राजसत्ता हो या कोई भी सत्ता वह धैर्य को सबसे बड़े नागरिक गुण के रूप में प्रचारित करती है। राजसत्ता आपसे खुद पर धैर्य व विश्वास बनाये रखने के लिए ही कहती हैं न कि वह जो कर या कह रही है उसकी परीक्षा करने के लिए।
धैर्य और अधैर्य का उदाहरण हम महात्मा गांधी और उनके पुत्र देवदास के पत्र व्यवहार के रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं जो गांधीजी के अंतिम आमरण अनशन के समय 12 जनवरी 1948 के समय दिखा। उस समय दिल्ली हिंसा में डूबी हुई थी और गांधी की बात उन्हीं के अपने लोग नहीं सुन रहे थे। 12 जनवरी को गांधी फैसला कर लेते हैं कि अब उनकी अंतिम परीक्षा का वक्त आ चुका है। वे शाम को प्रार्थना सभा में एक वक्तव्य पढ़ते हैं –
‘’कल सुबह से मेरा अनिश्चितकालीन उपवास शुरू होगा।पिछले कई दिनों से मेरी एक नन्नी सी आवाज मेरे मन में लगातार दस्तक दे रही थी, लेकिन मैंने अपने कान बंद कर लिए थे कि कहीं यह शैतान की पुकार न हो। लेकिन आज वह आवाज तेज हो गयी है और अब वह मुझसे कह रही है कि मुझे उपवास करना चाहिए।
एक 78 साल का आदमी उपवास कर रहा था जिसकी देह थक चुकी थी। नोआखाली, बिहार और कलकत्ता में पैदल पैदल घूमते हुए। उस थकी हुई देह और जख्मी रूह को लेकर उन्होंने उपवास किया। और पूरी दुनिया में चिंता की लहर दौड़ गयी। इस बार लोगों को लगा कि गांधी उपवास से उबर नहीं पाएंगे।
गांधीजी के पुत्र देवदास ने पिता पर आरोप लगाया कि वे धैर्य छोड़ रहे हैं जिसकी सलाह वे ख़ुद जीवनभर दूसरों को देते रहे। उपवास का निर्णय उनके अधैर्य का सबूत है। देवदास गांधी ने अपने पिता को चिट्ठी लिखी-
”आपने यह जो उपवास शुरू किया है इसके खिलाफ मेरे पास कहने को बहुत कुछ है। मेरी जो मुख्य चिंता है, मेरा जो मुख्य तर्क है आपके उपवास के खिलाफ वह यह है कि आखिर आपने अधीरता के आगे हथियार डाल दिए हालांकि माना यह जाता है कि आप अनन्त धैर्य के प्रतीक हैं , आप कभी धैर्य नहीं छोड़ते। लेकिन इस उपवास से यह पता चलता है कि आखिरकार आप अधीर हो गए हैं। आप को शायद इस बात का अन्दाजा नहीँ है कि आपने अपने अथक और धैर्यपूर्ण परिश्रम से कितनी बड़ी सफलता हासिल की है, जब लाखों लोग धीरे धीरे यह समझने को वाध्य हुए कि वे क्या पागलपन कर रहे हैं । आपके परिश्रम ने लाखों जीवनों की रक्षा की है और लाखों जीवनों की रक्षा कर सकती है। मर कर या मृत्यु को प्राप्त करके आप वह सब हासिल नहीं कर सकते जो अपने जीवन को बचाकर आप कर सकते हैं । इसलिए मैं आपसे अनुरोध करूँगा कि आप मेरी बात पर विचार करें और उपवास का ख्याल छोड़ दें।”
गांधीजी ने अपने पुत्र को जवाब में पत्र लिखा –
” मैं यह मानने को तैयार नहीं हूं कि उपवास पर जाने का मेरा यह निर्णय जल्दबाजी में लिया गया है। यह त्वरित लग सकता है। यह जो त्वरित निर्णय दिखलाई पड़ता है इसके पीछे मेरा चार दिनों का आत्मशोधन और प्रार्थना है। इसलिए इसे हड़बड़ी में किया गया फैसला नहीं माना जा सकता। मुझे दरअसल इस उपवास की उपयुक्तता के विरुद्ध कोई तर्क सुनने की जरूरत नहीं। आपकी जो चिंता और आपके जो तर्क हैं वे दरअसल व्यर्थ हैं। आप मेरे मित्र हैं और मेरे बहुत बड़े शुभचिंतक भी हैं। आपकी चिंता जायज है और मैं इसका सम्मान करता हूँ। यह धैर्य अंततः मेरी ही तो जान लेगा, तो इसे क्या आप मूर्खतापूर्ण धैर्य कहेंगे?
