— प्रोफ़ेसर राजकुमार जैन —
सीमान्त गांधी लोहिया से बेइन्तहा लगाव रखते थे, लोहिया के इंतकाल के बाद 1969 में जब वो हिंदुस्तान आए तो लोहिया को खिराजे अकीदत पेश करने के लिए लो लोहिया के सरकारी घर 7 गुरुद्वारा रकाबगंज रोड पर गए। लोहिया के निकटतम सिपहसलार कमाण्डर अर्जुन सिंह भदौरिया (भूतपूर्व एम.पी.) की सदारत में बहुत ही कम समय में बुलाई गई सभा में सरहदी गांधी ने लोहिया को याद करते हुए अपने से जुड़ी हुई कई बातें बतायीं।
लोहिया के सचिव ओमप्रकाश दीपक, रिपब्लिकन पार्टी के नेता (भू.पू. केंद्रीय मंत्री) एवं लोहिया के साथ संसद सदस्य रहे, बुद्धप्रिय मौर्य, लोहिया के निजी सहायक शौभन एवं दिल्ली के सोशलिस्ट नेता (भू.पू. सदस्य, दिल्ली नगर निगम) चौ. मेहरचंद यादव एवं अन्य।
भारत-पाक के बंटवारे में मोहम्मद अली जिन्ना और उनकी मुस्लिम लीग का मकसद तो एकदम साफ था। इसके लिए उन्होंने हर हथकंडे का इस्तेमाल किया। परंतु कांग्रेस पार्टी के नेताओं ने इसे कबूल क्यों किया? यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण सवाल है। इस बारे में डॉ. लोहिया ने लिखा है कि
“ये लोग (कांग्रेसी नेता) बुढ़ा गए थे और थक गए थे। वे अपने आखिरी दिनों के करीब पहुँच गए थे, कम से कम उन्होंने ऐसा ज़रूर सोचा होगा। यह भी सही है कि पद के आराम के बिना ये ज़्यादा जिंदा भी नहीं रहते। अपने संघर्ष के जीवन को देखने पर उन्हें बड़ी निराशा होने लगी थी। बहुत ज़्यादा मौकापरस्त बनने का मौका उनका नेता (गांधी) दे नहीं रहा था। वे कौन सी कमजोरियों के शिकार बनते जा रहे थे, इसका तो केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है। और फिर हरेक के लिए अलग-अलग कारण रहे होंगे। कुछ पद के मूर्ख रहे होंगे – उसके साथ थोड़ी बहुत शक्ति और आराम जो रहता है। कुछ ने सोचा होगा कि कम से कम मरने से पहले जब तक वे सरकार न चलाएं, तब तक देश में परिवर्तन नहीं लाया जा सकता है। इसलिए इतिहास में उनका नाम नहीं आएगा। कितना ग़लत विश्वास है यह! और कुछ तो यह सोच कर घबरा गए होंगे कि इतिहास उन्हें असफल और इसलिए महत्त्वहीन मानेगा।”
डॉ. लोहिया ने कांग्रेसी नेताओं के द्वारा भारत-पाक विभाजन पर मंजूरी देने के जो कारण गिनवाये थे, उसकी पुष्टि खुद जवाहरलाल नेहरू ने ही कर दी थी। पं. जवाहरलाल नेहरू की बायग्राफी के अमेरिकी लेखक माइकल्स ब्रेशर ने लिखा है कि हिंदुस्तान पाकिस्तान बंटवारे में आबादी की अदला-बदली में जो कत्लेआम, तबाही, बर्बादी हुई थी, उसको देखकर जवाहरलाल नेहरू ने माइकल ब्रेशर के सामने कबूल किया कि आबादी की अदला बदली के इतने खोफनाक परिणाम आएँगे, अगर मेरे जहन में ज़रा सा भी इसका ख्याल आता तो मैं कतई उसको कबूल नहीं करता; बातचीत के दौरान जवाहरलाल नेहरू ने ब्रेशर के सामने भारत-पाक विभाजन के आखिरी पाँच सालों में कांग्रेस के बड़े नेताओं की मन:स्थिति का खुलासा करते हुए कहा कि
हमारी आखिरी कै़द (अहमदनगर कि़ला ) से जब हम रिहा हुए थे, उस वक़्त हममें से अधिकतर लोग बुढ़ापे की जद में आ गए थे, कुछ लोग बीमार थे, हममें अब आगे लड़ने की कुव्वत रह नहीं गई थी।
प्रस्तुत लेख में जो इतिहास घटनाक्रम, वक्तव्य वार्ताएं या उदाहरण उसके नतीजे में लिखे गए हैं उनमें से अधिकतर इतिहास की अनेक किताबों में दर्ज हैं।
