आचार्य रामचंद्र शुक्ल – परिचय दास

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Acharya Ramchandra Shukla

Parichay Das

।। एक।।

चार्य रामचन्द्र शुक्ल हिन्दी आलोचना के उस स्वर्णिम शिखर पर प्रतिष्ठित हैं जहाँ विचार, संवेदना और जीवन-दृष्टि का ऐसा संगम दिखाई देता है जो अन्य आलोचकों में दुर्लभ है। वे केवल साहित्य के पंडित नहीं, बल्कि जीवन के सहृदय द्रष्टा हैं। हिन्दी आलोचना का जो रूप उनसे पहले था, वह या तो रसशास्त्रीय था, या भाववाद में खोया हुआ। परन्तु शुक्ल ने आलोचना को विचार का अनुशासन दिया। उन्होंने कविता को केवल ‘मनोरंजन का साधन’ नहीं, ‘जीवन-संवेदना का दर्पण’ माना। यही उनका सबसे बड़ा अंतर है — उन्होंने कविता को रस की नहीं, रस के भीतर छिपे जीवन-सत्य की कसौटी पर परखा।

शुक्ल के यहाँ आलोचना किसी अमूर्त तर्क की बौद्धिक कसरत नहीं, बल्कि अनुभूति का रूपान्तर है। उन्होंने लिखा कि “काव्य का उद्देश्य हृदय की उदात्त प्रवृत्तियों को जाग्रत करना है।” इस एक वाक्य में उनका समूचा आलोचना-दर्शन निहित है। जब अन्य आलोचक शब्दों की सुन्दरता और अलंकारों की शोभा में उलझे रहे, शुक्ल ने कविता में ‘हृदय की गति’ खोजी। वे मानते थे कि शब्द तभी सजीव हैं जब उनमें किसी मानव-सत्य की धड़कन हो। उन्होंने कविता को ‘हृदय के इतिहास’ के रूप में देखा, और यही दृष्टि उन्हें अन्य आलोचकों से पृथक करती है।

जहाँ किसी-किसी आलोचक के यहाँ कविता केवल ‘कवि का आत्मानुभव’ है, वहाँ शुक्ल के लिए कविता ‘समष्टि का अनुभव’ बन जाती है। वे कहते हैं — “काव्य समाज की चेतना का रूप है।” यह बात जितनी सरल लगती है, उतनी ही गहरी है। शुक्ल के आलोचनात्मक चिंतन में व्यक्ति और समाज के बीच कोई विभाजन नहीं। वे कवि को सामाजिक चेतना का वाहक मानते हैं। यही कारण है कि उन्होंने तुलसीदास, सूरदास, कबीर, जायसी जैसे कवियों को केवल भक्ति की दृष्टि से नहीं, बल्कि सामाजिक भावभूमि पर परखा। उनके लिए तुलसी की रामकथा ‘भक्ति की नहीं, जनजीवन की कथा’ थी।

अन्य आलोचक किसी कवि की महानता उसकी भाषा या कल्पना में खोजते हैं, पर शुक्ल ने उसकी महानता उसके ‘मानव मूल्य’ में खोजी। उनके लिए कविता का मर्म सौन्दर्य नहीं, सहानुभूति है। उन्होंने लिखा — “साहित्य का धर्म है – सहानुभूति का विस्तार।” इस सूत्र वाक्य में उन्होंने सौन्दर्य को नैतिकता से जोड़ा। इस प्रकार वे हिन्दी आलोचना में पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने ‘नैतिक सौन्दर्य’ की अवधारणा को केंद्र में रखा। वे मानते थे कि कविता मनुष्य को भीतर से ऊँचा उठाती है, उसे अपने से बड़ा बनाती है।

शुक्ल की आलोचना की एक और विशेषता है — उनका ऐतिहासिक दृष्टिकोण। उन्होंने साहित्य को युगों के प्रवाह में देखा। ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ केवल कवियों की सूची नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक नदी का मानचित्र है। अन्य आलोचक किसी युग को किसी कवि के नाम से पहचानते हैं, पर शुक्ल ने प्रत्येक युग की ‘जीवनी शक्ति’ को उसके सामाजिक संदर्भों में पहचाना। वे इतिहास को केवल ‘घटनाक्रम’ नहीं, ‘संवेदनाक्रम’ मानते थे। यह दृष्टि उन्हें एक साथ दार्शनिक और समाजशास्त्री आलोचक बनाती है।

उनकी भाषा स्वयं एक कला है। उनमें आलोचना शुष्क नहीं, रसपूर्ण है। वे गद्य में काव्य का प्रवाह भर देते हैं। उनका वाक्य कभी शांत जल की तरह बहता है, कभी विचार के झरने की तरह छलकता है। जब वे कहते हैं — “हृदय की तरलता और विचार की दृढ़ता — यही साहित्य का प्राण है,” तो यह केवल विचार नहीं, एक गद्यकविता है। यह गद्य, जिसमें विचार का अनुशासन और भाव का संगीत साथ-साथ चलते हैं, उन्हें ‘काव्य-गद्य’ का प्रणेता बनाता है।

