क्या जाति जनगणना होनी चाहिए? – योगेन्द्र यादव

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ओबीसी समुदाय में शामिल जातियों की गिनती की मांग को स्वयं राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग और ओबीसी के कल्याण के निमित्त बनी संसदीय समिति ने हामी भरी है। इससे पहले जनगणना के महापंजीयक (रजिस्ट्रार जेनरल) भी इस मांग पर सहमति जता चुके हैं।

जाति जनगणना पर जारी मौजूदा बहस एक अर्थ में विचित्र है। अगर आरक्षण को लेकर आपको पता हो कि किसका पक्ष क्या है तो फिर आप बता सकते हैं कि इस बहस में कौन किस तरफ खड़ा है। जो लोग जाति आधारित आरक्षण की व्यवस्था का समर्थन करते हैं वे जनगणना में जातियों की गिनती के भी समर्थक हैं। जो जाति आधारित आरक्षण के विरोधी हैं वे जातियों की गिनती के भी विरोधी हैं।

इसपर तनिक गौर से सोचिए, क्या ये बेतुकी बात नहीं है? जाति आधारित आरक्षण के ईमानदार आलोचक को समर्थन ही नहीं बल्कि इस बात की मांग करनी चाहिए कि आर्थिक स्थिति और उपलब्ध शैक्षिक अवसरों के बारे में जातिवार ठोस आंकड़े जुटाये जाएं।

अगर जाति आधारित आरक्षण के आलोचक को सचमुच यकीन है कि शिक्षा और नौकरी के अवसरों तक सब लोगों की पहुंच समान है या फिर ये अवसर जाति नहीं बल्कि आर्थिक वर्ग के हिसाब से हासिल हैं तो उन्हें जनगणना में जाति आधारित गिनती का समर्थन करना चाहिए।

वजह ये कि जनगणना में सिर्फ लोगों की गिनती नहीं होती बल्कि इसके सहारे प्रत्येक समूह के शैक्षिक स्तर, पेशा, घरों की संपदा तथा आयु-प्रत्याशा के भी आंकड़े जुटाये जाते हैं। यह काम जनगणना के हर स्तर (यानी राज्य, जिला आदि) और चिह्नित हर समूह के लिए किया जाता है।

इसी से जुड़ा एक दूसरा पहलू भी है और वह भी सच है। जाति आधारित आरक्षण के मुखर समर्थकों को जातिवार गणना से डरना चाहिए। जातिवार गणना से इस बात के पक्के सबूत मिल सकते हैं (जो अभी तक हासिल नहीं) कि कुछ जातियां सुविधा-संपन्न हैं और उन्हें ओबीसी (आधिकारिक नाम एसईबीसी यानी सामाजिक एवं शैक्षिक रूप से पिछड़ा वर्ग) सूची में नहीं रखा जा सकता। दरअसल, मशहूर इंद्रा साहनी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ऐसे साक्ष्य हर दस साल पर जुटाये जाएं ताकि सुविधा-सम्पन्न जातियों को आरक्षण के लाभ के दायरे से हटाया जा सके।

जो लोग ना तो आरक्षण के पक्ष में हैं और ना ही आरक्षण के विपक्ष मेंउनके लिए भी जातिवार गणना के समर्थन में होने के पर्याप्त कारण हैं। अगर जातिवार गणना से उपलब्ध आंकड़े जुटा लिये जाते हैं फिर ओबीसी सूची में शामिल करने के लिए आए दिन सड़कों पर जो आंदोलन होता हैउसे विराम दिया जा सकेगा।

मतलब, अगर जाट और मराठा जाति के लोग ओबीसी की सूची में आना चाहते हैं तो उन्हें जातिवार गणना के आंकड़ों को देखना होगा और बताना होगा कि इन आंकड़ों के आधार पर वे सचमुच पिछड़ा वर्ग में आते हैं। या फिर, वे मसले पर चुप्पी साध रखने का दूसरा रास्ता चुन सकते हैं। अदालतें तो दशकों से ठीक यही बात कहती आ रही हैं कि कोई भी आरक्षण पुख्ता आंकड़ों के आधार पर दिया जाए। अब जनगणना के आंकड़ों से ज्यादा बेहतर आंकड़ा क्या होगा?

