राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, हिंदुत्व और आरक्षण

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— रमाशंकर सिंह —

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने आधिकारिक रूप से पुन: स्पष्टीकरण दिया है वे आरक्षण के पक्ष में किसी से भी ज्यादा जोरदार समर्थन में हैं और यह आरक्षण तब तक चलना चाहिए जब तक सामाजिक रूप से पिछड़ी वंचित जातियों द्वारा भेदभाव की प्रतीति होती रहती है यानी उन्हें लगता है कि जाति के कारण उनको समान आदर समाज में नहीं मिल रहा।

इस स्पष्टीकरण का अवसर था संसद में सरकार द्वारा संविधान संशोधन विधेयक लाना जिसमें प्रावधान है कि राज्य सरकारें पिछड़ी जातियों की सूची में कुछ जातियों को जोड़ सकती हैं, यह संशोधन विपक्ष के समर्थन से अंगीकार हुआ।

कुछ बातों पर गौर किया जाना चाहिए कि –

1. संघ पहले से आरक्षण के समर्थन में नहीं था। मुझे याद है कि 1970 में ही दिल्ली विवि की अभाविप (अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद) इकाई मेरिट का वही घिसा-पिटा कुतर्क देती थी जो कि संघ के कार्यकर्ता व नेता उन्हें सिखाते थे। तब संघ व भाजपा (जनसंघ)  में दलित वंचित समाज के लोग सदस्य भी नहीं बनते थे।

2. यह भी एक सच्चाई है कि उस समय तक सभी कम्युनिस्ट दल भी भारत में जाति (वर्ण) को स्वीकार नहीं करते थे और मात्र आर्थिक आधार पर गरीब-अमीर की बात करते थे। जाति की सच्चाई और सामाजिक विभेद से पैदा आर्थिक विपन्नता को कम्युनिस्टों ने बाद में ही जाना-समझा और स्वीकार किया।

3. आजादी के बाद दलितों को पेरियार,बाबासाहेब आंबेडकर ने और उनके बाद उनके सक्षम अनुयायियों ने तथा पिछड़े वर्गों को डॉ लोहिया एवं उनके दल संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी ने लगातार कोशिश व मेहनत करते  हुए जगाया, संगठित किया और राजनीति से जोड़ा।

4. डॉ लोहिया के साथ कर्पूरी ठाकुर,रामसेवक यादव जैसे पिछड़े वर्ग के बीसियों तेजस्वी नेताओं ने जिला स्तर पर कई युवा पिछड़े नेताओं को प्रशिक्षित किया जो कि कालांतर में अपनी मेहनत के दम पर राज्य के नेता बने और सत्ता को भारतीय सामाजिक हकीकत से जोड़ा। यूपी में चौ. चरण सिंह ने खेतिहर जातियों को एकजुट किया और मुसलमान बुनकरों, कारीगरों की समस्या उठाकर एक मजबूत सामाजिक समीकरण खड़ा किया जो कि 1974 के बाद समाजवादियों  के साथ मिलकर और शक्तिशाली हुआ।

5. बाबासाहेब के बाद एक संगठन उदित हुआ ‘बामसेफ’, जिसने घर-घर जाकर मिशनरी भाव से दलितों को जाग्रत व संगठित किया और उसी शक्ति को मान्यवर कांशीराम ने राजनीतिक स्वरूप प्रदान किया।

6. दलितों व पिछड़ों के सत्ता में बैठने के कुछ समय बाद ही विघटन व वैचारिक फिसलन शुरू हुई और पैसे की भूमिका सामने आयी। साइकिल से घूमनेवाले नेताओं को जैसे ही विशेष हवाई जहाज की सुविधा मिली उन्होंने उसे सुविधा की जगह सपना बना लिया।

7. उत्तर भारत में पहले भी और आज भी दलित-पिछड़ा सामाजिक युति किसी भी सांप्रदायिक तूफान को हवा में उड़ा देने में सक्षम है यह तथ्य उन्हें क्यों न मालूम होगा जो इससे खतरा महसूस करते थे और कई बार भुगत चुके थे।