शुक्ल की आलोचना का गत्यात्मक तत्व भी अद्भुत है। वे स्थिर विचारक नहीं, प्रवहमान मन हैं। उनकी दृष्टि एक सतत यात्रा करती है — भक्ति से लोक तक, भावना से विचार तक, कवि से समाज तक। इस यात्रा में वे न तो किसी मत के बंधन में पड़ते हैं, न किसी पूर्वग्रह में। वे तुलसी और कबीर दोनों को एक ही ‘मानव-मूल्य’ के दो रूप मानते हैं। वे जहाँ तुलसी में ‘मर्यादा’ देखते हैं, वहीं कबीर में ‘स्वतंत्रता’। यह संतुलन उन्हें किसी भी अन्य आलोचक से अधिक व्यापक और उदार बनाता है।

शुक्ल ने कविता को जीवन से जोड़ा, और जीवन को समाज से। यही उनका स्थायी योगदान है। जहाँ अन्य आलोचक ‘कविता क्या है’ इस प्रश्न में उलझे रहे, वहाँ शुक्ल ने पूछा — “कविता क्यों है?” और इस ‘क्यों’ ने हिन्दी आलोचना को आत्मा दी। वे आलोचना को केवल मापने-तोलने की प्रक्रिया नहीं, बल्कि आत्मा की व्याख्या मानते हैं।

उनकी आलोचना में भारतीय दर्शन की गहराई और आधुनिक विवेक की स्पष्टता दोनों हैं। वे न तो परम्परा के अंध-भक्त हैं, न आधुनिकता के दास। वे कहते हैं — “साहित्य वही है जो हमारे जीवन की गहराई में उतरकर, हमारे हृदय के भीतर की तरलता को जगाए।” यह दृष्टि जितनी दार्शनिक है, उतनी ही मानवीय।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का यह समग्र व्यक्तित्व हिन्दी आलोचना में ‘आलोचक’ और ‘ऋषि’ के बीच का सेतु बनाता है। उन्होंने आलोचना को ऊँचाई दी, पर साथ ही उसे धरती पर रखा। उनकी दृष्टि में साहित्य जीवन का प्रतिरूप नहीं, जीवन का अन्वेषण है। यही कारण है कि जब हम उनके गद्य को पढ़ते हैं, तो हमें विचार से अधिक संवेदना मिलती है; और जब उनकी आलोचना सुनते हैं, तो वह एक जीवन-दर्शन की तरह लगती है, न कि किसी मत की पुनरावृत्ति।

इस प्रकार, आचार्य शुक्ल अन्य आलोचकों से इसीलिए भिन्न हैं क्योंकि उनके यहाँ आलोचना न केवल साहित्य का मूल्यांकन है, बल्कि जीवन के मूल्य का उद्घाटन भी। वे शब्दों के भीतर छिपे मनुष्य को खोजते हैं, और यह खोज ही उनकी आलोचना को जीवंत बनाती है। उनका गद्य बताता है कि विचार भी सौन्दर्य हो सकता है, और सौन्दर्य भी विचार। उनके लेखन में आलोचना, कविता का सहचर बन जाती है। यही उनकी सबसे बड़ी भिन्नता है — उन्होंने आलोचना को काव्य में रूपान्तरित कर दिया, और इसीलिए आज भी हिन्दी साहित्य में वे न केवल ‘आचार्य’ कहलाते हैं, बल्कि ‘साहित्य के महामानव’ भी।

।। दो ।।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की आलोचना-दृष्टि की विशिष्टता को सही अर्थों में तभी समझा जा सकता है जब उनकी तुलना हिन्दी के अन्य प्रमुख आलोचकों से की जाए — जैसे हजारीप्रसाद द्विवेदी, नामवर सिंह, नंददुलारे वाजपेयी, रामविलास शर्मा या आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र से। इन सबके बीच शुक्ल की आलोचना एक अलग धरातल पर खड़ी दिखाई देती है — वह भाव से अधिक विचार की, और विचार से भी अधिक जीवन की आलोचना है।

हजारीप्रसाद द्विवेदी के यहाँ आलोचना एक प्रकार की *दार्शनिक कथा* है — जहाँ वे विषय को मिथकीय और प्रतीकात्मक रूप में खोलते हैं। उनकी भाषा में रहस्य और माधुर्य है, परंतु शुक्ल की भाषा में एक नैतिक कठोरता और वैचारिक स्पष्टता है। द्विवेदी के यहाँ आलोचना सुषुप्त जल की तरह गहराई में उतरती है, जबकि शुक्ल के यहाँ वह लहर बनकर सामाजिक किनारों को छूती है। द्विवेदी जीवन के भीतर के सौन्दर्य को खोजते हैं, पर शुक्ल समाज के भीतर के मूल्य को।

नंददुलारे वाजपेयी की आलोचना अधिकतर *रस-संवेदनात्मक* है — वे साहित्य को कलात्मक और सौन्दर्यपरक दृष्टि से देखते हैं। उनके लिए कविता का मूल्य भाषा और रूप की दृष्टि से है। जबकि शुक्ल का आग्रह यह है कि कविता का मूल्य उसकी *मानवता और नैतिकता* में है। शुक्ल ने कहा था कि “कला का सर्वोच्च लक्ष्य हृदय की उदात्तता है।” इस दृष्टि से वे सौन्दर्य के भीतर नैतिक तत्व खोजते हैं, जबकि वाजपेयी सौन्दर्य को ही स्वतंत्र मानते हैं।

