— डॉ. सुरेश खैरनार —
वर्तमान समय में महाराष्ट्र के समाजवादी आंदोलन के आखिरी स्तंभों में से एक पन्नालाल सुराणा के चले जाने से समाजवादी आंदोलन का बहुत बड़ा नुकसान हुआ है। बचपन में ही राष्ट्र सेवा दल की शाखाओं तथा शिविरों में पन्नालाल भाऊ को देखा था। लेकिन मेरा सही परिचय 1969 में अमरावती में कॉलेज की पढ़ाई के लिए पहुँचने के बाद, कुछ ही दिनों के भीतर, एक पोस्टकार्ड से हुआ—पन्नालाल सुराणा, महाराष्ट्र संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के सचिव का आया हुआ पत्र था: “तुम्हें समय मिले तो अमरावती बस स्टैंड पर इतने-इतने बजे आना।”
उसके अनुसार मैं पहुँचा तो वह पहले से ही बेंच पर कोई किताब पढ़ते हुए बैठे थे। मेरे पहुँचने के बाद उन्होंने अपनी गोद में रखी ब्रिफकेस खोलकर सिगरेट का पैकेट निकाला और उसे खोलकर एक सिगरेट खुद निकालकर पैकेट मेरी ओर बढ़ाते हुए मुझे भी ऑफर की। मैंने कहा कि “मैं सिगरेट नहीं पीता।”
तो बोले, “संकोच मत करो, मैं भी कभी-कभार ही लेता हूँ।”
मैंने कहा कि मुझे सिगरेट अच्छी नहीं लगती, इसलिए नहीं पीता—हालाँकि मेरे कॉलेज में कई दोस्त पीते हैं, लेकिन मैं नहीं पीता।
इसी तरह भाऊ, जो मुझसे 20 साल से भी अधिक वरिष्ठ समाजवादी थे, उनके साथ सही मायनों में मेरी मुलाकातों की शुरुआत हुई—जो पचपन वर्ष से अधिक समय तक जारी रही।
आपातकाल में कई जगहों पर हम दोनों साथ ही अंडरग्राउंड रहे तथा कुछ यात्राएँ भी कीं। वह उस समय बहुत ही फैशनेबल कपड़े और गॉगल्स पहनकर घूमते थे। मैंने कहा भी कि आप अपने कपड़ों का शौक आपातकाल में पूरा कर रहे हैं। वह सिर्फ मुस्कुराकर चुप हो जाते थे। सेंसरशिप की वजह से सरकार पर टीका-टिप्पणी वाली खबरें आज की तरह ही अखबारों में छापने पर मनाही थी।
तो हम लोग कुछ बुलेटिन साइक्लोस्टाइल करने से लेकर बाँटना, और 1942 की तरह ही 1975–76 के आपातकाल के दौरान कुछ तोड़फोड़ करना—जिसे बाद में “बड़ौदा डायनामाइट” के नाम से जाना गया—इन सबको अंजाम देने के लिए मुंबई और विदर्भ में गोपनीय बैठकों से लेकर, महाराष्ट्र-आंध्र सीमा के माणिकगढ़ परिसर में मराठवाड़ा के सत्तर के दशक के भयंकर अकाल से विस्थापित मज़दूरों के आंदोलनों में शामिल होना; नर्मदा बचाओ आंदोलन से लेकर जनता पार्टी के अल्पकालीन प्रयोग और उसके बाद पुनः राष्ट्र सेवा दल तक—इन सबमें वह मेरे वरिष्ठ सहयोगी रहे।
भाऊ पन्नालाल सुराणा एकमात्र समाजवादी नेता थे जो विदर्भ में पार्टी का काम बढ़ाने के लिए बार-बार आने वाले नेता थे और कई जगहों पर मुझे भी साथ लेकर चलने का आग्रह करते थे।
उस समय मेरे पास कुछ किताबें कम्युनिस्ट विचारधारा की आलोचना वाली देखकर उन्होंने कहा था—“पहले मार्क्सवाद पढ़ो, फिर उसकी आलोचना पढ़ना।”
और इसी वजह से ही मैंने आपातकाल में प्रोफेसर पुष्पा भावे के मुंबई स्थित घर पर बड़ौदा डायनामाइट की तैयारी के लिए हुई 15 घंटे से अधिक लंबी बैठक में कहा था कि—आपातकाल का कड़ा विरोध करते हुए भी भारत में वियतनाम या चिली-क्यूबा जैसे सशस्त्र मार्ग से सरकार के खिलाफ कोई भी गतिविधि करना युद्ध-रणनीति की दृष्टि से गलत है। इस मुद्दे पर मैं आखिरी समय तक अपना पक्ष रखने में पन्नालाल जी के सहयोग से ही सफल रहा।
पन्नालाल भाऊ जब 90 के दशक में राष्ट्र सेवा दल के अध्यक्ष थे, उस समय भाई वैद्य जी के साथ हमारे कोलकाता वाले घर पर एक हफ्ते तक ठहरे रहे। दोनों मुझे आग्रह करते रहे कि अब उन्हें राष्ट्र सेवा दल के अध्यक्ष पद से हटना है, और यह जिम्मेदारी मुझे सौंपना चाहते हैं। मैंने कहा कि भागलपुर दंगों के बाद के कार्यों के कारण मैं और कोई जिम्मेदारी नहीं ले सकता। इसके लिए उन्होंने बार्शी से विनाताई सुराणा का भी फोन हमारे लैंडलाइन पर करवाकर मुझे आग्रह करने का कष्ट किया।
हालाँकि मैंने यह पद उस आग्रह के पच्चीस वर्ष बाद—जॉर्ज जेकब की तबियत खराब होने के कारण—2017 में स्वीकार किया। उस दौरान सबसे अधिक संतोष मुझे राष्ट्र सेवा दल के अध्यक्ष रहते हुए यह मिला कि लातूर-किल्लारी में 1993 में आए भूकंप में जिन बच्चों के माता-पिता की मृत्यु हो गई थी, ऐसे बच्चों के लिए उस्मानाबाद जिले के नलदुर्ग स्थित राष्ट्र सेवा दल द्वारा शुरू किए गए अनाथालय ‘आपलं घर’ को आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनाने के लिए निधि-संकलन मुख्य रूप से पन्नालाल भाऊ की अथक कोशिश से ही एक करोड़ रुपये से अधिक एकत्रित हुए। जिसे बैंक में फिक्स्ड डिपॉजिट करने के बाद उससे मिलने वाले ब्याज पर यह संस्था चल रही है। इसी जगह पर पन्नालाल भाऊ ने अपने जीवन की अंतिम साँस ली।
पन्नालाल भाऊ को भावपूर्ण श्रद्धांजलि।
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