8. दक्षिण भारत में राजनीति के दोनों ध्रुव द्रविड़ व पिछड़े वंचितों के हाथ में रहे और वैचारिक आधार अधिक स्पष्ट व मजबूत रहा तो राजनीति में सवर्णों का वर्चस्व कभी भी नहीं हो पाया।

9. उत्तर व मध्य भारत में कांग्रेस सवर्ण बल्कि ब्राह्मण-बनिया जातियों के नेतृत्व की पार्टी रही और इसी कारण तिरोहित भी होती चली गयी। संघ व भाजपा ने लगातार हारते हुए यह समझ लिया कि दलितों व पिछड़ों के बगैर चुनावी जीत असंभव है। लेकिन कांग्रेस ने स्थिति पर पुनर्विचार करने से इनकार कर दिया जबकि संघ ने सांस्कृतिक व धार्मिक अभियान से पिछड़ों को जोड़ दिया जिसे समाजवादियों ने मात्र राजनीतिक बनाकर रखा था। जबकि ठोस पंथनिरपेक्ष भारतीय सांस्कृतिक धरातल की जमीन डॉ  लोहिया अपने जीवन काल में ही देकर गये थे लेकिन उस विचार शृंखला को अधिकांश नेताओं ने समझने से इनकार किया और धीरे-धीरे जमीन खिसकनी आरंभ हो गयी जिसे एकाध दशक तक यादव-मुसलमान के (‘माई’) समीकरण ने टिकाया।

10. संघ और भाजपा दो स्तरों पर काम कर रही थे,वंचितों को अपने पंथिक एजेंडे से जोडना और गांव-मोहल्ला-तहसील स्तर पर उन्हें नेतृत्व में शामिल करना, उन्हें अपनी शाखाओं में प्रशिक्षित करना और पूर्व के अपने उच्चकुलीन सवर्ण नेतृत्व व मतदाता वर्ग  को और मजबूत करते हुए एक पृथक अभियान आरक्षण के विरुद्ध चलवाना। कोई अन्य दल अपनी सांगठनिक कमजोरियों और विशेषतया आनुषंगिक संगठनों के अभाव में यह कर ही नहीं सकता है। संघ ही ऐसा अन्तर्विरोधी काम करने में सक्षम है और वैसा ही  किया गया जो आज तक पूरी कुशलता से चल रहा है!

अवसरवादिता और गतिशील राजनीति में परिवर्तित राय या फैसलों में कितनी दूरी होती है? इसे समझने के लिए कम्युनिस्टों  और संघ के आरक्षण पर मत परिवर्तन को एक साथ समझिए। मैं फिर भी दोनों को यह मार्जिन या छूट या शंका का लाभ  देना चाहूँगा कि कुछ भी कारण हो, दोनों विचारधाराओं ने भारत की सामाजिक स्थिति को अंतत: समझा और अपनी राय बदली, चाहे किसी ने भी किसी भी राजनीतिक कारणों से वैसा किया हो। आंबेडकर और लोहिया की राजनीति की यह सफलता तो है कि उनकी मृत्यु के बाद ही सही, पर राजनीति की मुख्यधारा ने विशेष अवसर के  सिद्धांत को स्वीकार किया। संसद में संविधान संशोधन बिल पर सभी दलों का एक मत से बिल का समर्थन करना दर्शाता है कि चालीस बरसों में यह बड़ा परिवर्तन लानेवाले दो महान नेता सही थे, चाहे कोई  नाम ले या न ले।

उत्तर भारत में दलित-पिछड़ा आंदोलन अलग-अलग राज्यों में भिन्न तरीक़ों से विकसित हुआ जैसे यूपी में बामसेफ व कांशीराम के नेतृत्व में मायावती को चेहरा बनाकर दलित संगठन खड़ा कर पाया पर पंजाब में बड़ी दलित आबादी होते हुए भी असफल रहे। बिहार में मायावती और कांशीराम ने क्षीण कोशिश की। बिहार में कर्पूरी ठाकुर के जीवनकाल में सबसे बड़ा पिछड़ा-दलित आंदोलन खड़ा हुआ लेकिन उनके जाने के बाद वह टिक नहीं पाया। यूपी में दलितों की ही एक सबसे मजबूत उपजाति के संगठित रहने के कारण अन्य दलित भी करीब दो दशक तक एक रहे पर मायावती और बसपा के संकुचित रुख के कारण ग़ैर-जाटव  दूर होने लगे। भाजपा व संघ इस मौके को क्यों छोड़ देते?

