गाँधी व शास्त्री की समकालीनता

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Contemporaneity of Gandhi and Shastri

Parichay Das

— परिचय दास —

गाँधी और शास्त्री—ये दो नाम भारतीय मानस के दो उजले स्तम्भ हैं। दोनों के बीच एक पीढ़ी का अंतराल अवश्य है किंतु उनके जीवन और उनके विचारों की धारा में ऐसी अद्भुत समकालीनता दिखाई देती है जो किसी भी युग के लिए आदर्श बन सकती है। महात्मा गाँधी उस विराट तपस्वी का नाम हैं, जिन्होंने असहयोग, सत्याग्रह और अहिंसा के बल पर साम्राज्यवादी सत्ता को चुनौती दी और शास्त्री उस संकोची किंतु दृढ़ व्यक्तित्व का नाम हैं जिन्होंने सादगी, ईमानदारी और आत्मबल से स्वतंत्र भारत को आत्मनिर्भरता की राह दिखाई। दोनों ही जीवन के अंत तक सत्ता से अधिक मूल्यों को प्राथमिकता देते रहे। एक ने अपनी कर्मदृष्टि से भारतीय आत्मा को जाग्रत किया, दूसरे ने “जय जवान, जय किसान” कहकर राष्ट्र की आत्मा को स्वर दिया।

गाँधी का युग संघर्ष का युग था। उनके लिए स्वतंत्रता केवल राजनीतिक स्वतंत्रता नहीं थी, वह आत्मा की स्वतंत्रता थी। उनके जीवन की हर बात में तप और त्याग की झलक मिलती है। लाठी और गोली के सामने खड़े होकर भी उन्होंने न हिंसा को अपनाया और न घृणा को। उनकी आवाज़ में वह सत्य की गूँज थी जो लाखों-करोड़ों भारतीयों के हृदय में विश्वास और स्वाधीनता का प्रकाश फैलाती थी। वे एक साधारण वस्त्रधारी महात्मा थे लेकिन उनका व्यक्तित्व असाधारण था। उनका अस्त्र सत्य और अहिंसा था और उनके युद्धक्षेत्र में दुश्मन भी अंततः मानवता को ही देखता था।

शास्त्री का समय भी कम चुनौतीपूर्ण नहीं था। उनके सामने स्वतंत्र भारत की कठिनाइयाँ थीं—अकाल, गरीबी, बेरोजगारी और युद्ध का खतरा लेकिन उनकी सादगी और ईमानदारी ने जनता के भीतर विश्वास की वही चिन्गारी जगाई जो गाँधी ने अपने समय में जगाई थी। वे कद में छोटे थे किंतु उनके व्यक्तित्व की ऊँचाई ऐसी थी कि पूरी दुनिया ने उनकी दृढ़ता को महसूस किया। उन्होंने कहा कि अगर देश को अनाज चाहिए तो लोग एक समय का उपवास करें। यह वाणी केवल नेता की वाणी नहीं थी, यह एक साधक की वाणी थी। यह उस व्यक्ति की आवाज़ थी जो सत्ता में रहकर भी जनता का अंग बना रहा।

गाँधी और शास्त्री दोनों के जीवन में समकालीनता सबसे अधिक उनकी सादगी और त्याग में दिखाई देती है। गाँधी ने अहिंसा , सत्याग्रह व जनता को जगाकर सत्ता के तामझाम का विरोध किया और शास्त्री ने अपनी काया के साथ अपने जीवन को भी इतना सरल बना लिया कि वे भारतीय जनता के जीवन की कठिनाइयों का सीधा प्रतिबिंब बन गए। दोनों ही नेताओं ने जीवन को केवल राजनीति तक सीमित नहीं रखा। गाँधी का जीवन धर्म, नैतिकता और मानवीयता का संगम था और शास्त्री का जीवन कर्तव्य, परिश्रम और ईमानदारी की भूमि पर खड़ा था।