रामविलास शर्मा की तुलना में भी शुक्ल का स्वर भिन्न है। रामविलास ने आलोचना को *मार्क्सवादी भौतिक दृष्टि* से जोड़ा। वे समाज-राजनीति और वर्ग-संघर्ष को केन्द्र में रखते हैं। शुक्ल का समाजशास्त्र नैतिक और मानवीय है, न कि राजनीतिक। उन्होंने कवि को समाज के भीतर रखा, पर समाज की परतों को नैतिक मूल्यों के आधार पर परखा। इस प्रकार जहाँ रामविलास का विवेचन ऐतिहासिक भौतिकता का अध्ययन है, वहीं शुक्ल का इतिहास *मानव-भावना की विकासयात्रा* है।

नामवर सिंह आलोचना को *संरचना और भाषा के विवेक* से जोड़ते हैं। उनके यहाँ भाषा, पाठ और व्याख्या का सौन्दर्य प्रमुख है। वे आलोचना को पाठ के भीतर से पढ़ते हैं, पर शुक्ल कविता को पाठ से आगे — जीवन की ज़मीन पर पढ़ते हैं। नामवर के यहाँ आलोचना बौद्धिक प्रयोग है, शुक्ल के यहाँ नैतिक साधना। नामवर कहते हैं कि “कविता की व्याख्या उसके रूप में है,” जबकि शुक्ल कहते हैं “कविता की व्याख्या उसके उद्देश्य में है।”

विश्वनाथ प्रसाद मिश्र जैसे आलोचक भाव और रूप के संतुलन में विश्वास रखते हैं, पर वे भी ‘जीवन के संघर्ष’ को आलोचना का केन्द्र नहीं बनाते। शुक्ल की दृष्टि यहाँ भी भिन्न है — उन्होंने कहा कि “कविता का मूल भाव जीवन का उल्लास नहीं, जीवन का संघर्ष है।” यह संघर्ष ही उन्हें सामाजिक संवेदना का आलोचक बनाता है।

यदि हम भारतीय परम्परा के पूर्ववर्ती रस-आलोचकों से तुलना करें — जैसे आचार्य मम्मट, विश्वनाथ या पंडित जगन्नाथ — तो शुक्ल का रुख वहाँ भी मौलिक है। उन्होंने ‘रस’ को मानव-हृदय के भीतर के नैतिक अनुभव के रूप में रूपान्तरित किया। उन्होंने कहा कि “रस का अर्थ केवल आनन्द नहीं, बल्कि जीवन के सत्य की अनुभूति है।” इस प्रकार उन्होंने प्राचीन सौन्दर्यशास्त्र को आधुनिक मानवीय चेतना से जोड़ा।

शुक्ल का दृष्टिकोण इस तरह से *अंतःकरण और विवेक* का संगम है। जहाँ हजारीप्रसाद द्विवेदी सौन्दर्य के रहस्य को खोजते हैं, नामवर संरचना की परतों को, और रामविलास समाज की भौतिक जड़ों को — वहीं शुक्ल हृदय की नैतिक लय को खोजते हैं। उन्होंने कविता को इस धरती से बाँधा, पर उसकी आँखें आकाश की ओर रखीं। यही उनकी आलोचना का संतुलन है — न केवल विचारशील, बल्कि संवेदनशील; न केवल विश्लेषक, बल्कि सहृदय।

शुक्ल का गद्य भी इन सब से अलग है। द्विवेदी की भाषा सजीव रूपकों की है, नामवर की विद्वता भरी, रामविलास की ऐतिहासिक विश्लेषणात्मक, पर शुक्ल की भाषा विचार और संवेदना का सहज प्रवाह है। वे विचार को गीत की तरह बहा देते हैं। ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ पढ़ते हुए लगता है जैसे कोई पुराना ऋषि युगों की कथा सुनाता हुआ मनुष्य के हृदय का इतिहास कह रहा हो।

इसलिए कहा जा सकता है कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल अन्य आलोचकों की तुलना में आलोचना को सबसे अधिक *मानवीय धरातल* पर लाते हैं। उन्होंने कविता को मनुष्य के भीतर के प्रकाश और अंधकार दोनों से जोड़ा। उनकी आलोचना में सौन्दर्य और संघर्ष, विचार और करुणा, इतिहास और संवेदना — सब साथ चलते हैं। यही समग्रता उन्हें हिन्दी आलोचना का आधार-स्तम्भ बनाती है।

जहाँ हजारीप्रसाद द्विवेदी ने आलोचना को दार्शनिक ऊँचाई दी, रामविलास ने उसे ऐतिहासिक गहराई, नामवर ने भाषा की बौद्धिक दृष्टि, वहीं शुक्ल ने उसे आत्मा दी। उन्होंने आलोचना को जीवन का आलोक बनाया — एक ऐसा आलोक जो न केवल कवि को बल्कि पाठक को भी भीतर से प्रकाशित करता है। यही कारण है कि समय बीतने के बाद भी हिन्दी आलोचना की हर दिशा जब भी अपनी जड़ खोजती है, तो वह अन्ततः आचार्य शुक्ल की ओर लौटती है — उस आलोचक की ओर, जिसने साहित्य में जीवन और जीवन में साहित्य देखा।

