
कभी-कभी एक शहर की सड़कों पर ऐसा सन्नाटा उतर आता है, जो केवल मौन नहीं होता — वह हमारे भीतर की टूटन का संकेत होता है। दिल्ली की वह घटना, जिसमें निर्दोष लोग अचानक बम धमाके की चपेट में आ गए, केवल एक अपराध नहीं थी, वह एक प्रश्न थी — क्या हम सचमुच मनुष्य हैं या केवल भीड़ में चलते हुए शरीर?
बम विस्फोट केवल दीवारें नहीं तोड़ता, वह मनुष्य की आत्मा को भी चीर देता है। वह हमारे भीतर के भरोसे को तोड़ता है, उस विश्वास को भी कि दुनिया में अब भी कोई सुरक्षित कोना बचा है। यह किसी एक अपराधी या किसी एक संगठन की बात नहीं है; यह मनुष्य की चेतना में फैलती हुई एक बीमारी है, एक ऐसी मानसिकता, जो जीवन को नहीं, मृत्यु को साधना मानने लगी है।
जो व्यक्ति ऐसा कुकृत्य करता है, वह पहले अपने भीतर की संवेदना को मारता है। वह धीरे-धीरे मनुष्य से मशीन बन जाता है।
उसके मन में कोई दुख, कोई करुणा, कोई संकोच नहीं रह जाता — सिर्फ एक ठंडा उद्देश्य होता है, किसी को मिटाना, कुछ दिखाना।
ऐसे लोगों के लिए हिंसा एक भाषा बन जाती है। वे दुनिया को समझाने नहीं, डराने की कोशिश करते हैं। शब्दों पर उनका विश्वास खत्म हो चुका होता है, इसलिए वे धमाके से बोलते हैं। वे नहीं जानते कि संवाद ही सभ्यता की आत्मा है — जब संवाद मर जाता है, तब संस्कृति शव बन जाती है।
वह आदमी जो विस्फोट करता है, वह पहले अपने भीतर विस्फोट कर चुका होता है। उसके भीतर इतने सालों की हताशा, घृणा और भ्रम जमा हो जाते हैं कि वे आखिर में बारूद बन जाते हैं। वह सोचता है कि दुनिया उसे नहीं समझती, इसलिए दुनिया को खत्म कर दे। पर वह यह नहीं समझता कि हर विस्फोट सबसे पहले उसके अपने मनुष्यता को नष्ट करता है।
हर अपराध के पीछे कोई विचार नहीं होता, कोई घाव होता है — और जब यह घाव बहुत गहरा हो जाता है, तो वह विकृति में बदल जाता है। कभी यह घाव समाज के उपेक्षा का होता है, कभी धर्म के नाम पर भड़काई गई नफ़रत का। इन सबके बीच पनपता है एक डर — और डर से जन्म लेता है आतंक।
आतंकी कभी ताकतवर नहीं होता, वह हमेशा डरा हुआ मनुष्य होता है। उसे डर लगता है कि उसकी पहचान मिट जाएगी, उसका विश्वास हार जाएगा। इसलिए वह विस्फोट करता है, ताकि लोग उसे याद रखें। पर जो याद रह जाती है, वह उसका नाम नहीं, उसका अपराध होता है।
हिंसा करने वाले लोग यह नहीं समझते कि विनाश किसी विचार की जीत नहीं होता। विनाश हर विचार का अंत होता है।
जो यह सोचते हैं कि धर्म, जाति या विचारधारा की रक्षा बमों से होगी, वे उस धर्म और विचार दोनों के सबसे बड़े शत्रु बन जाते हैं।
हम यह कह कर मुक्त नहीं हो सकते कि यह कुछ “दुष्ट” लोगों का काम है। वह हमारी सामूहिक चुप्पी से पनपती है।
जब हम अन्याय को देखते हैं और चुप रहते हैं, जब हम झूठ को जानते हैं और बोलते नहीं, तब हम अनजाने में उस अंधकार को जगह दे रहे होते हैं जहाँ से हिंसा जन्म लेती है।
हिंसा को रोकने के लिए सिर्फ कानून नहीं, संवेदना की शिक्षा जरूरी है। हमारे स्कूल और कॉलेज ज्ञान तो देते हैं, पर मनुष्यता नहीं सिखाते। हम धर्म पढ़ते हैं, पर करुणा भूल जाते हैं। हम राजनीति करते हैं, पर सेवा खो देते हैं।
अगर कोई व्यक्ति किसी धर्म के नाम पर हत्या करता है, तो सबसे पहले उसका धर्म ही नष्ट हो जाता है।
सच्चा धर्म जीवन को जोड़ता है,
वह किसी की सांस नहीं छीनता।
और जो राजनीति लोगों को बांट कर सत्ता पाती है,
वह शासन नहीं, विनाश का आरंभ करती है।
जो व्यक्ति विस्फोट करता है, वह पहले खुद एक शिकार होता है।
वह अपने भीतर की खाली जगह भरना चाहता है —
उसे लगता है कि किसी बड़े मकसद से जुड़कर वह महान हो जाएगा।
यही भ्रम उसे आतंक की राह पर ले जाता है।
वह सोचता है कि वह “न्याय” कर रहा है,
जबकि असल में वह केवल अपनी आत्मा से बदला ले रहा होता है।
उसकी दुनिया दो रंगों में बँट जाती है —
“हम” और “वे”।
जब कोई सोचने लगता है कि पूरी दुनिया दुश्मन है,
तो उसके पास हिंसा के अलावा कोई साधन नहीं बचता।
वह मानवीय रिश्तों की भाषा भूल जाता है।
