क्रांति का बिगुल : पहली किस्त

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— अनिल सिन्हा —

ठ अगस्त, 1942 के दिन अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक ने ‘भारत छोड़ो’ के ऐतिहासिक प्रस्ताव को पारित कर दिया। मुंबई के ग्वालिया टैंक मैदान में ढाई सौ सदस्यों की इस बैठक की कार्यवाही का नतीजा देखने हजारों लोग जमा थे।

गांधी विद्रोह पर उतारू थे। उन्होंने अपने मशहूर ‘करो या मरो’ वाले भाषण में यह साफ कर दिया कि यह पहले की तरह का जेल भरो आंदोलन नहीं है और इसमें आजादी के अलावा किसी चीज पर समझौता नहीं होगा। उन्होंने कहा कि कांग्रेस देश को आजाद करेगी या खुद फना हो जाएगी। उन्होंने कहा कि स्वतंत्र भारत अपना सारा साधन स्वतंत्रता की लड़ाई और नाजीवाद, फासीवाद और साम्राज्यवाद का सामना करने में लगा देगा। गांधी ने कहा, ‘‘आजादी की घोषणा होते ही, एक अस्थायी सरकार बनायी जाएगी और भारत संयुक्त राष्ट्र संघ यानी मित्र-राष्ट्रों का सहयोगी बन जाएगा।’’

उन्होंने यह भी कहा कि भारत बर्मा, मलाया, इंडो-चीन डच-इंडिज, इराक और ईरान जैसे एशियाई देशों की मुक्ति का प्रतीक और आरंभ बनेगा।

उन्होंने देशवासियों को मंत्र दिया कि वे अपने को आज से आजाद समझें और मालिक को बता दें कि हम नहीं डरेंगे। आप जिंदा रखना चाहते हैं तो रखें। उन्होंने कहा कि लोग अपना तरीका खुद ढूंढ़ें।

इतिहासकार ज्ञानेंद्र पांडेय के अनुसार इसका काफी मनोवैज्ञानिक असर हुआ। भारत छोड़ो के प्रस्ताव में आजाद भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था की तस्वीर भी पेश की गयी। इस संघ में चुनिंदा अधिकारों को छोड़कर सारी शक्तियां राज्यों को सौपने की बात कही गयी थी। इसमें हिंदू-मुस्लिम एकता की अपील की गयी थी। गांधीजी ने अंग्रेजों से कहा, ‘‘भगवान के भरोसे या वक्त पड़ा तो अराजकता के हाथों देश को सौंपकर ब्रिटिशों को यहां से चला जाना चाहिए।’’

‘भारत छोड़ो’ का ऐलान करते समय गांधी जी के दृढनिश्चय के बारे में मधु लिमये ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, ‘‘उनके तेज से, उनके प्रखर निश्चय से हम रोमांचित हो गये। गांधीजी को लेकर मेरे मन में जो पूर्वाग्रह या आपत्तियां थीं, वे सभी काफूर हो गयीं।’’

अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की इस बैठक में भाग लेनेवाले कम्युनिस्ट नेताओं ने फासिज्म से लड़ने की दलील दी और भारत छोड़ो के प्रस्ताव का विरोध किया।

लेकिन ‘करो या मरो’ की घोषणा के आते ही दो महत्त्वपूर्ण बयान आ गये। एक सावरकर, और दूसरा, मोहम्मद अली जिन्ना का। सावरकर ने हिंदू महासभा के कार्यकर्ताओं को आंदोलन से दूर रहने के लिए कहा और जिन्ना ने आंदोलन को मुसलमानों की सुरक्षा के लिए खतरा बताया। उन्होंने आंदोलनकारियों को मुसलमानों से दूर रहने को चेतावनी दी।

ब्रिटिश हुकूमत चौकन्ना थी और वह पहले से ही नेताओं को जेल में डाल रही थी। ‘भारत छोड़ो’ का प्रस्ताव पारित होते ही उसने कांग्रेस के पूरे नेतृत्व को जेल में डाल दिया। नौ अगस्त को सुबह चार बजे जब महात्मा गांधी प्रार्थना के लिए उठे तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। बाकी नेताओं को भी गिरफ्तार कर लिया गया। दूसरे दिन मुंबई में गवालिया टैंक पर अरुणा आसफ अली ने तिरंगा फहराने का ऐतिहसिक काम किया और गवालिया टैंक समेत कई जगहों पर जनता और पुलिस के बीच टक्कर होती रही। पुलिस ने आंसू गैस के गोले छोड़े तो स्थानीय लोग भीड़ के लोगों को बचाने के लिए खुलकर सामने आए। नेताओं की गिरफ्तारी की देश भर में तीव्र प्रतिक्रिया हुई।