।। तीन।।

भारतीय भाषा-साहित्य की आलोचना परंपरा में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का स्थान अत्यंत विशिष्ट और विराट है। वे केवल हिन्दी के नहीं, सम्पूर्ण भारतीय आलोचना-परिदृश्य के ऐसे व्यक्तित्व हैं जिन्होंने साहित्य को जीवन और समाज की दृष्टि से देखने की परम्परा दी। यदि उनकी तुलना अन्य भारतीय भाषाओं के आलोचकों से की जाए — जैसे बंगला के रवीन्द्रनाथ ठाकुर और बुद्धदेव बसु, मराठी के केशवसुत और न. सी. फडके, तमिल के सुब्रमण्यम भारती, उर्दू के अल्ताफ हुसैन हाली और फारसी पृष्ठभूमि के शिबली नोमानी — तो शुक्ल की आलोचना अपने चरित्र और दृष्टि दोनों में एक अलग ध्वनि उत्पन्न करती है।

रवीन्द्रनाथ ठाकुर के यहाँ आलोचना मुख्यतः *आध्यात्मिक सौन्दर्य* की खोज है। वे कविता को मानव आत्मा की अभिव्यक्ति मानते हैं। उनके लिए कला ‘अनन्त का स्पर्श’ है। पर शुक्ल का दृष्टिकोण ज़मीन से जुड़ा हुआ है। वे कविता को समाज और जीवन की *नैतिक चेतना* का माध्यम मानते हैं। जहाँ रवीन्द्रनाथ की आलोचना ‘भावलोक’ की यात्रा है, वहाँ शुक्ल की आलोचना ‘जीवनलोक’ की। ठाकुर का सौन्दर्य आत्मा के विस्तार में है, शुक्ल का सौन्दर्य मानवता के विस्तार में।

बुद्धदेव बसु बंगला आलोचना में आधुनिकतावाद और शिल्प-बोध के प्रवर्तक थे। उन्होंने कविता को ‘कला का शुद्ध रूप’ माना, जिसमें किसी सामाजिक उद्देश्य की अपेक्षा नहीं। पर शुक्ल इससे ठीक विपरीत दिशा में खड़े हैं। वे कहते हैं कि कविता का कार्य केवल शिल्प में नहीं, बल्कि *हृदय की तरलता* और *मानव की नैतिकता* में है। उन्होंने साहित्य को समाज के भीतर एक जीवित प्रक्रिया के रूप में देखा — इसीलिए वे कला को आत्मनिष्ठ नहीं, जननिष्ठ मानते हैं।

मराठी आलोचना में न. सी. फडके और केशवसुत जैसे विचारकों ने साहित्य को आधुनिक जीवन की भावभूमि पर रखा, किन्तु उनका दृष्टिकोण मुख्यतः *भावनात्मक* था। वे कवि को एक व्यक्तिगत मन के रूप में देखते हैं। पर शुक्ल ने कवि को *समष्टि की आत्मा* का वाहक माना। उन्होंने कहा — “कवि का हृदय समाज के हृदय से अलग नहीं।” इसीलिए शुक्ल की आलोचना मराठी या बंगला आलोचना की तरह आत्मकेंद्रित नहीं, बल्कि समाजकेंद्रित है।

तमिल कवि-सुधारक सुब्रमण्यम भारती की आलोचना और रचनाएँ एक क्रांतिकारी ऊर्जा से भरी हैं। वे साहित्य को स्वतंत्रता, समानता और जागरण का उपकरण मानते हैं। इस दृष्टि से वे शुक्ल के निकट आते हैं, परन्तु भारती का आग्रह राजनीतिक है जबकि शुक्ल का नैतिक और सांस्कृतिक। भारती मनुष्य को स्वतंत्र नागरिक बनाना चाहते हैं, शुक्ल मनुष्य को उदात्त हृदय वाला प्राणी।

उर्दू आलोचना में अल्ताफ हुसैन हाली ने *“मुकद्दमा-ए-शेर-ओ-शायरी”* में जो विचार प्रस्तुत किए, वे किसी हद तक शुक्ल के समानांतर हैं। हाली ने कविता को जीवन की उपयोगिता से जोड़ा — उन्होंने कहा कि कविता का कार्य मनुष्य के नैतिक और सामाजिक गुणों को प्रोत्साहित करना है। शुक्ल भी यही कहते हैं कि “साहित्य का धर्म है — सहानुभूति का विस्तार।” पर दोनों में अंतर यह है कि हाली ने अपनी आलोचना में नैतिकता को सुधारवादी दृष्टि से देखा, जबकि शुक्ल ने उसे अस्तित्ववादी और मानवीय धरातल पर रखा। हाली का सौन्दर्य-शास्त्र धार्मिक-सामाजिक सुधार से जुड़ा है, शुक्ल का सौन्दर्य-शास्त्र मानवीय अनुभूति से।