 संघ व भाजपा ने कैलकुलेटेड तरीके से अलग अलग अंचलों में अलग-थलग पड़ी छोटी-छोटी जातियों को अपने कथित सांस्कृतिक पंथिक एजेंडे से जोड़ दिया। जैसे कि पिछड़ी जातियों व गैर-जाटवों के युवाओं को काँवड़ यात्रा, गणेश चतुर्थी, रामलीला, और नवरात्र कार्यक्रमों में मोहल्लों में चंदा लेना, शामियाना लगवाना और मूर्तियों को लाने, विसर्जन करने का जुलूस और एक सप्ताह की मंच के पीछे की मौज-मस्ती में लगा दिया। काँवड़ यात्राओं में हरिद्वार से लेकर हरियाणा और अन्य मार्गों पर ऐसे शिविर हर दो किमी पर लगाये गये जहाँ मिलनेवाला भोजन, नाच-गाना व नशा किसी भी गरीब-पिछड़े दलित युवा के लिए सपने जैसा था। इन दो दशकों में लाखों लोग बल्कि आधा करोड युवा भगवा टी-शर्ट पहने पूरे देश में सक्रिय रहते हैं। तब सोशलिस्ट,  कांग्रेसी और कम्युनिस्ट क्या कर रहे थे? वे उन काँवड यात्राओं से उत्पन्न ट्रैफिक जाम व डीजे के शोर पर नाक-भौं सिकोड़ रहे थे। यहीं उन काँवड यात्राओं पर आदेशानुसार पुलिस हेलिकॉप्टर से फूल बरसा रही थी और कई स्थानों पर इन युवाओं को हिंसक व्यवहार की ट्रेनिंग मिल रही थी। रास्ते में मध्यवर्गीय परिवारों से बदमीजी, कारों में आग लगाना, तोड़फोड़ वे युवा कर रहे थे जिनके घरों में न कार थी न उनके परिवार वैसे सजधज कर यात्रा कर पाते हैं। वंचित वर्ग की तड़प भी निकलने दी जा रही थी, सब कुछ नियोजित था। बाबरी मस्जिद ढहाने में यही पिछड़ा-दलित वर्ग सामने आया था।

– जब संघ व भाजपा जमीनी स्तर पर यह महा अभियान चुपचाप चला रहे थे तब उदारवादी  तत्त्व और फर्जी क्रांतिकारी लोग कांग्रेस-कम्युनिस्ट-सोशलिस्ट राज के अंतिम चरणों में बची-खुची विलासिता (बौद्धिक भी) की कसर पूरी कर रहे थे। वे क्लबों की चर्चाओं में व्यस्त थे और समझ रहे थे कि राजीव गांधी काल की मध्यवर्गीय ऊपरी फैशनेबुल राजनीति ही उन्हें बहुत दूर तक ले जाएगी। अपनी अवधि पूरी कर राजीव गांधी या कांग्रेस की सरकार तब भी नहीं लौट सकी जब बीच चुनाव में राजीव शहीद हो गये।  इसी चक्कर में अटल बिहारी सरकार फँसी और शाइनिंग इंडिया ने उन्हें डुबो दिया।