गाँधी की अहिंसा और शास्त्री की शांति-दृष्टि में एक अद्भुत साम्य है। गाँधी ने कहा था कि हिंसा हिंसा को जन्म देती है, इसलिए शांति ही मानवता की असली शक्ति है। शास्त्री ने पाकिस्तान के साथ युद्ध के दिनों में भी शांति को ही अंतिम विकल्प माना। युद्धभूमि में सैनिकों के शौर्य की प्रशंसा करते हुए भी उन्होंने अंततः कहा कि शांति ही हमारे देश की असली विजय होगी। यह उनकी गाँधी से प्राप्त विरासत थी।

गाँधी और शास्त्री दोनों ने जनता में विश्वास जगाने की कला सीखी। गाँधी ने नमक सत्याग्रह से यह सिखाया कि छोटे से छोटा काम भी यदि सत्य और न्याय के पक्ष में है तो वह आंदोलन बन सकता है। शास्त्री ने हर गाँव के किसान और हर सीमा पर खड़े जवान को यह सिखाया कि देश के निर्माण में उनकी भूमिका सर्वोपरि है। यही कारण है कि “जय जवान, जय किसान” केवल एक नारा नहीं रहा बल्कि स्वतंत्र भारत की आत्मा का घोष बन गया।

इन दोनों नेताओं की समकालीनता उनके नैतिक आदर्शों में भी देखी जा सकती है। गाँधी ने राजनीति में नैतिकता को जोड़ा, उन्होंने कहा कि राजनीति यदि धर्म से अलग होगी तो वह पतन की ओर जाएगी। शास्त्री ने भी उसी नैतिकता को सत्ता के उच्चासन पर बैठकर निभाया। उनके लिए पद का आकर्षण कभी मायने नहीं रखता, उनके लिए जनता की भलाई ही असली राजनीति थी।

गाँधी और शास्त्री की मृत्यु भी उनके जीवन की तरह संदेशवाहक रही। गाँधी का जाना उस महात्मा का जाना था जिसने अपने सत्य के लिए अंतिम क्षण तक प्राण दिए। शास्त्री का ताशकंद में निधन उस नेता का जाना था जिसने देश को एकता और आत्मबल का नया मन्त्र दिया। दोनों ही अपने अंत के बाद भी अमर हो गए क्योंकि उनका जीवन केवल व्यक्तित्व नहीं था, वह एक मूल्य था, एक आदर्श था, एक सतत प्रवाह था।

इन दोनों की समकालीनता को यदि गहराई से देखें तो यह स्पष्ट होता है कि गाँधी और शास्त्री ने भारत को केवल राजनीतिक दृष्टि से ही नहीं बल्कि नैतिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी दिशा दी। उन्होंने यह सिखाया कि राष्ट्र केवल अर्थव्यवस्था और राजनीति से नहीं बनता, वह त्याग, नैतिकता और श्रम से बनता है।

गाँधी की कर्मदृष्टि व शास्त्री के ‘जय जवान, जय किसान’ का मिलन भारतीय जीवन का सम्पूर्ण दर्शन प्रस्तुत करता है। गाँधी की दृष्टि राष्ट्र की आत्मनिर्भरता और श्रम का प्रतीक है और शास्त्री का ‘जय जवान, जय किसान’ राष्ट्र की सुरक्षा और अन्नदाता का। इन दोनों का संगम भारतीय जीवन की रीढ़ है।

गाँधी और शास्त्री की समकालीनता केवल विचारों में ही नहीं बल्कि जीवन की संपूर्णता में है। वे भले ही अलग समय में सक्रिय रहे हों किंतु उनके विचार और जीवन-शैली एक-दूसरे को पूर्ण करते हैं। गाँधी ने स्वतंत्र भारत का स्वप्न देखा और शास्त्री ने उसे यथार्थ के धरातल पर खड़ा किया। गाँधी ने आत्मा को स्वतंत्र किया और शास्त्री ने राष्ट्र को आत्मनिर्भर बनाया।