फारसी और उर्दू परम्परा के आलोचक शिबली नोमानी ने साहित्य को धार्मिक संस्कृति के आलोक में समझने की कोशिश की। उन्होंने इतिहास और धर्म को एक साथ जोड़ा। शुक्ल का इतिहास-दर्शन भी गहरा है, लेकिन उसमें धर्म नहीं, मानवता की निरंतरता है। उन्होंने हिन्दी साहित्य का इतिहास बनाते हुए किसी सम्प्रदाय या विश्वास का नहीं, बल्कि मनुष्य की आत्मिक यात्रा का अनुशीलन किया। इस अर्थ में वे भारतीय परम्परा के पहले ऐसे आलोचक हैं जिन्होंने धर्म और जाति से ऊपर उठकर मानव सभ्यता के विकासक्रम में साहित्य को देखा।

बंगला और मराठी आलोचना के कई विचारकों की भाषा सौन्दर्यपूर्ण और भावुक है, पर शुक्ल की भाषा विचार और करुणा का अद्भुत संगम है। उनका गद्य रसपूर्ण होते हुए भी अनुशासित है। वे जब कहते हैं — “कविता मनुष्य के हृदय का इतिहास है,” तो यह वाक्य केवल एक आलोचनात्मक निष्कर्ष नहीं, बल्कि एक भावात्मक उद्घोष है। यही ‘काव्य-गद्य’ उन्हें अन्य भाषाओं के आलोचकों से अलग करता है।

भारतीय भाषाओं के अनेक आलोचक या तो कला की शुद्धता के पक्षधर रहे हैं, या समाज-सुधार की भावना से प्रेरित। पर आचार्य शुक्ल ने दोनों के बीच से होकर एक नई राह निकाली — जहाँ साहित्य समाज का दर्पण भी है और आत्मा का दीप भी। उन्होंने कला को जीवन से इस तरह जोड़ा कि न तो वह उपदेश बनी, न मनोरंजन। उन्होंने आलोचना को ऐसी संतुलित दृष्टि दी जिसमें *मानवता, विचार और संवेदना* — तीनों का सुन्दर समन्वय है।

यदि कहा जाए कि भारतीय भाषाओं में आलोचना दो ध्रुवों पर विकसित हुई — एक ओर *सौन्दर्य और शिल्प*, दूसरी ओर *नीति और समाज* — तो शुक्ल तीसरा ध्रुव हैं, जहाँ *सौन्दर्य स्वयं नैतिकता* बन जाता है। उन्होंने सौन्दर्य को जीवन की नैतिक ऊँचाई में रूपान्तरित किया। इसी कारण उनकी आलोचना किसी भाषा या प्रदेश की सीमाओं में नहीं बंधती, वह भारतीय मनीषा का सार्वभौमिक रूप ले लेती है।

इस प्रकार आचार्य रामचन्द्र शुक्ल भारतीय भाषाओं के अन्य आलोचकों की तुलना में सबसे अधिक *समन्वयकारी, संतुलित और मानवीय* आलोचक हैं। जहाँ रवीन्द्रनाथ आध्यात्मिक हैं, हाली सुधारवादी, भारती क्रांतिकारी, और बुद्धदेव बसु कलात्मक — वहाँ शुक्ल जीवनमूल्यवादी हैं। उन्होंने आलोचना को केवल विचार की नहीं, *जीवन की साधना* बना दिया। इसीलिए हिन्दी ही नहीं, सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में वे उस ‘आचार्य’ के रूप में प्रतिष्ठित हैं जिनकी दृष्टि में आलोचना भी एक *जीवंत काव्य* है — विचार का वह काव्य जो मनुष्य को उसके भीतर के सत्य से जोड़ता है।

।। चार।।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल हिन्दी आलोचना के आद्य-पुरुष माने जाते हैं, पर किसी भी महान व्यक्तित्व की तरह उनकी आलोचना-दृष्टि में भी कुछ सीमाएँ और दुर्बलताएँ हैं। उनकी कृतियाँ जितनी ऊँचाई पर हैं, उतनी ही उनमें अपने युग की सीमाएँ भी समाई हुई हैं। आलोचना के इतिहास में उनकी स्थिति ‘आधार-स्तम्भ’ की है, पर आधार होने का अर्थ पूर्णता नहीं होता। उनके कमजोर पक्षों की पहचान करने से उनका महत्त्व घटता नहीं, बल्कि और गहराई से समझ में आता है कि वे किस ऐतिहासिक और वैचारिक संदर्भ से निकले हुए आलोचक थे।

सबसे पहले, उनकी आलोचना का एक प्रमुख *सीमित पक्ष* है — **स्त्री दृष्टि का अभाव।** शुक्ल का साहित्य-दर्शन पूरी तरह पुरुष-केन्द्रित है। उन्होंने समाज और मानवता की बात की, परंतु ‘मानवता’ का अर्थ उन्होंने मुख्यतः पुरुष-मानव से लिया। उनकी आलोचनाओं में स्त्री-संवेदना, स्त्री-अनुभव या स्त्री-स्वर अनुपस्थित हैं। तुलसी, सूर, कबीर, जायसी जैसे कवियों के विवेचन में उन्होंने स्त्री को प्रतीक, पात्र या ‘सहायक तत्व’ के रूप में देखा, न कि स्वतंत्र संवेदना के रूप में। यह उस समय की सामाजिक दृष्टि का परिणाम था, पर आज के दृष्टिकोण से यह उनकी आलोचना की स्पष्ट सीमा है।