– बुझती लौ की आखिरी लपक डॉ मनमोहन सिंह के दस  साल में दिखी जब सिब्बल, चिदंबरम जैसे अनेक उच्चवर्णीय उच्चवर्गीय पार्टटाइम राजनीतिज्ञों ने कांग्रेस का बचा-खुचा स्वरूप खत्म कर दिया। भारतीय समाज में आर्थिक-सामाजिक परिवर्तन एकसाथ कदमताल कर चल सकते हैं। न नेहरू न राजीव न सोनिया न राहुल इस बात को समझते हैं और कम्युनिस्ट तो खैर कभी अपने डोगमा (हठधर्मिता) से बाहर निकलने की हिम्मत ही नहीं करते। परिणामत: गांधीजी का परोसकर दिया सर्वसमाज आंदोलन ही  बड़ी मेहनत से कांग्रेस ने नष्ट कर दिया जिसे आंशिक ही सही पर कितनी मेहनत से आज से सौ साल पहले गांधी जी जोड़कर गये।

– इस अवधि के पहले ही तमाम खेतिहर जातियों के किसान नेता कांग्रेस  छोड़कर  जा चुके थे जिन्हें बाद में कुलक व जातिवादी कहा गया लेकिन जब तक कांग्रेस में थे तो एक भी आवाज न उठी थी जो उन्हें कुलक कहे। कांग्रेस के इस अभियान का हरावल दस्ता कम्युनिस्टों को बनाया गया जो डॉ लोहिया से लेकर चौ. चरण सिंह आदि को नये-नये अलंकरण बाँटता रहता था। यूपी में मुलायम सिंह ने चौबीस घंटे की मेहनत से यादव व मुसलमान युति बनायी जिसके साथ कुछ पिछड़ा वर्ग आया पर सत्ता में आते ही यादवों ने पूरे संगठन व राजकाज पर कब्जा कर लिया और वह आंदोलन भी ढीला पड़ने लगा। भाजपा-संघ ने कभी भी अपनी नजर नहीं हटायी और जैसे ही कहीं अंसतोष दिखता तो तत्काल उसे अपने आँगन में न सिर्फ ले आते बल्कि कालांतर में उसे मानसिक रूप से प्रशिक्षित भी करते रहे।  अखिलेश एक बार संभवतया दोबारा सत्ता में तो आ सकते हैं पर यूपी में पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक वर्गों का महासंगठन बनाना मुश्किल लगता है।

– बिहार में दलित आंदोलन ने जातीय रूप ले लिया और पासवान, माँझी और मल्लाह जैसी  अन्य जातियों ने अपने-अपने अलग नेता व अलग पार्टी बना ली। इसका बड़ा दोष सिर्फ उन दलित नेताओं को है जिन्हें यदि राजनीतिक बँटवारे में पाँच लोकसभा सीट मिली तो पाँचों पर अपने परिवार को ही खड़ा कर दिया।  और यही हाल सबका हुआ। नतीजतन  दलित आंदोलन बिखरा और असंगठित बना रहा। जाहिर है कि ऐसी स्थिति में कमजोरी ही आनी थी।

संघहिंदुत्व और सामाजिक आधार

लालू और मुलायम की पार्टियाँ उन्हें  प्राप्त गरीब जातियों व वर्गों का जन समर्थन बरकरार नहीं रख पायीं क्योंकि नेतृत्व पर उनका या उनकी संतानों का हक सबसे पहले था और यह घोषित करने में भी कोई कोताही नहीं की। उसके बाद का हक उनकी अपनी जातियों के दबंगों का था जो गाँवों में दलित, महादलित और अतिपिछड़ों की कुटाई करने और बेगार कराने में आगे हो चुके थे। यही काम पहले राजपूत करते थे। अब यादव करने लगे।

 वैचारिक आधार पर प्रशिक्षण  की कमी के कारण इन यादवों में भी अगली पीढ़ी के सुशिक्षित और प्रशिक्षित कार्यकर्ता, नेता ना के बराबर  ही निकले। हाँ दबंगई, लट्ठ, पैसा और सत्ता के बेजा इस्तेमाल की कुसंस्कृति इन्होंने जरूर कांग्रेस से सीखकर अपना ली। इन हरकतों से एकाध चुनाव जीता जा सकता है लगातार नहीं। और संघ-भाजपा जैसी संगठित पार्टी तो हरगिज नहीं खड़ी की जा सकती।

