— राकेश अचल —
दुनिया का सबसे बड़ा गैर-सरकारी संगठन आर एस एस बीते सौ साल में बिल्कुल बदल गया है. एक जमाना था जब आर एस एस ‘मनी नहीं मैन चाहिए’ का संकल्प लेकर आगे बढ रहा था.आज ठीक इसके विपरीत संघ का अघोषित नारा है -‘ मैन नहीं मनी चाहिए ‘,.
मुमकिन है कि आपने कभी किसी स्वयंसेवक को चंदा मांगते न देखा हो क्योंकि दावा किया जाता है कि संघ चंदा लेता ही नहीं. आप सोचेंगे कि अब संघ चंदा नहीं लेता तो चलता कैसे है ? आपका सवाल सही है. संघ सचमुच चंदा नही लेता. संघ ने चंदे का नाम ही बदलकर गुरूदक्षिणा रख दिया है. संघ गुरु दक्षिणा लेता है और डंके की चोट लेता है. अब तो संघ प्रमुख बाकायदा सरकार से सुरक्षा तक लेने में संकोच नहीं करते.
एक जमाना था जब बाला साहब देवरस सर संघचालक थे. तब संघ के पास सचमुच पैसों की तंगी होती थी. यहाँ तक कि पथसंचलन के लिए वाद्य यंत्रों या बैंड का इंतजाम नहीं हो पाता था. तब देवरस के साथ-साथ बाबा साहब आप्टे, दादा राव परमार्थ और कृष्णराव मुहर्रिर बकाया गुरु दक्षिणा वसूल करने मीलों पैदल स्वयंसेवक के घर चले जाते थे.के आर मलकानी की किताब ‘द आरएसएस स्टोरी’ में ऐसे अनेक किस्से दर्ज हैं.
संघ को दान देने वालों की कमी न कल थी, न आज है.बहुत पहले मदन मोहन मालवीय एक बार डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार से मिलने नागपुर आए. मोहिते वाडा की हालत देखकर उन्होंने कहा भी कि क्या संघ के लिए धन जुटाने में कुछ सहायता की जाए? लेकिन डॉ हेडगेवार ने ये कहकर मना कर दिया कि हमें मनी नहीं मैन चाहिए, कहा जाता है कि संघ ने शुरूआती दिनों से ही ये नियम बना लिया है कि संघ किसी से दान या चंदा नहीं लेगा, बल्कि उसके खुद के स्वयंसेवक ही अपने मन से जो भी श्रद्धा होगी, गुप्त रूप से हर साल गुरुदक्षिणा के दौर पर देंगे.
लेकिन बाद में परिदृश्य बदला. आजादी के बाद जो राजे – रजवाड़े कांग्रेस के साथ गये थे वे बाद में न केवल संघ के साथ जुडे बल्कि उन्होने संघ द्वारा स्थापित राजनीतिक दल जनसंघ को अपना भरपूर समर्थन दिया. गुरु दक्षिणा तो उस सहयोग के सामने नगण्य थी. ग्वालियर के सिंधिया राजघराने की त्कालीन प्रमुख राजमाता विजया राजे सिंधिया इसका सबसे बडा उदाहरण है.
हेडगेवार और देवरस के संघ में और डॉ मोहन भागवत के संघ में जमीन आसमान का फर्क है.चूंकि संघ एक अपंजीकृत संगठन है इसलिए उसके आय व्यय का कोई लेखा परीक्षण नही होता, इसलिए संघ की संपत्ति का ठीक ठीक आंकडा देना मुमकिन नहीं है. फिर भी संघ के जिला और संभाग कार्यालयों को देखकर आप अनुमान लगा सकते हैं कि संघ के पास कितनी संपत्ति मौजूद है. संघ ने जितनी गुरु दक्षिणा पिछले ग्यारह साल में अर्जित की है उतनी उसे पहलेकभी नहीं मिली.
