अंजना कृष्णा, आईपीएस का साहस: महाराष्ट्र में अवैध खनन के विरुद्ध प्रशासनिक संघर्ष और राजनीतिक हस्तक्षेप

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The courage of Anjana Krishna, IPS

Parichay Das

— परिचय दास —

हाराष्ट्र समेत कई राज्यों में अवैध खनन एक ऐसी समस्या बनकर उभरी है, जो न केवल पर्यावरणीय संतुलन को नुकसान पहुंचा रही है बल्कि सामाजिक, राजनीतिक और प्रशासनिक स्तर पर भी बड़े विवादों का कारण बन रही है। अवैध खनन के खिलाफ आवाज उठाना और उसका प्रभावी रूप से मुकाबला करना कोई आसान कार्य नहीं है, विशेषकर जब यह व्यापक पैमाने पर चल रहा हो और राजनीतिक संरक्षण भी प्राप्त हो। ऐसी ही एक साहसी अधिकारी अंजना कृष्णा , आईपीएस ने इस चुनौतीपूर्ण मोर्चे पर अपने कर्तव्य की भावना से अवैध खनन के खिलाफ कदम उठाया। घटना तब हुई जब अधिकारी वहां अवैध मिट्टी खनन पर कार्रवाई को रोकने गई थीं। उनकी कार्यवाही न केवल न्याय की मिसाल बनी बल्कि राजनीतिक दखलंदाजी की भी चुप्पी तोड़ी। खबरों के अनुसार, अजित पवार ( उप मुख्यमंत्री , महाराष्ट्र ) ने इस दौरान अधिकारी को कार्रवाई रोकने के सख्त निर्देश दिए।

शोलापुर जिले के एक गांव में खनन की शिकायत के खिलाफ वे कार्रवाई करने पहुंची थीं। पुलिस अधिकारी अंजना कृष्णा ने पहले संबंधित लोगों से रॉयल्टी रसीद दिखाने को कहा लेकिन वे ऐसी कोई रसीद नहीं दिखा पाए। इसके बाद अंजना कृष्णा ने कहा कि यह ग़ैरक़ानूनी है और इसे तुरंत बंद करना होगा। इससे पुलिस अधिकारी अंजना और ग्रामीणों के बीच बहस हो गई।
इस समय गांव के सरपंच और एनसीपी (अजित पवार गुट) तालुका अध्यक्ष बाबा जगताप ने सीधे उप मुख्यमंत्री अजित पवार को फ़ोन किया। इसके बाद बाबा जगताप ने अपना फ़ोन अंजना कृष्णा को दिया और उन्हें फोन पर बात करने को कहा। उधर से आयी आवाज़ अंजना कृष्णा पहचान नहीं पायीं। खबरों के अनुसार डिप्टी सीएम अजित पवार ने फोन पर उनसे कार्रवाई रोकने को कहा। मगर, आईपीएस अंजना ने उनसे ही सवाल पूछ लिया कि आप डिप्टी सीएम हैं, इसका क्या सबूत है? अंजना कृष्णा ने कहा, ‘कृपया आप मेरे मोबाइल पर कॉल करें।’

आईपीएस अंजना का सवाल सुनकर अजित पवार भड़क गए। लोकल विधायक अमोल मिटकारी ने अंजना कृष्णा , आईपीएस पर शिक्षा व जाति-प्रमाण का जो आरोप लगाया , उन्हें इससे पीछे क्यों हटना पड़ा व माफी क्यों मांगनी पड़ी?

अंजना कृष्णा , आईपीएस ने अवैध खनन के विरुद्ध न केवल गहन छानबीन की बल्कि सैकड़ों अवैध खदानों की पहचान कर उन्हें तत्काल बंद कराने का आदेश भी जारी किया। उन्होंने क्षेत्रीय अधिकारियों, स्थानीय नेताओं और खनन माफियाओं के खिलाफ निडर होकर कार्रवाई की। यह कार्य एक साहसिक कदम था क्योंकि अवैध खनन माफिया शक्तिशाली और राजनीतिक प्रभाव वाले लोग होते हैं जो अपने हितों की रक्षा के लिये कभी भी प्रशासनिक अधिकारियों पर दबाव डालते हैं। अंजना कृष्णा , आईपीएस ने न केवल पर्यावरण की रक्षा का संदेश दिया बल्कि प्रशासनिक ईमानदारी का भी परिचय दिया।