गाँधी और शास्त्री भारतीय राजनीति के दो ऐसे सूर्योदय हैं, जिनकी रोशनी आज भी भारतीय जीवन को आलोकित करती है। उनकी समकालीनता यह बताती है कि समय बदलता है, परिस्थितियाँ बदलती हैं किंतु मूल्य और आदर्श यदि सच्चे हों तो वे हर युग में प्रासंगिक रहते हैं। गाँधी और शास्त्री का जीवन इस शाश्वत सत्य का सबसे सुंदर उदाहरण है।

विश्व की अद्यतन राजनीतिक व साहित्यिक दृष्टियों से गाँधी के विचारों व प्रभाव का मूल्यांकन करना आज विशेष अर्थ रखता है क्योंकि हम ऐसे समय से गुज़र रहे हैं जहाँ लोकतंत्र, शिक्षा, पर्यावरण, मानवीयता और सामाजिक न्याय जैसे मूल्यों पर नई चुनौतियाँ और नई उम्मीदें दोनों हैं। गाँधी की राजनीतिक व वैचारिक धरोहर आज भी विश्व के सार्वजनिक विमर्श में एक स्थायी धुँधली-लेकिन स्पष्ट किरण की तरह चमकती है। जहाँ-जहाँ हिंसा, असमानता, जाति-धर्म के विभाजन, आर्थिक शोषण और पर्यावरणीय संकट गहराते हैं, वहाँ-वहाँ गाँधी के सत्याग्रह, अहिंसा, स्वराज्य, सरवादया (सबका उत्थान) और प्राकृतिक संतुलन की बातें दोबारा उठ खड़ी होती हैं। विश्व राजनीति में जब लोकतंत्र के मूलभूत तर्कों—मनुष्यता, सहिष्णुता आदि—पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं, गाँधी का जीवन यह स्मरण कराता है कि राजनीति सिर्फ शक्ति-व्यवस्था नहीं बल्कि नैतिकता और सेवाभाव भी है।

वर्तमान वैश्विक संकटों—जलवायु परिवर्तन, जल संकट, जैव विविधता का विनाश, प्राकृतिक आपदाएँ—गाँधी की “हिंद स्वराज” जैसी रचनाएँ पुनरवलोकन के लिए प्रेरित करती हैं, जहाँ उन्होंने पश्चिमी औद्योगीकरण पर सावधानियाँ जताईं थीं और विकास की उस धारणा को प्रश्न में खड़ा किया था जो केवल भौतिक वृद्धि तक सीमित हो। आज जब वैश्विक तापमान बढ़ रहा है और प्राकृतिक संसाधन सीमित हो रहे हैं तो गाँधी का पर्यावरण-नैतिक दृष्टिकोण, “कम उपभोग, सरल जीवन, प्राकृतिक संतुलन” जैसे आदर्श, अधिक सार्थक प्रतीत होते हैं।

राजनीतिक प्रणाली में, जब लोगों का विश्वास संस्थाओं पर कम हो रहा है और भ्रष्टाचार व सत्ता के केंद्रीकरण की शिकायतें अधिक हो रही हैं, गाँधी का विकेंद्रीकरण (decentralization), ग्राम स्वराज्य, लोक भागीदारी, न्याय व समानता की मांग प्रासंगिक बने रहते हैं। विश्व के ऐसे देश जहाँ भ्रष्टाचार और आर्थिक असमानता बढ़ी हुई है, वहाँ गाँधी की नैतिक नेतृत्व की अवधारणा यह सिखाती है कि नेतृत्व केवल निर्णय लेने वालों का अधिकार नहीं बल्कि सेवा और उत्तरदायित्व का बोझ भी है।

साहित्यिक दृष्टि से भी गाँधी की मिथकीय छवि, उनके लेखन और वक्तृत्व, न केवल जीवनी साहित्य का हिस्सा बने हैं बल्कि मूल साहित्यिक विमर्श में उनके विचार विमर्शों की उपस्थापना होती है। आधुनिक उपन्यासों, निबंधों, कविताओं और गैर-कथा साहित्य में गाँधी का चरित्र नायकों या विरोधियों दोनों रूपों में प्रकट होता है: नायक के रूप में उनके त्याग, संघर्ष, मानवीयता के रूप में; विरोधी दृष्टिकोण से उनके विचारों की सीमाएँ, जैसे-जाति पर उनका व्यवहार, महिलाओं की भूमिका, आधुनिक आर्थिक दृष्टिकोण आदि, पर बहस होती है। उदाहरणत: रामचन्द्र गुहा की जीवनी-रचनाएँ गाँधी की त्रुटियों और उनकी मानवता दोनों को समाहित करती हैं।