दूसरा, शुक्ल की आलोचना में *नैतिकता का आग्रह* कभी-कभी इतना प्रबल हो जाता है कि वह कला की स्वतंत्रता को बाँध देता है। उन्होंने साहित्य को ‘हृदय की उदात्त प्रवृत्तियों को जगाने वाला साधन’ कहा, लेकिन इस ‘उदात्तता’ की कसौटी अक्सर नैतिक अनुशासन से जुड़ी रही। इससे उनकी आलोचना में कभी-कभी एक **संकीर्ण नैतिक दृष्टि** उभरती है। वे उन कविताओं या कवियों से कम सहानुभूति रखते हैं जो जीवन की जटिलताओं, अंधकारों या विद्रोहों को व्यक्त करते हैं। उदाहरण के लिए, भोग, प्रेम या व्यंग्य से जुड़े रचनाकारों के प्रति उनका दृष्टिकोण अपेक्षाकृत कठोर रहा। इसीलिए उनकी आलोचना में सौन्दर्य की स्वच्छन्दता की जगह अक्सर नैतिक अनुशासन अधिक दिखाई देता है।

तीसरा, उनकी आलोचना का एक *दार्शनिक दोष* यह है कि उन्होंने *भावनात्मक और आध्यात्मिक गहराई* को कभी-कभी बौद्धिक तर्क से बाँधने की कोशिश की। उनके लेखन में विचार की दृढ़ता है, पर संवेदना की लय कहीं-कहीं एकरस हो जाती है। वे विश्लेषण में इतने अनुशासित हो जाते हैं कि भावनाओं का प्राकृतिक प्रवाह रुक-सा जाता है। यह उनकी आलोचना को प्रभावशाली तो बनाता है, पर ‘जीवंत’ नहीं।

चौथा, शुक्ल की दृष्टि *मार्क्सवादी या भौतिक विश्लेषणात्मक दृष्टि* से पूर्व की है। इसलिए उनका समाजशास्त्र नैतिक और सांस्कृतिक धरातल पर तो गहरा है, पर आर्थिक और वर्गीय दृष्टि से सीमित। वे समाज को नैतिक चेतना के स्तर पर देखते हैं, पर सामाजिक विषमता, शोषण या वर्ग-संघर्ष के प्रश्नों को आलोचना में उतनी महत्ता नहीं देते। उनके समाज-दर्शन में किसान, श्रमिक या दलित की उपस्थिति नहीं मिलती। वे ‘समाज’ को एक समरूप इकाई मानते हैं, जिसमें विभाजन और संघर्ष की जगह नहीं है।

पाँचवाँ, उनके आलोचनात्मक निर्णयों में कभी-कभी **पूर्वग्रह और निर्णायकता की कठोरता** दिखाई देती है। वे अपने मूल्य-निर्धारण में इतने दृढ़ हैं कि किसी कवि या कृति के प्रति उनकी राय एक बार बन जाने पर उसमें परिवर्तन की गुंजाइश नहीं रहती। उदाहरण के लिए, उन्होंने रीतिकालीन कविता को लगभग सम्पूर्ण रूप से नकार दिया। जबकि बाद में हजारीप्रसाद द्विवेदी, विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, नामवर सिंह आदि आलोचकों ने उसी रीतिकाल में सौन्दर्य, कला और भाषा की समृद्ध परंपरा खोजी। शुक्ल के इस *एकरेखीय मूल्यांकन* ने हिन्दी आलोचना में एक लंबे समय तक रीतिकाल के प्रति उपेक्षा की प्रवृत्ति पैदा की।

छठा, उनकी आलोचना का एक *आदर्शवादी पक्ष* भी कमजोरी बन जाता है। वे साहित्य को यथार्थ से अधिक ‘आदर्श’ के रूप में देखते हैं। उन्होंने कहा कि “साहित्य का धर्म है – उदात्त प्रवृत्तियों का जागरण,” पर इस उदात्तता की खोज में उन्होंने यथार्थ की जटिलता को कई बार सरल कर दिया। मनुष्य केवल उदात्त नहीं होता, वह विरोधाभासी भी होता है, वह करुणा और हिंसा दोनों का पात्र है। शुक्ल का साहित्य-दर्शन इस द्वंद्व को समेट नहीं पाता।

सातवाँ, उनकी भाषा और शैली भले ही गद्य-काव्य की तरह मोहक हो, पर कहीं-कहीं **अत्यधिक गम्भीर और शास्त्रीय** हो जाती है। उनके वाक्य विन्यास और तर्क संरचना इतनी विचारपूर्ण होती है कि सामान्य पाठक के लिए वह दुरूह हो जाती है। इस कारण उनकी आलोचना जनपक्षधर होते हुए भी ‘जनसुलभ’ नहीं हो पाती।