जाति जनगणना : मिथक और राजनीति

सीधी बात ये कि : जिस देश में जाति के आधार पर आरक्षण देने का इतना बड़ा कार्यक्रम चल रहा हो वहां जातियों की शैक्षिक और आर्थिक दशा के बारे में आंकड़ों का ना होना एक हास्यास्पद बात है। जाति-जनगणना के विरुद्ध तर्क देना अतार्किक है, अधकचरी जानकारी और बदनीयती की दलील है।

एक आपत्ति यह जतायी जा रही है कि जातिवार जनगणना करने का मतलब होगा अपनी राष्ट्रीय नीति को उलटी दिशा में ले जाना क्योंकि भारत में 1931 के बाद से कभी जातिवार आंकड़े एकत्र नहीं किये गये। लेकिन ये बात सच नहीं। देश की आजादी के बाद से ही हर जनगणना में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में आनेवाली प्रत्येक जाति अथवा जनजाति के बारे में सूचनाएं एकत्र की जाती रही हैं। मतलब, अगर आप ये जानना चाहते हैं कि देश के किसी प्रखंड या जिले में वाल्मीकि समुदाय के लोगों की संख्या कितनी है, ऐसे लोगों की तादाद कितनी हैं जो खेतिहर मजदूर हैं, किसके पास दोपहिया वाहन है या किसने स्नातक स्तर की शिक्षा प्राप्त की है तो आप जनगणना के आंकड़ों के सहारे सहज ही जान सकते हैं। हमने 1931 के बाद से जो काम नहीं किया है वह ये कि सारी जातियों की गिनती नहीं की है, बस कुछ जातियों की गिनती करते आए हैं।

दूसरी आपत्ति प्रक्रियागत बाधाओं से संबंधित है—तर्क दिया जा रहा है कि अभी की हालत में जाति जनगणना नहीं की जा सकती। लेकिन इस मामले में सारा कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि जाति जनगणना का क्या अर्थ ले रहे हैं। अगर आपका आशय ओबीसी समुदाय में आनेवाली जातियों और उनकी गिनती अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति की तर्ज पर होती आ रही गिनती से है तो इसमें कोई प्रक्रियागत बाधा नहीं आनेवाली। बस जनगणना के लिए इस्तेमाल होनेवाले फर्रे(कागज) पर आपको एक खाना और बढ़ा देना होगा।

ओबीसी समुदाय में शामिल जातियों की सूची केंद्रीय स्तर पर भी मौजूद है और राज्य स्तर पर भी। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के साथ-साथ ओबीसी समुदाय में शामिल जातियों की गिनती के लिए सरकार ओबीसी की केंद्रीय सूची का इस्तेमाल करते हुए गिनती करवा सकती है।

हां, संपूर्ण जाति जनगणना में, जिसमें सवर्ण कहलानेवाली जातियों की गिनती भी शामिल है, कुछ बाधा आएगी क्योंकि अभी हमारे पास देश में मौजूद सभी जातियों की कोई सूची नहीं है। अगर संपूर्ण जाति जनगणना की जाती है तो जनगणना के बाद के वक्त में बड़े व्यापक स्तर पर वर्गीकरण का काम करना होगा और इस कारण जातियों से संबंधित तालिका को प्रस्तुत करने में देरी होगी। लेकिन आम प्रचलन में तो यही है कि जनगणना से संबंधित कुछ आंकड़ों की तालिका गिनती के पांच या सात साल बाद पूरी हो पाती और प्रस्तुत की जाती है।