हालांकि, इस साहसिक कार्यवाही के बीच बड़ा विवाद सामने आया कि उपमुख्यमंत्री द्वारा एक फोन कॉल के माध्यम से उन्हें अवैध खनन की जांच प्रक्रिया को रोकने का दबाव डाला गया। यह फोन कॉल प्रशासनिक व्यवस्था की निष्पक्षता और स्वतंत्रता पर सवाल उठाता है। अधिकारी अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए निष्पक्षता से कार्य कर रहे थे लेकिन राजनीतिक दबाव के कारण उनके कर्तव्य पालन में रोड़ा अटका। यह घटना यह दिखाती है कि राजनीतिक हस्तक्षेप किस प्रकार प्रशासनिक व्यवस्था की प्रकृति को प्रभावित करता है और किस प्रकार अधिकारी अपनी नैतिक जिम्मेदारी और राजनीतिक आदेश के बीच संघर्ष करते हैं। अंजना कृष्णा , आईपीएस ने इस दबाव को अस्वीकार करते हुए कार्यवाही जारी रखी जो उनके साहस, कर्तव्यपरायणता और प्रशासनिक ईमानदारी का प्रतीक बन गया।

राजनीतिक दृष्टि से यह मामला गहरा प्रश्नचिह्न खड़ा करता है। लोकतंत्र में राजनीतिक नेतृत्व का काम प्रशासन को सुचारु रूप से कार्य करने देना होता है, न कि उसे अपने व्यक्तिगत स्वार्थ या दबाव में लेकर अवैध गतिविधियों को संरक्षण प्रदान करना। उपमुख्यमंत्री द्वारा प्रशासनिक अधिकारी को कार्य से रोकने का प्रयास भारतीय संविधान की भावना के विरोध में है जो प्रशासनिक स्वतंत्रता को सुनिश्चित करता है। यह न केवल लोकतांत्रिक मूल्यों का उल्लंघन है बल्कि यह भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाला कृत्य भी है। इससे यह स्पष्ट होता है कि सत्ता का दुरुपयोग किस हद तक समाज और प्रशासनिक तंत्र को प्रभावित कर सकता है।

प्रशासनिक विवेचना की दृष्टि से भी यह मामला गंभीर है। एक प्रशासनिक अधिकारी का कर्तव्य होता है कानून व्यवस्था बनाये रखना, नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करना और राज्य के प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा करना। जब अधिकारी अपनी जिम्मेदारियों का पालन निष्पक्षता से करते हैं तो यह शासन व्यवस्था की मजबूती का प्रतीक होता है। अंजना कृष्णा , आईपीएस ने अवैध खनन के खिलाफ कार्यवाही करके न केवल पर्यावरण संरक्षण की दिशा में कदम बढ़ाया बल्कि भ्रष्ट प्रशासनिक प्रथाओं के खिलाफ भी आवाज उठाई। इसके माध्यम से यह स्पष्ट होता है कि प्रशासन का मुख्य उद्देश्य जनता की सेवा और न्याय का प्रवर्तन होना चाहिए, न कि राजनीतिक संरक्षण प्राप्त अवैध गतिविधियों को बढ़ावा देना।

इस पूरे प्रकरण ने यह भी उजागर किया कि किस प्रकार प्रशासनिक स्वतंत्रता पर राजनीतिक दबाव बनाकर उसे कमजोर करने की कोशिश की जाती है। यह केवल व्यक्तिगत साहस का प्रश्न नहीं बल्कि एक प्रणालीगत संघर्ष बनकर उभरा। ऐसे में जब भी प्रशासनिक अधिकारी ईमानदारी से कार्य करते हैं तो उन्हें राजनीतिक हस्तक्षेप से बचाने के लिये सख्त कानून व्यवस्था की आवश्यकता बन जाती है। भारतीय प्रशासनिक सेवा का मूल उद्देश्य देशहित में कार्य करना और लोकतंत्र के आदर्शों का पालन करना है। अंजना कृष्णा , आईपीएस का यह कार्य उन सभी अधिकारियों के लिये प्रेरणा बन गया जो प्रशासनिक भ्रष्टाचार के खिलाफ लम्बे संघर्ष में लगे हैं।