ये सच है कि डॉ. हेडगेवार की एक सोच थी कि संघ किसी व्यक्ति पर निर्भर ना रहे, वैयक्तिक सोच का शिकार ना हो, बल्कि हजारों साल से इस देश की जो सनातनी परम्पराएं चली आ रही हैं, उसी के आधार पर आगे बढ़े. लेकिन कोई भी संगठन धन के बिना तो चल नहीं सकता, और चंदा मांगने जाओ तो लोग बिना जाने बूझे उन पर आरोप भी लगाते हैं कि धन का सही उपयोग किया भी कि व्यक्तिगत लाभ में लगा दिया?! ऐसे में तमाम तरह की चर्चाएं संघ में हुईं कि कैसे धन इकट्ठा करने की कोई ऐसी प्रक्रिया अपनाई जाए, जो सैकड़ों साल बाद भी पारदर्शी होकर भी अपारदर्शी है. अब उस पर उंगलियां उठने लगी हैं.,अब संघ सत्ता आश्रित हो गया है.
1925 में स्थापना होने के 3 साल बीत गए थे, धन की आवश्यकता पड़ने पर कुछ लोगों से आर्थिक सहायता ली जा रही थी. लेकिन अब नई व्यवस्था लानी थी, कुछ साथियों ने सुझाव दिया कि लॉटरी सिस्टम से धन इकट्ठा किया जाए, तो किसी ने कहा धन इकट्ठा करने के लिए ड्रामा टिकट्स बेची जानी चाहिए. ऐसे में एक विचार उठा कि क्यों ना जो इसके स्वयंसेवक हैं, वही धन दें और बाहर से धन लिया ही ना जाए. ये धन गुप्त तरीके से लिफाफे में लिया जाए ताकि गरीब, इसके स्वयंसेवक हैं, वही धन दें और बाहर से धन लिया ही ना जाए. ये धन गुप्त तरीके से लिफाफे में लिया जाए ताकि गरीब, अमीर सब बराबर रहें.
संघ में लिफाफा संस्कृति के जनक वास्तव में डॉ हेडगेवार ही हैं.1928 में गुरु पूर्णिमा के दिन डॉ. हेडगेवार ने नागपुर के सभी स्वयंसेवकों से गुरु पूर्णिमा के दिन, शाखा में गुरु पूर्णिमा उत्सव के लिए कुछ फूल और श्रद्धानुसार गुरुदक्षिणा लिफाफे में लाने के लिए कहा. स्वयंसेवक इस बात से हैरान थे कि गुरुदक्षिणा अर्पित किसको करेंगे, फूल किसको चढ़ाएंगे? मन में था कि या तो डॉ हेडगेवार खुद होंगे या अन्ना सोहानी (प्रशिक्षण प्रमुख)? लेकिन जब सभी लोग शाखा में जमा हुए, तब उनको भगवा ध्वज पर फूल चढ़ाने व गुरुदक्षिणा अर्पित करने को कहा गया.ये पहला गुरूदक्षिणा उत्सव था और इसमें कुल 84 रुपये 50 पैसे की गुरुदक्षिणा आई.
संघ का दावा है कि अभी भी संघ गुरुदक्षिणा के बजट से ही चलता है. सैकड़ों प्रचारकों और कार्यालयों का खर्च उसके स्वयंसेवकों के ही धन से चलता है. कभी आपको संघ का स्वयंसेवक, अपने संगठन के लिए चंदा मांगता नजर नहीं आएगा और ऐसे-ऐसे लोग गुरुदक्षिणा देते आए हैं, जिनके नाम चौंकाते हैं. गुरुदक्षिणा देने वालों की संख्या का अंदाजा आप इंडियन एक्सप्रेस की इसी खबर से लगा सकते हैं कि 2017 में केवल दिल्ली के ही 95 हजार लोगों ने गुरुदक्षिणा दी थी.
मैने संघ की ओर से नियुक्त किए जाने वाले संगठन महामंत्रियों को मप्र में मंत्रियों से लिफाफों की जगह थैलियां लेते देखा है. मप्र में एक संगठन मंत्री तो बाकायदा ग्वालियर में परिवहन आयुक्त कार्यालय से वसूली के लिए सूटकेश लेकर आते थे. वे इसे संघ के लिए माखन-मिश्री कहते थे. इस गुरुदक्षिणा पर मप्र के मौजूदा मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव ने रोक लगाई. बहरहाल अब पहले वाला संघ नही है. संघ जैसा है उसे वैसा ही स्वीकार करना पडेगा.संघ की खुशकिस्मती है कि अब तक उसकी लिफाफा संस्कृति किसी जांच के दायरे मेँ नही आई है. मै भी संघ को भ्रष्ट कहाँ कह रहा हूँ. संघ एक ईमानदार अपंजीकृत स्वयंसेवी संस्था है.
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