मेरे दिल्ली आने से पहले जो उपलब्धियां आपने गिनाईं हैं उनका श्रेय मैं नहीं ले सकता। यह मेरी आत्मशक्ति थी जिसने यह सब कराया और मेरे श्रम से हजारों लोगों की जान सुरक्षित हुई। मैंने कुछ नहीं किया बस अपने सभी सीमित संशाधनों से अपने आपको झोंक दिया था और अपना सर ईश्वर की गोद में रख दिया था। यही मेरे उपवास का आंतरिक अर्थ है और उसका महत्व है। शायद इतना ही ठीक था कि मैं एक कमजोर भारत राष्ट्र का प्रतिनिधित्व कर सकूं ताकतवर राष्ट्र का नहीं। भगवान पर फैसला करने का अधिकार किसी को नहीं है और इसलिए मैंने एक धृष्टता की थी कि मैं 125 वर्ष जीऊंगा तो आज मुझमें यह विनम्रता भी होनी चाहिए कि हालात बदल गए हैं और मैं इस इच्छा का सार्वजनिक रूप से त्याग करता हूँ । मैंने कुछ भी ज्यादा नहीं किया है और कुछ भी कम नहीं किया है । मैं उस सर्वशक्तिमान का आव्हान करता हूँ कि वह मुझे आंसुओं की इस घाटी से दूर ले जाय जो अब भारतवर्ष बन गया है। अगर भारत आजाद हालत में अपने आप को एक नहीं पाया और बिखर गया अगर भारत ने आजाद होने के बाद गुलामी की हालत में नहीं जब वह खुद मुख्तार हो गया, सारी ताकत उंसके हाथ में आ गयी तब उसने सबसे ज्यादा पशुता का परिचय दिया तो इसका अर्थ है कि दुनिया में अब कोई उम्मीद बची नहीं |’’
पिता पुत्र का यह पत्र व्यवहार हर देशवासी को धैर्य व अधैर्य के रूप में पढ़ना चाहिए। पुत्र ने पिता (गांधीजी) पर आरोप लगाया कि वे धीरज छोड़ रहे हैं जिसकी सलाह वे ख़ुद जीवन भर दूसरों को देते रहे थे। उपवास का निर्णय उनके अधैर्य का सबूत था। पिता ने पुत्र (देवदास) की शुभ आकांक्षा के लिए उन्हें धन्यवाद देते हुए कहा कि निर्णय में जल्दवाजी दिख सकती है, लेकिन वह हड़बड़ी पूर्ण नहीं है। गांधी ने कहा कि अगर हिंदू, सिख हिंसा छोड़ने की उनकी अपील सुनने को तैयार नहीं हैं तो उनके आगे और धैर्य दिखाने का कोई अर्थ नहीं है। अपने भीतर की नन्हीं आवाज़ को मैं नज़रअंदाज कर सकता हूँ पर उसे और अनसुना करना अब मेरे लिए संभव नहीं। मेरा उपवास का निर्णय देश के बुनियादी मूल्य की रक्षा के लिए ही है। धैर्य और अधैर्य को लेकर यह संवाद पुत्र देवदास गाँधी और पिता मोहनदास करमचंद गाँधी के बीच का है।
साभार – Gandhi Darshan – गांधी दर्शन
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