आठवाँ, शुक्ल का *अंतर्ज्ञानात्मक दृष्टिकोण* साहित्य की आधुनिक विधाओं के लिए अपर्याप्त सिद्ध हुआ। कहानी, नाटक, उपन्यास जैसे विधाओं पर उन्होंने बहुत कम लिखा। उनका पूरा साहित्यिक परिदृश्य मुख्यतः कविता-केन्द्रित है। आधुनिक मनोवैज्ञानिक और भाषिक आलोचना के लिए उनकी दृष्टि उतनी उपयोगी नहीं ठहरती।

फिर भी, यह स्मरणीय है कि ये सीमाएँ उनके युग और पृष्ठभूमि की देन हैं, न कि उनके व्यक्तित्व की कमजोरी मात्र। उन्होंने जिस ऐतिहासिक क्षण में हिन्दी आलोचना को रूप दिया, उस समय आलोचना को दिशा देना ही सबसे बड़ी उपलब्धि थी। उनके द्वारा गढ़े गए मूल्य आज भले पुनर्विचार की माँग करते हों, पर वे भारतीय साहित्यिक चेतना के नैतिक आधार बने रहे हैं।

अतः कहा जा सकता है कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की आलोचना में स्त्री-दृष्टि का अभाव, नैतिक आग्रह की कठोरता, यथार्थ के जटिल पक्षों की अनदेखी, वर्गीय दृष्टि की अनुपस्थिति और रीतिकाल के प्रति पूर्वग्रह जैसी सीमाएँ हैं। परन्तु इन सीमाओं के बावजूद उनकी आलोचना भारतीय मनीषा की एक ऐसी नींव है, जिस पर आगे की सारी आलोचना परम्परा टिकी हुई है। उनके कमजोर पक्ष भी उसी आलोक में दिखाई देते हैं, जिस आलोक को उन्होंने स्वयं अपने गद्य और विचार से हिन्दी आलोचना को दिया था।

।। पाँच।।

रामचन्द्र शुक्ल का आलोचनात्मक व्यक्तित्व जितना विराट है, उतना ही उसमें विरोधाभासों का एक सौम्य संगीत भी सुनाई देता है। वे हिन्दी आलोचना के प्रथम महान स्थापत्यकार थे, जिन्होंने न केवल आलोचना की भाषा गढ़ी, बल्कि उसके बौद्धिक अनुशासन का प्रारूप भी निर्मित किया। परन्तु जैसे प्रत्येक सृजन में कुछ अपूर्णता शेष रह जाती है, वैसे ही शुक्ल के भीतर भी कुछ ऐसी सीमाएँ थीं जो उनके युग और दृष्टि की उपज थीं। उनके द्वारा रचित ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ आज भी मानक ग्रन्थ है, किन्तु उसमें शुक्ल की विचारधारा ने कई बार कवियों और युगों की व्याख्या को सीमित कर दिया। वे जिस लोकमानस और नैतिकता के आलोक में काव्य का मूल्यांकन करते हैं, वही दृष्टि कभी-कभी उन्हें सौन्दर्य के शुद्ध, आत्मानुभवगत पक्ष से दूर ले जाती है।

शुक्ल के यहाँ कविता का मूल्यांकन समाज के नैतिक और उपयोगी सन्दर्भों से होता है। वे ‘सुखदुःख की अनुभूति’ को काव्य का प्रधान तत्त्व मानते हैं और ‘लोकमंगल’ को उसकी आत्मा। इस दृष्टि ने हिन्दी आलोचना को एक नैतिक गम्भीरता दी, किन्तु उसी ने शुद्ध कलात्मक सौन्दर्य को कई बार गौण कर दिया। जहाँ आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी या हजारीप्रसाद द्विवेदी काव्य को संवेदना की अन्तर्ध्वनियों से देखते हैं, वहाँ शुक्ल का दृष्टिकोण अधिक समाजशास्त्रीय और नैतिक हो जाता है। उनके यहाँ कला का जो मूल्य है, वह लोकहित के अधीन होकर अपनी स्वतन्त्रता खो देता है। यह एक ऐसी स्थिति है, जहाँ ‘रस’ की अनुभूति और ‘आनन्द’ की स्वाभाविकता नैतिक उपदेश के बोझ से दब जाती है।

उनकी भाषा, यद्यपि आलंकारिक नहीं थी, पर उसमें विचार की गंभीरता और तर्क का घनत्व था। यही घनत्व कभी-कभी उनकी शैली को कठोर बना देता है। वे भावनाओं के नहीं, तर्क के कवि-समीक्षक थे। उन्होंने साहित्य को ‘मानव-मन के विकास की कथा’ कहा, पर यह विकास उनके विचार में केवल नैतिक और बौद्धिक धरातल पर घटित होता है। वे मनोवैज्ञानिक, प्रतीकात्मक या अस्तित्वगत दृष्टि से मनुष्य की खोज नहीं करते, जैसा कि बाद के आलोचकों—नामवर सिंह या रामविलास शर्मा—ने किया। वे जितने समाज के कवि हैं, उतने आत्मा के नहीं। इसलिए उनकी आलोचना में ‘काव्य का रहस्य’ तर्क के माध्यम से समझाया जाता है, न कि संवेदना के माध्यम से जिया जाता है।