यह मामला यह संदेश देता है कि लोकतंत्र में प्रशासनिक स्वतंत्रता और ईमानदारी का महत्त्व सर्वोपरि है। अवैध खनन जैसे अपराध के विरुद्ध प्रशासनिक अधिकारी को राजनीति के दबाव से मुक्त करके उन्हें अपने कार्यक्षेत्र में स्वतंत्रता प्रदान करनी चाहिए, ताकि न्याय का प्रवर्तन हो सके और प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण सुनिश्चित किया जा सके। अंजना कृष्णा , आईपीएस ने जिस साहस और निष्ठा के साथ यह कार्य किया, वह न केवल प्रशासनिक शक्ति का प्रतीक बन गया बल्कि यह भी दर्शाता है कि भ्रष्टाचार और अवैध गतिविधियों के खिलाफ संघर्ष करने वाले अधिकारी समाज के सच्चे प्रहरी होते हैं। इस घटना से यह सीख मिलती है कि केवल प्रशासनिक आदेशों का पालन ही नहीं अपितु नैतिक साहस और न्याय के प्रति प्रतिबद्धता ही सच्ची सेवा होती है।

अजित पवार पर हाल ही में वायरल हुए वीडियो ने भारतीय राजनीति में इसी प्रकरण पर नई हलचल मचा दी है। इस वीडियो में उन्हें इस महिला IPS ऑफिसर से ऐसी बात करते हुए सुना गया जो न केवल अनैतिक था बल्कि संवैधानिक मर्यादाओं और महिला सम्मान की अवहेलना भी करता है। इस घटना ने समाज में महिलाओं के प्रति बढ़ती हिंसा और असम्मान की समस्याओं को फिर से उजागर कर दिया है , साथ ही, व्यवस्था को भंजित भी करता है। महिला आईपीएस ऑफिसर ने सार्वजनिक रूप से स्पष्ट किया कि उन्होंने किसी भी प्रकार की अनुचित बात या धमकी स्वीकार नहीं की है बल्कि उन्होंने खुद को पूरी तरह से सुरक्षित रखते हुए कार्रवाई की धमकी देने वाले रवैये के खिलाफ खड़ा होकर अपने कर्तव्य का पालन किया।

राजनीति का स्वरूप लोकतंत्र में जनता की सेवा, देशहित और न्याय का पालन होना चाहिए, न कि व्यक्तिगत स्वार्थ, सत्ता की हठधर्मिता और महिलाओं के प्रति असम्मान से भरा लेकिन खबरों के अनुसार , जब कोई वरिष्ठ राजनेता बिना शर्मिंदगी के ऐसी हरकत करता है तो यह राजनीतिक नैतिकता और लोकतांत्रिक मूल्यों पर गहरा प्रश्नचिह्न खड़ा करता है। क्या राजनीतिज्ञ अब किसी भी हद पार करके बोलने और करने लगे हैं, बस अपनी सत्ता और प्रभाव के सहारे?

राजनेता, जिन्हें जनता का सेवक माना जाता है, उन्हें अपने उच्च पद का दायित्व समझना चाहिए। वे केवल कानून और संविधान के पालन के लिए प्रतिबद्ध नहीं हैं बल्कि समाज के आदर्श भी प्रस्तुत करते हैं लेकिन आज के राजनीतिक माहौल में कई बार देखा गया है कि सत्ता की राजनीति इतनी गंदी हो गई है कि नैतिकता, सदाचार और मर्यादा पीछे छूट गई है। ऐसे मामलों में यह जरूरी हो जाता है कि समाज , साहित्य , चौथा स्तम्भ , न्यायपालिका आदि मिलकर उस राजनेता को जवाबदेह बनाएं। भ्रस्टाचार, अनुचित व्यवहार और महिलाओं के प्रति अपराध की घोर निंदा होनी चाहिए।

राजनीति केवल सत्ता का खेल नहीं हो सकती। यह तो समाज के प्रति जिम्मेदारी है, न्याय का प्रवर्तन है और नागरिकों के अधिकारों का संरक्षण है। यदि राजनीति भ्रष्टाचार और अनुचित आचरण का अड्डा बन जाएगी तो यह लोकतंत्र के लिए विनाशकारी साबित होगी। आज की घटना एक चेतावनी स्वरूप है जो यह बताती है कि सत्ता के नशे में डूबे राजनेताओं को रोका नहीं गया तो वे समाज की संरचना को भी तहस-नहस कर सकते हैं।