हालाँकि, दुनिया बदल चुकी है और कुछ आदर्श आज पूरी तरह से लागू करना कठिन हुआ है। उदाहरणत: अहिंसा का सिद्धांत जब आतंकवाद, उग्रवाद, आधुनिक युद्ध तकनीकों और साइबर संघर्षों के बीच आता है, तो प्रतिकार के सवाल खड़े होते हैं। गाँधी ने जाति व्यवस्था की आलोचना की थी लेकिन उनकी शुरुआती सोच में जाति और वर्ण व्यवस्था के बारे में कुछ ऐसे तत्त्व भी मिले हैं जिन पर आधुनिक सामाजिक न्यायवादी आँख सिकुड़ा लें। कुछ आलोचक कहते हैं कि गाँधी की नारीवाद संबंधी दृष्टि आज की लैंगिक समानता की अपेक्षाओं से पिछड़ी है। आर्थिक दृष्टिकोण में उनके आत्मनिर्भरता और स्वदेशी के दर्शन आधुनिक वैश्विक व्यापार और वैश्विक आर्थिक निर्भरता के मौजूदा ढाँचे में बहुत सी चुनौतियों से घिरे हैं।

विश्व राजनीति में जहाँ “रियलपॉलिटिक” – शक्ति, राष्ट्रीय सुरक्षा, आर्थिक आत्मरक्षा – अधिक दबदबा बनाती है, गाँधी का वैधानिक या “शक्ति के विरुद्ध शक्ति का अहिंसात्मक संघर्ष” कुछ लोगों को आदर्शवादी लग सकता है पर यही वह आदर्श है जो साहित्य, कला, शिक्षा और नागरिक समाज में प्रेरणा का स्रोत है। जब असमानता, उपभोगवाद, उपभोक्ता संस्कृति और संसाधन-उत्खनन के बीच मानव-मूल्य धुँधले पड़ जाएँ, तब गाँधी के विचार फिर से प्रकाश फैलाते हैं।

विश्व साहित्य तथा वैश्विक चिंतन में गाँधी का स्थान शायद अब नायक-दर्शन के रूप में नारकीय न हो लेकिन प्रेरक विचार, आलोचनात्मक प्रतिबिंब और संवाद की चेतना के रूप में निश्चित है। युवा लेखकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, पर्यावरणविदों और मानवाधिकारों के लिए गाँधी का विचार आज प्रयोगशाला की तरह है, जहाँ उनके सिद्धांतों की प्रासंगिकता को परीक्षणों के माध्यम से देखा जा रहा है।

अद्यतन राजनीतिक दृष्टि से गाँधी की वैचारिकता एक तरह से चेतावनी-निवेदन है: यदि सामूहिकता, सत्य-निष्ठा, अहिंसा, नैतिक राजनीति, स्वावलंबन और प्रकृति-अनुरक्ति को नहीं अपनाया गया, तो सत्ता, विभाजन और उपभोगवाद हमें मानवता के ऐसे संकट की ओर ले जाएंगे जहाँ मूल्य विकृति और जीवन की असमर्थता होगी। साहित्य की दृष्टि से गाँधी अधूरा नहीं है, बल्कि एक ऐसा प्रणेता है जो वर्तमान के लेखों, कविताओं, आलोचनाओं में प्रवेश करता है और भविष्य के लिए दिशा देता है।