उनकी ऐतिहासिकता भी कई बार यथार्थ की सीमा से बाहर चली जाती है। वे कवियों को कालानुक्रमिक रूप से समाज के विकास की रेखा में रखते हैं, पर उस समाज की विविधता, विरोधाभास और अंतर्विरोध को उतनी सूक्ष्मता से नहीं पकड़ते जितनी एक आधुनिक समाजशास्त्रीय दृष्टि पकड़ सकती है। उदाहरण के लिए, भक्ति कवियों के मूल्यांकन में वे उन्हें केवल लोकमंगल या आध्यात्मिक चेतना के वाहक के रूप में देखते हैं, न कि सत्ता-प्रतिरोध, वर्ग-संघर्ष या लैंगिक दृष्टि से। तुलसीदास, कबीर, सूर—सब उनके यहाँ नैतिक रूप से उच्च हैं, पर मनोवैज्ञानिक रूप से जटिल नहीं। यह शुक्ल की युगबद्ध दृष्टि की मर्यादा भी है और उसकी सीमा भी।

फिर भी, इस सीमितता में एक महानता छिपी है। शुक्ल ने आलोचना को ‘साहित्य के समाजशास्त्र’ के रूप में प्रतिष्ठित किया, जबकि उनके समकालीन आलोचक अधिकतर प्रभाववाद या भाववाद में रमे हुए थे। उन्होंने जिस ठोस धरातल पर हिन्दी आलोचना को खड़ा किया, वही बाद के विचारकों के लिए आधार बना। किन्तु यह भी सच है कि उन्होंने कविता को ‘मिशन’ बना दिया, ‘अनुभव’ नहीं। उनका कवि, समाज का सुधारक है; रस का साधक नहीं। उनके लिए काव्य ‘उपयोगी सौन्दर्य’ है, न कि ‘निष्काम सौन्दर्य’। इसीलिए उनकी आलोचना में कला की स्वच्छन्दता और अनुभव की रहस्यमयता का स्थान कुछ कम हो जाता है।

उनकी आलोचना में स्त्री कवियों, हाशिए के साहित्य या अल्पसंख्यक संवेदनाओं के प्रति लगभग मौन दिखाई देता है। यह मौन उनके युग की सामाजिक संरचना से उपजा, पर आज के सन्दर्भ में यह एक बड़ी कमी लगती है। शुक्ल जिस ‘लोक’ की बात करते हैं, वह एक सामान्यीकृत, आदर्शीकृत लोक है, जिसमें वर्ग, जाति, स्त्री या उपेक्षित समुदायों की विशिष्ट पीड़ा का स्वर नहीं सुनाई देता। उनकी दृष्टि व्यापक अवश्य है, पर समावेशी नहीं।

फिर भी, हिन्दी आलोचना का समूचा इतिहास इस बात का साक्षी है कि यदि शुक्ल न होते, तो उसकी वैचारिक रीढ़ कभी बन न पाती। उन्होंने शब्दों में वैचारिक गहराई का ऐसा अनुशासन डाला कि आलोचना केवल ‘कविता की व्याख्या’ नहीं रही, बल्कि वह ‘मानव चेतना के विकास का विज्ञान’ बन गई। यही कारण है कि उनकी सीमाएँ भी उनकी महानता की पृष्ठभूमि हैं। यदि वे केवल ‘रस’ के कवि होते, तो उनका विचार इतना दीर्घजीवी नहीं होता। उन्होंने विचार की भाषा में सौन्दर्य खोजने की चेष्टा की, और यहीं उनका योगदान अमर हो गया।

उनके आलोचनात्मक व्यक्तित्व को आज जब पुनः देखा जाता है, तो वह एक युग का निर्मित विधान प्रतीत होता है—जहाँ तर्क और नैतिकता ने सौन्दर्य और कल्पना से संवाद किया। यह संवाद कई बार एकालाप भी बन गया, पर उसकी निष्ठा और बौद्धिकता ने हिन्दी आलोचना को एक गौरवशाली आधार दिया। शुक्ल अपने समय की विवेकशीलता के प्रतीक थे—वे आलोचक थे जो साहित्य में ‘लोक’ को ढूँढ़ रहे थे, जबकि आने वाले आलोचक ‘स्व’ को ढूँढ़ने लगे। यही अन्तर उनके काल की गरिमा और हमारी समय की चुनौती दोनों को एक साथ स्पष्ट करता है।

रामचन्द्र शुक्ल का नाम हिन्दी आलोचना के इतिहास में उस दीपक की तरह है, जिसकी लौ में कुछ धुआँ अवश्य है, पर वही धुआँ प्रकाश को अर्थ देता है। उनके विचारों की गम्भीरता आज भी प्रेरक है, भले ही उनकी सीमाएँ हमें आगे बढ़ने की दिशा दिखाती हैं। वे आलोचना के ऐसे शिल्पकार हैं जिनके द्वारा रखी गयी ईंटें आज भी हमारे साहित्यिक भवन का आधार हैं, और जिनकी छाया में हिन्दी विचार परम्परा निरन्तर अपने नए रूपों में विकसित होती जा रही है।


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