इसके लिए नागरिक समाज, मीडिया, न्यायपालिका और सशक्त महिलाएं मिलकर ठोस कदम उठाएं। केवल निंदा करने से काम नहीं चलेगा। ठोस कार्रवाई, सख्त कानून और सार्वजनिक जागरूकता के माध्यम से ऐसी घटनाओं पर प्रभावी रोक लगनी चाहिए। भ्रष्टाचार का निषेध तभी संभव है, जब समाज में ईमानदारी, नैतिकता और कर्तव्यपरायणता को प्राथमिकता दी जाए। यदि एक आईपीएस अधिकारी भी राजनीतिक दबाव से नहीं डरती और अपने कर्तव्य का निर्वहन निर्भयता से करती है तो यह एक प्रेरणादायक घटना बन जाती है।

राजनीति का असली उद्देश्य समाज की भलाई और न्याय की स्थापना होना चाहिए, न कि व्यक्तिगत स्वार्थ और सत्ता का अहंकार। आज का यह विवाद हमें यह सिखाता है कि भ्रष्ट राजनीति और अनुचित व्यवहार का समूल अंत तभी संभव है, जब हम सभी मिलकर उसके खिलाफ आवाज उठाएं। आइए हम हर नागरिक के तौर पर यह संकल्प लें कि हम लोकतंत्र की इस आत्मा की रक्षा करेंगे और गलत राजनीति व भ्रस्टाचार का निषेध समाज के हर स्तर पर करेंगे।

राजनीति का मूल उद्देश्य समाज के समग्र कल्याण के लिए उचित निर्णय लेना और उसे कार्यान्वित करना होता है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से समाज के विभिन्न वर्ग अपने प्रतिनिधियों का चयन करता है ताकि वे उनके लिए नीतियाँ बना सकें और शासन व्यवस्था को संचालित कर सकें परंतु आजकल की राजनीति ने जिस विकृत स्वरूप को धारण किया है, उससे समाज की नींव ही हिलती नजर आ रही है। भ्रष्टाचार, स्तरहीनता, सत्ता के लिए सत्ता, अधिकारियों के काम में बाधा डालना, व्यक्तिगत स्वार्थ की पूर्ति, समाज की नैतिकता का पतन, ये सब राजनीतिक व्यवस्था के उन काले पक्षों का हिस्सा बन चुके हैं जो लोकतंत्र के मूल उद्देश्य के खिलाफ हैं।

राजनीति में भ्रष्टाचार की समस्या आज अत्यंत गंभीर हो गई है। भ्रष्टाचारी नेता न केवल सरकारी योजनाओं के कार्यान्वयन में लूट करते हैं बल्कि वे अपने राजनीतिक विरोधियों को दबाने, अपने निजी हित साधने और जनप्रतिनिधि पद की गद्दी बनाए रखने के लिए हर संभव हथकंडे अपनाते हैं। समाज में बढ़ती असमानता, बेरोजगारी, शिक्षा व स्वास्थ्य की गिरती गुणवत्ता, गरीबी की व्यापकता, इन सब समस्याओं का मूल कारण यही भ्रष्टाचार है। जब नेताओं का उद्देश्य समाज के हित की बजाय व्यक्तिगत स्वार्थ बन जाता है तो नीतियाँ केवल दिखावटी बनकर रह जाती हैं। सरकारी योजना का लाभ जनता तक नहीं पहुँचता बल्कि उसमें कुछ लोगों का निजी स्वार्थ पूरा होता है।

राजनीति की स्तरहीनता ने भी देश की छवि को धूमिल किया है। संसद में वाद-विवाद का स्वरूप चर्चा का मैदान बन चुका है। जनप्रतिनिधि, जो अपने मतदाताओं के हित में काम करने के लिए चुने जाते हैं, वे अपने भाषणों में अभद्र भाषा का प्रयोग, व्यक्तिगत आक्षेप, राजनीतिक विरोधियों पर अनर्गल आरोप-प्रत्यारोप तक सीमित हो गए हैं। यह स्तरहीनता समाज में असंयम, अशांति और अविश्वास की भावना को जन्म देती है। एक जिम्मेदार राजनीति के बजाय मीडिया ट्रायल, सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक टिप्पणियाँ, जनधारणा को गलत दिशा में मोड़ने की प्रवृत्ति अधिक देखी जा रही है। इससे राजनीतिक व्यवस्था की गरिमा धूमिल होती है और लोकतंत्र पर प्रश्नचिह्न लगने लगता है।

