‘पता है हमें ! क्यों डरता है ज़मींदार हमसे !’
माथों पर कोई बोझ नहीं बचा है
पीठ पर कोई सामान नहीं
हाथों में भी कुछ नहीं
हाथ ही नहीं हैं हमारे पास !
छीन लिए गए हैं हाथ हमारे हमसे
पहले देता था ज़मींदार
काम के बदले अनाज
अब माँगता है ‘अनाज के बदले हाथ’ !
यह जो शोर सुनाई दे रहा है हमें
हमारा बोया नहीं है
आवाज़ें हैं उन गुम कर दी गई आवाज़ों की
चीखने नहीं दिया गया जिन्हें कभी
कारवासों के भीतर भी जमींदार ने
और लिख गए थे वे अपने सारे संताप
वसीयतों में पलकों पर हमारी !
झपकाना नहीं चाहते हम पलकें अपनी
न छलकाना चाहते हैं आँसू आँखों से
बह सकती हैं इबारतें वसीयतों की उनके साथ
ताकते ही रहना है अब ज़मींदार को
ऑंखों में डालकर आँखें उसकी !
पता है हमें क्यों डरता है ज़मींदार हमसे !
हमारी आँखों से टपकते खून से
या ख़ौफ़ से कि लड़ सकते हैं पैरों से भी
मानने तैयार ही नहीं है वह
कि मान लिया है हमने कि हम हैं हीं नहीं !
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