गाँधी और शास्त्री की समकालीनता को यदि सांस्कृतिक दृष्टि से देखा जाए तो यह केवल राजनीति तक सीमित न होकर भारतीय जीवन-दर्शन और सांस्कृतिक अस्मिता की पुनर्स्थापना का भी प्रसंग है। दोनों ही नेताओं ने संस्कृति को ‘संकीर्ण’ परिभाषा में न रखकर जीवन की समग्रता में देखा। गांधी के लिए संस्कृति का अर्थ था– सरलता, सत्य, अहिंसा और आत्मसंयम; वहीं शास्त्री के लिए संस्कृति का अर्थ था– कर्मनिष्ठा, सादगी, लोक-आस्था और लोकभाषा की सहजता।

गाँधी ने भारतीय संस्कृति के मूल में स्थित ग्राम्य जीवन, स्वावलंबन और आत्मनिर्भरता को रखा। उन्होंने चरखे को केवल कपड़े बनाने का औजार नहीं माना, बल्कि उसे भारतीय सांस्कृतिक पुनर्जागरण का प्रतीक बना दिया। वहीं शास्त्री ने ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा देकर संस्कृति के उस गहरे लोकधर्मी पक्ष को जीवित किया, जहाँ किसान और सैनिक को राष्ट्र की आत्मा माना गया। यह दोनों दृष्टियाँ भारतीय संस्कृति की अंतर्धारा—श्रम का सम्मान और त्याग का मूल्य—को उद् घाटित करती हैं।

सांस्कृतिक दृष्टि से गाँधी का बल इस बात पर था कि भारत पश्चिमी औद्योगिक और भौतिकवादी सभ्यता की नकल न करे, बल्कि अपनी परंपराओं, नैतिक मूल्यों और अहिंसक चेतना को आधार बनाकर आगे बढ़े। उन्होंने रामराज्य को राजनीतिक आदर्श नहीं बल्कि सांस्कृतिक रूपक के रूप में प्रस्तुत किया। दूसरी ओर शास्त्री ने अपनी सांस्कृतिक जड़ों को बचाए रखते हुए आधुनिक भारत के लिए सरल और व्यावहारिक जीवन का उदाहरण रखा। वे भीड़ से अलग दिखाई नहीं देते थे, पर उनकी सादगी में भारतीय सांस्कृतिक ‘गांभीर्य’ झलकता था।

गाँधी का पूरा जीवन संस्कृति को आचरण में उतारने का यत्न था। उन्होंने भाषा, वेशभूषा, खान-पान, रहन-सहन सबमें भारतीयता को आत्मसात किया। शास्त्री भी इसी पथ के पथिक थे। साधारण वस्त्र, नम्र व्यवहार और जीवन की मर्यादा—इन सबमें भारतीय संस्कृति का आदर्श झलकता था।

इस प्रकार सांस्कृतिक मूल्यांकन से स्पष्ट होता है कि गांधी और शास्त्री की समकालीनता में भारत की आत्मा के दो छोर मिलते हैं—एक ओर वह तपस्वी आचरण जो संस्कृति को सत्य और अहिंसा में ढालता है, और दूसरी ओर वह लोकजीवन का श्रम-संस्कार जो संस्कृति को खेत, खलिहान और सीमाओं पर खड़ा करता है।

गाँधी और शास्त्री की समकालीनता को आधृत करते हुए यही कहा जा सकता है कि दोनों भारतीयता की उन दो धाराओं के प्रतिनिधि रहे, जिनमें एक ओर जीवन को आध्यात्मिकता और नैतिकता से ऊँचा उठाने का आग्रह था और दूसरी ओर व्यवहारिकता और कर्मनिष्ठा से उसे धरती से जोड़े रखने का संकल्प। गाँधी ने संस्कृति को तप और साधना की गहराई में देखा तो शास्त्री ने उसे लोकजीवन की सरलता और श्रम-सम्मान की उजली रौशनी में।

उनकी उपस्थिति हमें यह बताती है कि संस्कृति केवल ग्रंथों या अतीत के वैभव में नहीं, बल्कि रोज़मर्रा के जीवन में, सादगी के आचरण में और लोकहित की आकांक्षा में साँस लेती है। आज जब दुनिया फिर से शक्ति, हिंसा और उपभोग के दबावों से घिरी है, तब गाँधी और शास्त्री की समकालीनता हमें स्मरण कराती है कि सच्ची संस्कृति वही है, जो मनुष्य को अहिंसा, त्याग, श्रम और करुणा के मार्ग पर चलाए।