वह प्रेम से नहीं, नफरत से पहचान बनाता है।
और जब नफरत पहचान बन जाती है, तब व्यक्ति समाप्त हो जाता है।
आज तकनीक ने सबकुछ आसान बना दिया है —
ज्ञान, संचार, विज्ञान, हथियार — सब हाथ में हैं।
पर विवेक गायब है।
विज्ञान ने हमें शक्ति दी,
पर करुणा नहीं दी।
और जब शक्ति करुणा से अलग हो जाती है,
तो वह विनाश बन जाती है।
वह मनुष्य जो विस्फोट की योजना बनाता है,
कभी किसी प्रयोगशाला में पढ़ा-लिखा छात्र रहा होगा।
कभी वह भी किसी माँ का बेटा रहा होगा,
जिसने उसे यह सिखाया था कि जीवन अमूल्य है।
पर जब समाज संवेदना से दूर हो जाता है,
तो शिक्षा भी हत्या का औजार बन जाती है।
कभी-कभी लगता है कि हमारी सभ्यता से करुणा धीरे-धीरे लुप्त हो रही है।
हम दुख देखकर भी नहीं रुकते,
खून देखकर भी खाना खा लेते हैं,
और मौत को सिर्फ “समाचार” की तरह सुनते हैं।
यही सबसे बड़ी त्रासदी है —
हम मनुष्य होकर भी दूसरों का दर्द महसूस नहीं करते।
हिंसा वहीं जन्म लेती है जहाँ करुणा मर जाती है।
और करुणा को जीवित रखने के लिए
सिर्फ प्रार्थना नहीं,
साहस चाहिए —
दूसरे के दुख को अपना मानने का साहस।
अगर हम यह सीख लें,
तो कोई भी विस्फोट हमारे भीतर नहीं हो सकता।
हर बार जब कोई बम फटता है,
तो केवल ईंटें नहीं उड़तीं,
हमारे भीतर का विश्वास भी टूटता है।
पर हमें यह भी सोचना चाहिए कि
क्या हम इस दर्द से कुछ सीख रहे हैं?
क्या हम अपने बच्चों को यह सिखा रहे हैं
कि किसी की जान लेना कोई “आदर्श” नहीं है?
दिल्ली का यह विस्फोट हमारे समय की चेतावनी है।
यह बताता है कि जब समाज में संवाद खत्म होता है,
तो बंदूक बोलती है।
जब न्याय खत्म होता है,
तो बदला शुरू होता है।
और जब करुणा खत्म होती है,
तो मनुष्य खुद अपने खिलाफ खड़ा हो जाता है।
सबसे बड़ा प्रतिरोध हिंसा के खिलाफ हिंसा नहीं है।
वह संवेदना है।
हम उस अंधेरे को केवल रोशनी से मिटा सकते हैं,
न कि दूसरे अंधेरे से।
जब हम करुणा दिखाते हैं,
तो हम अपराधी के तर्क को तोड़ देते हैं।
वह यह नहीं समझ पाता कि
जिसे वह शत्रु समझता था,
वह उसके प्रति दयालु कैसे हो सकता है।
यही करुणा मानवता की असली शक्ति है।
हमें अब यह समझना होगा कि
विस्फोट केवल किसी शहर में नहीं होते,
वे हमारे भीतर भी होते हैं।
हर बार जब हम घृणा करते हैं,
जब हम जाति या धर्म के आधार पर किसी को नीचा दिखाते हैं,
जब हम किसी झूठ को सच की तरह बोलते हैं,
तो हम अपने भीतर एक छोटा विस्फोट कर रहे होते हैं।
अगर हम सचमुच सुरक्षित समाज चाहते हैं,
तो हमें सबसे पहले अपने भीतर की हिंसा को मिटाना होगा।
हमें बच्चों को यह सिखाना होगा
कि किसी का जीवन खत्म करना “पराक्रम” नहीं,
सबसे बड़ा अपराध है।
हमें शिक्षा में फिर से करुणा, सहानुभूति और सत्य की जगह बनानी होगी।
हमें धर्म में प्रेम को वापस लाना होगा।
हमें राजनीति को सेवा में बदलना होगा।
हर हिंसा के बाद यह प्रश्न उठता है —
क्या मानवता अब भी बची है?
और हर बार उत्तर मिलता है —
हाँ, जब तक कोई रोते हुए अजनबी के आँसू पोंछता है,
जब तक कोई घायल को गोद में उठाता है,
जब तक कोई माँ अपने बेटे को देखकर कहती है,
“बेटा, किसी का दिल मत दुखाना” —
तब तक मानवता जीवित है।
दिल्ली की सड़कों पर आज भी रोशनी जलती है,
लोग अब भी एक-दूसरे की मदद करते हैं,
बच्चे अब भी मुस्कुराते हैं —
यही हमारी सबसे बड़ी जीत है।
हमें याद रखना होगा,
बम किसी विचार को नहीं,
सिर्फ दीवारों को तोड़ता है।
विचार को सृजन से ही बचाया जा सकता है।
और सृजन वहीं संभव है
जहाँ मनुष्य अभी भी प्यार करना जानता है।
अंततः यही सत्य है —
जो विस्फोट बाहर हुआ,
वह हमारी आत्मा के भीतर भी हुआ।
पर हममें अब भी वह क्षमता है
कि हम अपने भीतर के अंधकार को रोशनी में बदल दें।
क्योंकि मनुष्य की असली ताकत
उसकी करुणा में है,
उसकी हिंसा में नहीं।
और जब वह करुणा से देखना सीख जाता है,
तो दुनिया फिर से सुंदर हो जाती है —
यहाँ तक कि राख से भी फूल उगने लगते हैं।
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