नेता केवल सत्ता के लिए सत्ता को महत्त्व देने लगे हैं। उनका उद्देश्य जनसेवा नहीं बल्कि सत्ता का दीर्घकालिक उपयोग बन गया है। लोकतंत्र का मूल तत्त्व जनता की सेवा है, न कि सत्ता का कब्जा। सत्ता प्राप्त करने के लिए जातिगत, धार्मिक, क्षेत्रीय और सामाजिक भावनाओं को उकसाना आम हो गया है। इससे समाज में अविश्वास, द्वंद्व और अस्थिरता उत्पन्न होती है। सत्ता के लोभ में भ्रष्टाचार, अपराध, दबंगई और अन्याय को बढ़ावा दिया जाता है। यह स्थिति देश की आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक उन्नति के मार्ग में बड़ी बाधा बन चुकी है।

अधिकारियों को काम न करने देना भी राजनीतिक पद्धति का एक गंभीर पक्ष बन चुका है। अधिकारी, जो संविधान और नियमों के तहत निष्पक्षता से कार्य करने के लिए नियुक्त होते हैं, उन्हें राजनीतिक दबाव के कारण जनता की सेवा नहीं करने दिया जाता। जब अधिकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्य करने लगते हैं या अनियमितताओं की जांच करते हैं तो उन्हें धमकी देना, स्थानांतरण कर देना, मनमाने तरीके से नौकरी से हटा देना जैसे कृत्य हो जाते हैं। इससे प्रशासनिक तंत्र कमजोर होता है और निष्पक्ष कार्यप्रणाली की जगह राजनीतिक दबाव का शासन स्थापित हो जाता है। अधिकारी गलत करें तो उनका भी समर्थन नहीं किया जा सकता। नेताओं के इन्हीं कुकृत्यों से समाज के कमजोर वर्ग को न्याय नहीं मिलता, जनसेवा बाधित होती है और देश का प्रशासन भ्रष्टाचार में डूबता चला जाता है।

राजनीति का सर्वोच्च उद्देश्य समाज की बेहतरी और जनता के हित में कार्य करना होना चाहिए। एक जिम्मेदार राजनीतिक व्यवस्था वही है जो अपने फैसलों के द्वारा समाज के कमजोर वर्ग को सशक्त बनाती हो, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, न्याय और समानता सुनिश्चित करती हो। जब नेता जनता के हित के प्रति समर्पित रहते हैं, तभी लोकतंत्र की सच्ची परिभाषा पूरी होती है। इसलिए राजनीति को नैतिकता, पारदर्शिता, जवाबदेही, संवैधानिक मर्यादा और सामाजिक न्याय की दिशा में अग्रसरित करना अत्यंत आवश्यक है। जनता को भी अपने अधिकारों के प्रति सजग होकर भ्रष्टाचार, अनियमितताओं और असंवेदनशील राजनीति के खिलाफ आवाज उठानी होगी। केवल तभी यह सुनिश्चित हो सकेगा कि राजनीति समाज सेवा का सर्वोच्च माध्यम बनकर रहे, न कि व्यक्तिगत स्वार्थ, सत्ता की लालसा और भ्रष्टाचार का खेल। लोकतंत्र में जनता की सर्वोच्चता होनी चाहिए, न कि सत्ता के लालच में राजनीतिक दलों की मनमानी।

राजनीति का असली चेहरा वही होना चाहिए जो समाज को एकजुट कर, न्याय प्रदान कर, विकास के नए आयाम स्थापित कर, सामाजिक समानता को सुनिश्चित कर सके। इसका उद्देश्य केवल चुनाव जीतना या विरोधी दल को कमजोर करना नहीं बल्कि सामाजिक समरसता, न्यायप्रियता और नैतिक शासन की स्थापना होनी चाहिए। तभी देश प्रगति की ओर अग्रसर होगा और जनता की समृद्धि सुनिश्चित होगी। राजनीति को इसी उद्देश्य से पुनः परिभाषित किया जाना चाहिए।


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