परंतु जो इंसान इसका चश्मदीद गवाह रहा हो, और उसने खुद भुगता हो उसकी मुँह जबानी सुनने पर हक़ीक़त का असली अहसास होता है। मेरे दोस्त डॉ. हरीश खन्ना (पूर्व विधायक) के पूर्वज सीमांत प्रांत के मूल निवासी रहे हैं। उनके दादा जी गुलशरण खन्ना, बादशाह ख़ाँ के चारसद्दा के पास के रहनेवाले थे। इनके दादा भी बंटवारे की त्रासदी को भुगतते हुए परिवार सहित अपने गाँव को छोड़कर दिल्ली आने पर मजबूर हुए थे। हरीश के दादाजी से मैं कई बार मिला था। जीवन के अंतिम दिनों तक वे अपने पठानी पहरावे में रहते थे, सिर पर पगड़ी, बादशाह ख़ाँ की तरह लंबी कमीज, सलवार, पठानी चप्पल वे पहनते थे। उनसे बात करने पर लगता था कि वे बादशाह ख़ान को फरिश्ते की तरह मानते थे। वे हमेशा कहते थे कि मैं जो आज तुम्हारे सामने जिंदा बैठा हूँ वह सब बादशाह ख़ाँ की मेहरबानी, सरपरस्ती के कारण हुआ। वे बड़े फख़्र के साथ बताते थे कि मैं बादशाह ख़ाँ के ‘सुर्खपोश खुदाई खिदमतगार’ तंजीम का सिपाही हूँ। बंटवारे के हालात पर वो बताते थे, गाँव में हिंदुस्तान-पाकिस्तान बंटवारे की ख़बरें आ रही थीं, हमारे यहाँ हिंदू-सिक्ख परिवार गिनती के थे। बड़ी भारी घबराहट और डर लग रहा था परंतु सकून की बात यह थी कि ‘सुर्खपोश’ के सिपाही, गाँव-गाँव घूम कर हिंदुओं-सिक्खों की हिफाजत तथा ढांढस बंधा रहे थे तथा कह रहे थे कि तुम लोग आराम से रहो। यहाँ कुछ भी नहीं होने वाला। फिर भी खबरों के कारण हम डरे हुए थे। हमने तय कर लिया था कि हम हिंदुस्तान जाएँगे। गाँव के हिंदू और सिक्ख गाँव छोड़कर निकल पड़े थे, चारों तरफ़ मौत की चिल्लाहट सुनाई दे रही थी ऐसे भयावह समय पर, खुदाई खिदमतगारों ने, हिंदुओं और सिक्खों को अपनी सुरक्षा में, स्पेशल चल रही रेलवे के डिब्बों तक पहुंचाया। दादा जी बहुत ही श्रद्धा भाव से बताते थे कि अगर बादशाह के खुदाई खिदमतगार न होते तो एक भी हिंदू-सिक्ख, सीमांत प्रांत से जिंदा बचकर नहीं आ पाता। उस समय के ख़ौफनाक मंजर को बयां करते हुए वे बताते थे, कि किसी को कुछ भी पता नहीं था, वो ऐसे अज्ञात स्थान पर जा रहे थे, जिसके बारे में कुछ भी मालूम नहीं। जहाँ वो जा रहे हैं, वहाँ उनका न तो कोई जानकार है, न रिश्तेदार। मैं अपने बेटे के साथ निकल पड़ा था थोड़ा बहुत ज़रूरी सामान जिसका बोझ मैं और मेरा बेटा उठा सकता था, कंधे पर थैला, सिर पर गठरी वो भी रास्ते में छिन गई। दोनों ओर हिंदुस्तान से पाकिस्तान और पाकिस्तान से हिंदुस्तान को कारवां चल रहा था। आहिस्ते-आहिस्ते खिसकते। बीच-बीच में गाडि़यों को रोककर कत्लेआम के डरावने दृश्य भी दिखाई देते थे। डिब्बों में चल रही बहू बेटियों के चेहरों को कपड़े से पूरी तरह ठांपकर तथा जब रास्ते में कोई गाँव पड़ता तो मर्दों के बीच या सीटों के बीच छुपाकर डरे सहमे परिवार चल रहे थे। इस भोगे हुए यथार्थ को बताते-बताते दादाजी की आवाज़ अवरुद्ध होने के साथ आँखें भी भीग जाती थी। दिल्ली शरणार्थी कैम्प में पहुंचकर भूखे-प्यासे लोगों को कुछ राहत महसूस हुई। सारी व्यथा सुनाते हुए आखि़र में बादशाह ख़ाँ के अहसान का जिक्र करना वो कभी भूलते नहीं थे।
मैक्लौहान ने ‘बादशाह ख़ान : ऐ टार्च ऑफ पीस’ में सही लिखा है कि दो बार नोबेल पुरस्कार नामित बादशाह ख़ान की जिंदगी की कहानी के बारे में लोग कितना कम जानते हैं कि 98 साल की अपनी जिंदगी में 35 साल उन्होंने जेल में बिताए इसलिए कि इस दुनिया को इंसान के रहने के लिए एक बेहतर जगह बनायी जा सके।
Shaandaar aalekh. 👏👏👏👏💐