गाँधी व शास्त्री की आवाज़ें एक-दूसरे में विलीन होती सुनाई देती हैं—गाँधी का सत्याग्रह और शास्त्री का जय जवान जय किसान—दोनों मिलकर भारतीय संस्कृति के मूल मंत्र बन जाते हैं। यह समकालीनता हमें केवल अतीत की स्मृति नहीं देती बल्कि भविष्य का भी संकेत करती है, जहाँ राजनीति और संस्कृति अलग नहीं, बल्कि मनुष्य की गरिमा और लोकमंगल के लिए एकाकार हों।

गाँधी और शास्त्री की समकालीनता का उपसंहार जितना संक्षिप्त है, उतना ही अनंत भी। उनके जीवन और दृष्टियों को यदि अंतिम स्वरूप में देखा जाए तो वे हमें एक ऐसी सांस्कृतिक, राजनीतिक और मानवीय धरोहर सौंपकर गए हैं, जिसकी प्रासंगिकता हर युग में बनी रहती है।

गाँधी ने अपने तपस्वी जीवन से यह बताया कि राजनीति का सबसे बड़ा बल हथियारों में नहीं बल्कि सत्य और आत्मबल में है। उन्होंने संस्कृति को केवल सभ्यता की परिभाषा में नहीं रखा, बल्कि उसे ‘जीवन की सरलता और नैतिकता’ का पर्याय बना दिया। उनके लिए संस्कृति का अर्थ था– आत्मसंयम, करुणा और परस्पर सहजीवन। शास्त्री ने उसी संस्कृति को व्यवहारिक धरातल पर उतारा। उन्होंने सिद्ध कर दिया कि यदि राष्ट्र को सचमुच उन्नति करनी है तो किसान का हल और जवान की बंदूक, दोनों को सम्मान देना होगा। यही भारत की आत्मा है, यही उसकी सांस्कृतिक परंपरा है।

इस दृष्टि से देखें तो गाँधी और शास्त्री केवल नेता नहीं थे बल्कि भारतीय संस्कृति के दर्पण भी थे। गाँधी उस दर्पण का वह हिस्सा थे, जो आदर्श और नैतिकता की चमक से आलोकित था; शास्त्री उस हिस्से के प्रतिनिधि थे जो लोकजीवन की मेहनत, पसीने और सादगी से दीप्त था। दोनों की समकालीनता हमें यह समझाती है कि संस्कृति आकाश में टंगे किसी आदर्श का नाम नहीं, बल्कि धरती पर चलने वाली एक नैतिक पगडंडी है।

आज जब विश्व राजनीति हिंसा, उपभोग और असमानताओं की छाया में उलझी है, तब गांधी और शास्त्री की यह संयुक्त गूँज और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। यह गूँज हमें बताती है कि संस्कृति का मार्ग हिंसा और छल से नहीं, बल्कि श्रम और सत्य से ही प्रशस्त होता है।

गाँधी व शास्त्री की छवियाँ एक-दूसरे में मिल जाती हैं—गाँधी का चरखा और शास्त्री का किसान, गाँधी का सत्याग्रह और शास्त्री का सैनिक, गाँधी का आत्मसंयम और शास्त्री की सादगी—ये सब मिलकर भारतीयता की वह समग्र छवि बनाते हैं, जो विश्व को अब भी एक नई राह दिखा सकती है।

उनकी समकालीनता का अर्थ यही है कि समय चाहे जितना बदल जाए, मनुष्य की गरिमा, श्रम का सम्मान और सत्य का मूल्य कभी नहीं बदलता। यही वह उपसंहार है, जो गाँधी और शास्त्री मिलकर हमें सौंपते हैं—एक ऐसा जीवन-दर्शन, जहाँ संस्कृति केवल स्मृति नहीं बल्कि भविष्य की दिशा बन जाती है।


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