानी की सिफारिश करती है।

ओपिनियन पोलः

रिपोर्ट में ओपिनियन पोल पर नियंत्रण लगाने की ज़रुरत दर्शाई गई है क्योंकि ओपिनियन पोल मतदाताओं के अभिप्राय को प्रभावित कर सकते हैं।

आनुपातिक प्रतिनिधित्वः

इसमें आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली बनाम फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट प्रणाली का तुलनात्मक विश्लेषण शामिल है, जिसमें मतदाताओं की प्राथमिकताओं को बेहतर ढंग से दर्शाने के लिए हाइब्रिड मॉडल तलाशने के सुझाव भी शामिल हैं।

नोटा (इनमें से कोई नहीं):

रिपोर्ट नोटा की भूमिका का मूल्यांकन करती है और सुझाव देती है कि इसे मतदाताओं द्वारा असहमति व्यक्त करने के एक साधन के रूप में मज़बूत किया जाना चाहिए, लेकिन यह “वापसी के अधिकार” और “अस्वीकार करने के अधिकार” को भारत की चुनावी प्रणाली के लिए अव्यावहारिक बताते हुए खारिज करती है।

अनिवार्य मतदान और अन्य मुद्देः

रिपोर्ट अनिवार्य मतदान को तार्किक चुनौतियों और लोकतांत्रिक सिद्धांतों के कारण भारत के लिए अनुपयुक्त बताती है। यह चुनाव याचिकाओं पर विचार करती है और चुनावी विवादों में समय पर न्याय सुनिश्चित करने के लिए तेज़ समाधान की सिफारिश करती है।

एक साथ चुनावः

रिपोर्ट खर्च कम करने, संसाधनों योग्यतम उपयोग और शासन में बाधाओं को कम करने के लिए लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए एक साथ चुनाव की अवधारणा का समर्थन करती है। यह 170वीं विधि आयोग रिपोर्ट (1999) का हवाला देती है और बताती है कि 1967 तक ऐतिहासिक रूप से एक साथ चुनाव कराए जाते रहे थे।

कुछ सिफारिशें, जैसे कि चुनाव आयोग की नियुक्ति प्रक्रिया, ने बाद के कानूनों (जैसे, मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त अधिनियम, 2023) को प्रभावित किया है, फिर भी चुनावी वित्त और अपराधीकरण जैसे कई प्रस्ताव अभी भी चर्चा में हैं या आंशिक रूप से लागू हैं।

2018 चुनावी बॉण्ड चुनावी फंड के लिए सरकार ने 2018 में चुनावी बॉण्ड की स्कीम निकाली जिसे 2024 में सुप्रीम कोर्ट ने अवैध घोषित किया।

सरकार का दावा था कि पोलिटिकल फंडिंग के सिस्टम को साफ-सुथरा करने के लिए यह योजना काई गई है। इसका ब्यौरा इस प्रकार से है:

1. इलेक्टोरल बॉन्ड एक बेनामी प्रॉमिसरी नोट था कोई भी हिंदुस्तानी या भारत में रजिस्टर्ड कंपनी ये बॉन्ड खरीद सकती थी। इन्हें स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (SBI) की कुछ चुनिंदा ब्रांचों से खरीदा जा सकता था। इलेक्टोरल बॉन्ड अलग-अलग कीमत में ₹1,000 से ₹1,00,00,000 मिल रहे थे।

3. बॉण्ड खरीदने वाले का उस पर नाम नहीं होगा जिसको ये मिलेगा उसका नाम नहीं दर्शाया जाता था। सिर्फ वही पोलिटिकल पार्टी उसको भुना सकती थी जिसका बैंक अकाउंट है।

2021 से अब तक 15 फरवरी, 2024 को, सुप्रीम कोर्ट ने एक धांसू फैसला सुनाया। पांच जजों की बेंच ने चुनावी बॉन्ड योजना को एकदम से गैरकानूनी बता दिया। उनका कहना था कि ये योजना आर्टिकल 19 (1) (ए) के तहत वोट देने वालों के जानने के हक और आर्टिकल 14 के तहत होने वाले खुले और साफ़ चुनावों के उसूलों के खिलाफ है। कोर्ट ने ये भी कहा कि इससे लेन-देन का हिसाब गड़बड़ हो रहा था और कंपनियों को अंधाधुंध चंदा देने का मौका मिल रहा था। फैसले में चुनावी बॉन्ड की बिक्री तुरंत रोकने का ऑर्डर दिया गया और स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया (एसबीआई) को सारे लेन-देन का कच्चा चिट्ठा खोलने को कहा गया

1. कोर्ट ने एकमत से चुनावी बॉन्ड योजना को संविधान के खिलाफ बताया। कहा कि ये वोटरों के जानकारी पाने के हक को मारती है, जो सही फैसला लेने के लिए ज़रूरी है।

2. कोर्ट ने कहा कि ये योजना कंपनियों को बिना नाम बताए खूब पैसा देने का रास्ता खोलती है। इससे ‘कुछ लो, कुछ दो’ वाला सिस्टम बन सकता है, जहाँ पैसे देकर नेता लोगों को अपनी तरफ किया जा सकता है।

3. फैसले में ये बात पक्की की गई कि वोटरों को ये जानने का हक है कि चुनावों में पैसा कहाँ से आ रहा है, तभी वो ठीक से वोट दे पाएँगे।

4. कोर्ट ने ये नियम भी हटा दिया कि कोई भी कंपनी कितना भी चंदा दे सकती है। कोर्ट का कहना था कि इससे बड़ी कंपनियों को गलत तरीके से सरकार को अपनी तरफ करने का मौका मिल जाएगा और चुनाव की इज्जत घट जाएगी।

5. स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (एसबीआई) को ऑर्डर दिया गया कि 12 अप्रैल, 2019 से जितने भी चुनावी बॉन्ड खरीदे गए हैं, उनका सारा हिसाब-किताब तुरंत इलेक्शन कमीशन ऑफ़ इंडिया (ईसीआई) को दे।

6. इलेक्शन कमीशन ऑफ इंडिया को कहा गया है कि एसबीआई से डेटा मिलते ही एक हफ्ते के अंदर सारी जानकारी अपनी वेबसाइट पर डाले।

इस फैसले की अहमियत यह है कि पोलिटिकल फंडिंग में खुलापन अनिवार्य बन गया और यह पक्का हो गया कि लोग अपने चुने हुए नेताओं चुनावी फंड के बारे में जवाब मांग सकते हैं।


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