– जैसे हरियाणा में जाटों के विरुद्ध सारी जातियों को भाजपा ने इकट्ठा कर एक ऐसे राज्य में सत्ता कायम कर ली जिस की कल्पना भी दो दशक पहले तक कोई नहीं कर सकता था। जाटों की सामाजिक दबंगई और चौटाला या हुड्डा जैसे नेताओं का खुला भयानक भ्रष्टाचार व जातीय पक्षपात ने अन्य सभी जातियों को इकट्ठा कर दिया। और जहाँ मुसलमानों की संतुलित करने की ताकत नहीं थी वहाँ भाजपा जीतती चली गयी।  यही हाल कमोबेश बिहार व यूपी में यादवों ने किया। फर्क सिर्फ इतना था कि यूपी व बिहार  में मुसलमानों की मज़बूरी थी कि वे भाजपा के साथ नहीं जा सकते थे और विवशता में यादव पार्टी के साथ चलना था। इसी परिप्रेक्ष्य में यदि देखें और ठीक गणना करें तो पिछली बार यूपी में अखिलेश को व बिहार में लालू नेतृत्व में राजद के नीतीश विहीन होने पर बहुत ही कम सीटें मिली थीं। इस बार भी नीतीश-भाजपा गठबंधन का अपनी तमाम अलोकप्रियता के बावजूद सरकार बनाने की हालत में पहुँच जाना साबित करता है कि सामाजिक गठबंधन में कहीं कोई खास कमी है जिसे तेजस्वी जैसे अपरिपक्व नेता देखने-समझने में अक्षम हैं।

ईवीएम की बात एकदम बकवास है और पहले से ही मैं इसे खारिज करता रहा हूँ जबकि चुनाव आयोग जरूर पक्षपाती होता जा रहा है जिसकी मिसाल  व दुरुपयोग की बुनियाद कांग्रेस ने पहले से ही देश में रख दी थी। आज भी कांग्रेस यह कहने को तैयार नहीं हैं कि जब हम सत्ता में आएंगे तो चुनाव आयोग का गठन एकदम पारदर्शी प्रक्रिया से, पूरी निष्पक्षता से करने के लिए संवैधानिक प्रावधान करेंगे। यह आज की चर्चा का विषय नहीं, इसलिए रहने देते हैं।

अब आप पूरे देश पर नजर डालिए तो वंशवाद पूरी तरह फैल चुका है। तमिलनाडु, आंध्र, तेलंगाना, ओड़िशा, बंगाल, बिहार, यूपी, हरियाणा, महाराष्ट्र, कश्मीर जैसे राज्यों में ऐसी पार्टियाँ उपस्थित व मजबूत हैं जो एक पीढ़ी के बाद दूसरी पारिवारिक पीढ़ी को सत्ता सौंप रही हैं या सौंपने की तैयारी में हैं। जिन राज्यों में यह बीमारी आनेवाली है उनके नाम हैं मप्र, राजस्थान, कर्नाटक, हिमाचल। यदि सर्वोच्च शिखर पर मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री पद पारिवारिक उत्तराधिकार में मिलेंगे तो धरातल पर दशकों से मेहनत करते हुए गरीब वर्ग व जातियों के नेता क्या भाड़ झोंकने के लिए राजनीति में हैं? इसीलिए जब किसी भाजपाई सांसद या मंत्री का बेटा/बेटी राजनीति में टिकट पाता है तो पूरे भारत में दस-बीस अपवाद ही मिलते हैं और संघ प्रयासपूर्वक उसे या तो सीमित कर देता है या रोक देता है। यह विषय से संबंधित मुद्दा है, महत्त्व का है इसलिए  लिखा।