वैसे तो गांधीजी ने यह कहा था कि इस आंदोलन में कांग्रेस अहिंसा की अपनी 22 वर्षों की संचित शक्ति का इस्तेमाल करेगी। लेकिन उनकी घोषणा में कई ऐसी बातें थीं जो आंदोलन को पहले जैसी जेल-यात्राओं से अलग दिशा में ले जाने की इजाजत देती थीं। अपने को आजाद समझो और उसी के अनुसार काम करो वाला मंत्र इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण था।

सरकार का चौकन्नापन काम नहीं आया। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं ने पहले से तय कर रखा था कि उन्हें इस बार जेल नहीं जाना। वैसे महसमिति की बैठक में भाग ले रहे अशोक मेहता और यूसुफ मेहरअली पकड़ लिये गये थे, लेकिन मुंबई में ही मौजूद सुचेता कृपलानी, डॉ राममनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन, अरुणा आसफ अली समेत कई नेता भूमिगत हो गये। जयप्रकाश नारायण जेल में ही थे।

इन नेताओं ने भूमिगत आंदोलन के संचालन के लिए कांग्रेस महासचिव सुचेता कृपलानी के साथ एक केंद्रीय संचालन मंडल बनाया जिसके समन्वय का काम पटवर्धन ने सँभाला और नीति निर्धारण का काम लोहिया ने। एसएम जोशी को महाराष्ट्र की भूमिगत गतिविधि का जिम्मा सौंपा गया। भूमिगत गतिविधियों में मधु लिमये, बसावन सिंह, सूरज नारायण सिंह जैसे नेताओं ने अपने-अपने क्षेत्रों मं अहम भूमिका निभायी।

सरकार को मिली रिपोर्टों के मुताबिक समाजवादियों ने बंबई, बिहार, उप्र, बंगाल तथा पंजाब में गुप्त दल बनाये थे जिसका जिम्मा बंबई में अशोक मेहता, बिहार में रामनंदन मिश्र और उप्र में बालकृष्ण केसकर तथा राजाराम शास्त्री को दिया गया था। कराची में यह जिम्मा तहलियानी को दिया गया था। केंद्रीय संचालन मंडल ने गांवों तथा शहरों में जनता के विद्रोह के लिए एक निर्देश जारी किया।

डॉ लोहिया और पटवर्धन के नेतृत्व में अहिंसक आंदोलन का एक नया स्वरूप सामने आया जिसमें किसी की जान लेने की मनाही थी, लेकिन सत्ता के केंद्रों और संचार व्यवस्था को ठप कर देना था। लोहिया मानते थे कि देश भर में पुलिस थानों का जाल ब्रिटिश सरकार की ताकत है। इसलिए थानों पर कब्जा कर लिया जाए और उनका संबंध शासन के शहरी केंद्रों से तोड़ दिया जाए तो ब्रिटिश शासन को पंगु किया जा सकता है।

डॉ लोहिया की सलाह पर 20 अगस्त को बंबई में इस रेडियो की स्थापना हुई। यह ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन की भूमिगत गतिविधियों के प्रचार के लिए बना था। इसमें विट्ठल भाई झवेरी, चंद्रकांत झवेरी और उषा मेहता काम करते थे। इसके लिए सामग्री लोहिया और पुरुषोत्तम त्रिकमदास की ओर से आती थी। इसमें उषा मेहता की अहम भूमिका थी। यह रेडियो 12 नवंबर, 1942 को पुलिस ने छापा मारकर ट्रांसमिशन की तैयारी करते वक्त उषा मेहता और चंद्रकांत झवेरी को गिरफ्तार कर लिया।

कांग्रेस रेडियो कम दिनों तक चला, लेकिन इसने सनसनी फैला दी और सरकार को हर स्तर पर चुनौती देनेवाले भूमिगत आंदोलन में एक नया आयाम जोड़ दिया।

(जारी )

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