तीसरी आपत्ति ये की जा रही है कि जाति जनगणना से कोटा बढ़ाने की मांग जोर पकड़ेगी और अभी जो आरक्षण में 50 फीसद की सीमा चली आ रही है, उसे हटाना पड़ेगा। संभव है कि जाति जनगणना को लेकर जो जोश अभी देखने को मिल रहा है उसमें इस भ्रामक धारणा का भी कुछ योगदान हो। आरक्षण पर आयद पचास फीसदी की सीमा को हटाने की धारणा भ्रामक है क्योंकि ये जानने के लिए कि ओबीसी समुदाय की संख्या उनके लिए शिक्षा और नौकरियों में निर्धारित 27 प्रतिशत के आरक्षण से ज्यादा है, आपको जाति जनगणना के आंकड़ों में उलझने की जरूरत नहीं। बस मंडल आयोग की रिपोर्ट को उठाकर देख लीजिए जिसमें कहा गया है (और मेरे खयाल से तनिक बढ़ा-चढ़ा कर कहा गया है) कि देश की आबादी में ओबीसी समुदाय के लोगों की संख्या 52 प्रतिशत है। ऐसे में ओबीसी के हिस्से में 27 प्रतिशत का कोटा अगर तय किया गया तो इसलिए कि आरक्षण पर लगी 50 प्रतिशत की सीमा के दायरे में रहते हुए अधिकतम इतना ही करना संभव था। यदि जनगणना से ये पता चलता है कि ओबीसी समुदाय के लोगों की तादाद देश की आबादी में 45 प्रतिशत है तो उनके लिए नौकरियों में निर्धारित कोटे पर कोई असर नहीं पड़नेवाला। और, अगर पड़े तो भी ओबीसी में शामिल जातियों की गिनती के विरुद्ध इस तर्क का इस्तेमाल कैसे किया जा सकता है?

आखिर को एक तर्क ये दिया जा रहा है कि अभी जो सर्व-दलीय प्रतिनिधिमंडल ने मांग की है वह राजनीति से प्रेरित है। हांबात तो ठीक है लेकिन इससे जो मांग उठायी गई है वह तो अवैध नहीं हो जाती। मिसाल के लिएकोविड का टीका सबको निशुल्क मिलेये मांग राजनीति से प्रेरित हो सकती है लेकिन राजनीति-प्रेरित होने भर से ये मांग नाजायज नहीं हो जाती।

ओबीसी समुदाय में शामिल जातियों की गिनती की मांग को स्वयं राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग और ओबीसी के कल्याण के निमित्त बनी संसदीय समिति ने हामी भरी है। इससे पहले जनगणना के महापंजीयक (रजिस्ट्रार जेनरल) भी इस मांग पर सहमति जता चुके हैं।

इसके अतिरिक्त ये भी देखा जाए कि अगर जाति-जनगणना की मांग राजनीतिक है तो फिर इसका विरोध भी राजनीतिक ही है। बीजेपी 2010 में जाति जनगणना के पक्ष में थी और गृहमंत्रालय ने 2018 में ओबीसी समुदाय में शामिल जातियों की गिनती की घोषणा की थी। तो फिर इस बात से अभी के वक्त में कोई मुकर जाए तो जाहिर है, उसके कारण राजनीतिक ही माने जाएंगे।

योजना में सेंधमारी

जाति आधारित आरक्षण के मुद्दे को देखते-परखते और इस मुद्दे पर होनेवाली बहसों में भाग लेते मुझे अब तीन दशक होने को आए। सो, मेरे जैसे व्यक्ति के लिए मौजूदा बहस बड़ी हदतक कुछ वैसी ही है जैसे आंखों के आगे किसी दृश्य की पुरानी रील घूम रही हो। दशवार्षिक जनगणना के क्रम में ये तीसरी दफे है जब जाति जनगणना का सवाल उठा है।

हर बार यही होता है—एक जायज मांग को वोट बैंक की राजनीति कहकर खारिज कर दिया जाता है। जातिगत विशेषाधिकार को बनाये रखने की भितरघाती राजनीति में लगे लोग हर बार नौकरशाही की तकनीकी युक्तियों और राष्ट्रवाद के बड़बोलों की ओट कर लेते हैं।

बीते वक्त में दो दफे यानी 2001 तथा 2011 में जाति जनगणना की योजना में सेंधमारी की कोशिश कामयाब रही। क्या इस बार दृश्य कुछ बदलेगा? क्या हम ये उम्मीद पाल सकते हैं कि कम से कम ओबीसी समुदाय में शामिल जातियों की गिनती हो जाएगी? या फिर हम सम्पूर्ण जाति-जनगणना का रास्ता लेंगे? या, जाति-जनगणना की मांग का इस्तेमाल एक बार फिर से ओबीसी समुदाय की जातियों तक की गिनती को नकारने में किया जाएगा?

(द प्रिंट से साभार)

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