– मूल विषय पर लौटें कि जब-जब जहाँ-जहाँ कोई जाति या जाति का नेता किसी भी कारण से रूठा, नाराज़ हुआ तो तत्काल संघ-भाजपा सक्रिय होकर उसे अपनी छतरी के नीचे लेकर उसी  के जातीय संपर्कों के जरिये पैठ बना लेते हैं और पाँच-दस साल में नये जातीय कार्यकर्ता खड़े कर देते हैं। संघ- भाजपा ऐसे लोगों का समुचित इस्तेमाल कर कूड़ेदान में फेंकने में देर  नहीं लगाते,  यदि ठीक-ठाक पैठ हो गयी तो। वरना कुछ समय तक बर्दाश्त करते हैं। गैर-भाजपा दलों के क्षेत्रीय नेता सत्ता में आने पर नौवें आसमान पर रहते हैं और सत्ताच्युत होने पर चार साल आराम करते हैं यह सोचते हुए कि अगला मौका हमें ही मिलेगा, कि जनता अब पछता रही होगी। भाजपा और संघ का सांगठनिक ढाँचा लगातार सक्रिय रहने का है, वे हर महीने दस दिन का काम अपने कार्यकर्ताओं को दिये रहते हैं चाहे सत्ता में रहें या विपक्ष में!

कांग्रेस समेत अन्य सभी गैर-भाजपाई दलों के नेता अपने इर्द-गिर्द के लोगों (चमचा पढ़ा जाए) पर ही हर बार अंत तक बगैर समीक्षा व विश्लेषण के भरोसा करते रहते हैं जब तक कि वे ही दल छोड़कर नहीं चले जाएं। नये लोगों को लगातार भर्ती कर, प्रशिक्षित कर, उन्हें गुण-दोष के आधार पर उठाना, नयी पौध तैयार करना और यह नयी पौध वहाँ से हो जो वंचित दलित-पिछड़ा वर्ग का हो। यह काम कौन कर रहा है? और जब संघ-भाजपा ने ऐसी पीढ़ी को तैयार कर लिया तो बदली हुई परिस्थिति में उसने अपने सर्वोच्चवर्णीय  चितपावन ब्राह्मण नेतृत्व को सुरक्षित करने के लिए बहुसंख्य पिछड़ा वर्ग को आरक्षण दिये जाने को अपना पूर्ण समर्थन दे दिया।

 अब मुख्य वोट रहेगा पिछडी जातियों का और समर्थन रहेगा ऊंची जातियों का और लक्ष्य होगा  हिंदुत्व जिससे ग्रामीण ब्राह्मणवर्ग  संतुष्ट रहेगा, राजपूतों की राजनीतिक समझ सबसे कमजोर व अतीतजीवी है उनकी परवाह करने की जरूरत भाजपा को नहीं है। दशहरे पर एक क्षत्रिय सम्मेलन और उसमें “महाराणा प्रताप बनाम अकबर” पर हुए भाषण राजपूतों की मूंछ सतर रखने के लिए साल भर का पर्याप्त मसाला दे देते हैं।  वे इसी में खुश रहते हैं कि हमने जाटों, गूजरों, यादवों को रोक दिया, भाजपा को जिताकर।

कांग्रेस समेत सभी गैर-भाजपा दलों के नीचे कितने आनुषंगिक संगठन हैं? अधिकतम दस, जिनमें से सबसे अधिक सक्रिय युवा व छात्र संगठन ही रहते हैं। संघ-भाजपा  के कम से कम एक सौ सक्रिय आनुषंगिक संगठनों के नाम तो मैं ही गिना सकता हूँ  जिनमें पूर्णकालिक प्रचारक व संगठनकर्ता केंद्रीय संगठन द्वारा पदस्थ किये जाते हैं और जिनके जरूरतमंद परिवारों की देखरेख मुख्य संगठन करता है। कुल मिलाकर देश-विदेश में कई सैकड़ा आनुषंगिक संगठन हैं जिनकी गतिविधियाँ संघ संचालित करता है और उनमें से कुछ ही भाजपा में संगठनमंत्री के रूप में पदस्थ होते हैं। जहाँ अन्य दलों के पास मात्र सौ-दो सौ पद होते हैं वहीं भाजपा-संघ के पास करीब पाँच लाख सांगठनिक पद हैं।  यहाँ भी कितने नये लोग जिम्मेदारी व दायित्व पाते हैं।

(जारी)

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